संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भ्रष्टाचार में पूंजीनिवेश, हिन्दुस्तान का लोकतंत्र जा रहा है गहरे गड्ढे में
29-Feb-2024 8:12 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  भ्रष्टाचार में पूंजीनिवेश, हिन्दुस्तान का लोकतंत्र जा रहा है गहरे गड्ढे में

तेलंगाना से कुछ अजीब सी खबर आई है, आन्ध्रप्रदेश और इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज रह चुके एक रिटायर्ड व्यक्ति से दो लोग अपने को आरएसएस का बताकर मिले, और केन्द्र सरकार में बड़ा ओहदा दिलाने के नाम पर उनसे मोटी रकम वसूली। भूतपूर्व जज के अलावा उनके परिवार से भी अमरीका में नौकरी दिलाने का झांसा दिया, और इसके एवज में भाजपा के लिए चुनावी बांड के जरिए चंदा लेने की बात कहते हुए ढाई करोड़ रूपए ठग लिए। अब तक कम पढ़े-लिखे लोग या टेक्नॉलॉजी को न समझने वाले लोग फोन पर आने वाले ओटीपी को देने की गलती कर बैठते थे, लेकिन यह बिल्कुल अलग किस्म का मामला है जिसमें हाईकोर्ट के जज रह चुके व्यक्ति ने इस तरह करोड़ों रूपए गंवा दिए, और यह मान लिया कि भाजपा के चुनावी बांड खरीदने से उसे केन्द्र सरकार में बड़ा ओहदा मिल जाएगा। जाहिर है कि भाजपा की तरफ से ऐसा कोई धोखा नहीं दिया गया है, और आरएसएस का भी इसमें नाम ही लिया गया है, लेकिन बाजार में भ्रष्टाचार को लेकर लोगों के मन में कितना भरोसा है यह इससे साबित होता है। हमारे आसपास तकरीबन हर हफ्ते एक-दो ऐसी गिरफ्तारियां होती हैं जिनमें लोग नौकरी लगाने का वायदा करके वसूली करते हैं जो कि किसी असली संभावना को लेकर नहीं होती, पूरी तरह से ठगी होती है। लेकिन हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज अगर ऐसी लंबी-चौड़ी और करोड़ों की ठगी के शिकार हुए हैं, तो उससे ऐसा लगता है कि सरकारों में व्यापक भ्रष्टाचार होने की साख काफी फैली हुई है, अब अगर जनधारणा ऐसी है, तो लोगों को सोचना चाहिए कि भारत की सरकारी व्यवस्था की साख दूर-दूर तक गड़बड़ है। फिर यह भी है कि मामूली सरकारी नौकरियों से परे मनोनयन से भरे जाने वाले बड़े-बड़े और ऊंचे ओहदे भी भ्रष्टाचार के शिकार हैं। दूसरी बात यह भी है कि यहां पर किसी की नियुक्ति रिश्वत लेकर हो या बिना रिश्वत के, इन जगहों पर बैठकर भी कमाई की मोटी गुंजाइश जरूर होगी, तभी लोग इसके लिए करोड़ों रूपए देने को तैयार हैं। 

अब हम इस एक घटना से परे देखें, तो राज्यों में जगह-जगह कमाऊ कुर्सियों पर अफसरों की तैनाती मोटी रिश्वत से होती है, और वहां जाते ही अफसर अपने पूंजीनिवेश को वसूलना शुरू कर देते हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले पांच बरस में यह आम चर्चा रही कि किसने, किस अफसर को, कितने करोड़ देकर कौन सी कुर्सी पाई। इसके बाद यह भी चर्चा आम रहती है कि किस कुर्सी की कितनी कमाई रहती है। यह भी लोगों को दिखता है कि कौन-कौन से अफसर किस-किस जगह पर कितनी जमीन-जायदाद खरीदते हैं। अगर जमीनों के दलालों से समझा जाए, तो वे एक-एक अफसर की हर जमीन को गिना सकते हैं, जो कि उनके इलाके में ली गई है, या पहले से है। हर पटवारी को पता होता है कि किस साहब ने उसे बुलाकर किन जमीनों के बारे में बात की है, किनके कागज निकलवाए हैं। इसका पता अगर नहीं होता है, तो भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले, अनुपातहीन संपत्ति पकडऩे वाले उन विभागों को ही नहीं पता होता है जो इसी काम की रोटी खाते हैं। सत्ता पर पार्टियां आती-जाती रहती हैं, नेता भी बदलते रहते हैं, लेकिन अफसर औसतन पांच-छह सरकारों के कार्यकाल तक बने रहते हैं। नतीजा यह होता है कि अवैध कमाई की उनकी जानकारी नेताओं के मुकाबले खासी अधिक रहती है, और फिर यह भी रहता है कि अधिकतर फाइलों पर दस्तखत अफसरों के ही होते हैं, इसलिए मंत्री या नेता बिना तो भ्रष्टाचार हो सकता है, लेकिन अफसर बिना भ्रष्टाचार नहीं हो सकता। आन्ध्र के इस ताजा पूंजीनिवेश को देखते हुए देश और प्रदेशों की सरकारों को यह सोचना चाहिए कि अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में, और जिम्मेदारी के अपने-अपने दायरों में क्या वे भी इस भ्रष्ट व्यवस्था को कुछ कम कर सकते हैं? या फिर सत्ता पर आने के लिए एक बड़ी प्रेरणा यह भ्रष्टाचार ही रहता है, और लोग मेहनत और खर्च से चुनाव जीतकर सत्ता पर आते इसीलिए हैं कि कमाया जा सके। छत्तीसगढ़ में अभी पिछली कांग्रेस सरकार के जाने के बाद, और भाजपा सरकार के आने पर पिछले लोगों के कई किस्म के भ्रष्टाचार सामने आ रहे हैं। इसलिए यह भी लगता है कि जिन लोगों के मंत्री बनने की संभावना रहती है, वे अंधाधुंध चुनावी-निवेश करके जीतने की कोशिश करते हैं, ताकि लागत के पेड़ से सैकड़ों गुना अधिक फल पाए जा सकें। 

अब भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस न्यायपालिका से थोड़ी-बहुत उम्मीद बंधती है, उसमें संवैधानिक-अदालत, हाईकोर्ट के जज रहे हुए आदमी को भी जब करोड़ों का पूंजीनिवेश सुहा रहा है, तो फिर आम लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। दिक्कत एक है कि भ्रष्टाचार के मामले पकड़ाते बहुत हैं, उनमें से अदालत तक बहुत कम पहुंच पाते हैं, और सजा तो शायद ही किसी को मिलती है। आज देश में जांच के सबसे अधिक अधिकार जिस एजेंसी, ईडी के पास हैं, उस एजेंसी का भी सजा दिलवाने का रिकॉर्ड बड़ा ही कमजोर है। यह महज कुछ फीसदी तक सीमित है। इसलिए अधिकतर लोग यह मानते हैं कि ईडी के मामलों में गिरफ्तार लोग जमानत के पहले जितने वक्त जेल में रहते हैं, बस वही मानो उनकी सजा रहती है। जब सबसे अधिक अधिकारों वाली एजेंसी का यह हाल है, तो बाकी एजेंसियों का सजा दिलवाने का, या भ्रष्टाचार पकडऩे का रिकॉर्ड तो और भी खराब होना ही है। राज्यों की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां सिर्फ पटवारी या बहुत छोटे-छोटे सबइंजीनियर जैसे लोगों को पकड़ती है, और जिन मगरमच्छों की जानकारी हर किसी को रहती है, वे खुले घूमते रहते हैं, रिटायर होने के बाद भी तरह-तरह का दूसरा पुनर्वास पाते हैं, और कमाई करते रहते हैं। देश और प्रदेशों में जितने तरह के संवैधानिक आयोग बने हैं, उनकी वजह से अब सिर्फ दीनहीन अफसर और जज ही रिटायर होने के बाद बिना काम रहते हैं, बाकी तमाम लोग कोई न कोई सहूलियत और/या कमाई की कुर्सी पा जाते हैं। तेलंगाना के रिटायर्ड जज साहब ने ऐसा ही पूंजीनिवेश किया था, लेकिन ढाई करोड़ की ठगी से हासिल कुछ नहीं हुआ। 

देश में भ्रष्टाचार कम होना चाहिए यह कहना तो आसान है, लेकिन भ्रष्टाचार को कम करने की नीयत किसी की दिखती नहीं है। और तो और इसे उजागर करने की जिम्मेदारी लोकतंत्र के जिस स्वघोषित चौथे स्तंभ की मानी जाती है, वह खुद भी तरह-तरह के भ्रष्टाचार का हिस्सेदार हो जाता है। ऐसे में इस देश को गहरे गड्ढे की तरफ जाना है, और वह जा रहा है। ताकतवर लोग चाहे लोकतंत्र के किसी भी स्तंभ के हों, वे गिरोहबंदी करके एक माफिया चला रहे हैं, और चुनाव एक माफिया की जगह दूसरे माफिया को कुछ बरसों की लीज देता है।    

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