संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दल-बदल की सहूलियत से लोकतंत्र की साख चौपट...
20-Feb-2024 5:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   दल-बदल की सहूलियत से लोकतंत्र की साख चौपट...

मध्यप्रदेश में लगातार कुछ दिन कांग्रेस नेता कमलनाथ के अपने बेटे के साथ भाजपा में जाने की खबरें छाई रहीं, अटकलें लगती रहीं, सांसद बेटे नकुलनाथ ने अपने सोशल मीडिया पेज पर से कांग्रेस का जिक्र भी हटा दिया, और बाप-बेटे के कई समर्थकों ने भी यही किया। इन खबरों से पार्टी की बदहाली की बात फैलती रही, और अब जाकर तीन-चार दिनों की चुप्पी के बाद यह कहा गया कि वे और उनके बेटे पार्टी नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसी चर्चा थी कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी शिकस्त के बाद प्रदेश में कांग्रेस के जागीरदार बने हुए कमलनाथ से प्रदेश अध्यक्ष पद छोडऩे कहा गया था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। नतीजा यह था कि पार्टी ने एक नौजवान को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। इसके बाद कमलनाथ इंतजार कर रहे थे कि उन्हें पार्टी राज्यसभा भेजेगी, लेकिन राज्यसभा में भी कांग्रेस ने लोकसभा के लगातार चार चुनाव हारने वाले एक दूसरे नेता को भेजने का रहस्यमय फैसला किया। इसी के बाद पार्टी से जाहिर तौर पर खफा कमलनाथ ने बेटे सहित पार्टी छोडऩे का यह माहौल बनाया था। ऐसा देश भर में जगह-जगह हो रहा है। और भाजपा के कांग्रेसमुक्त भारत का नारा कांग्रेसयुक्त भाजपा में तब्दील हो चुका है, अभी किसी ने महाराष्ट्र से भाजपा के राज्यसभा उम्मीदवारों की लिस्ट पोस्ट की है जिसमें कांग्रेस से आयातित नेता भरे हुए हैं। भाजपा के कुछ जानकार बताते हैं कि पार्टी में कुछ लोग कांग्रेस में थोक में आयात के खिलाफ, कुछ दूसरे लोगों का यह भी मानना था कि पार्टी के बुनियादी एजेंडा को पूरा करने के लिए ऐसा करना जरूरी है, क्योंकि महज अपने दम पर उसमें जाने कितने बरस लगेंगे। इसलिए कांग्रेस से भाजपा में आने को तैयार तकरीबन हर बड़े नेता को लाया जा रहा है। यह एक अलग बात है कि कमलनाथ को लेकर भाजपा के कई नेताओं में कुछ अधिक ही विरोध था कि उनका नाम 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों में इस तरह आया हुआ है कि उससे पार्टी का बड़ा नुकसान होगा, और पार्टी 1984 के मुद्दे को खो बैठेगी, इसलिए शायद कमलनाथ ने भाजपा में जाने का इरादा नहीं छोड़ा है, भाजपा ने उन्हें लेने का इरादा छोड़ दिया है। 

लेकिन हम इस घटना से केवल आज की बात शुरूआत कर रहे हैं, और एक अधिक व्यापक चर्चा करना चाहते हैं। देश भर में जगह-जगह देखने में आ रहा है कि निर्वाचित नेता अपने संगी-साथियों को लेकर थोक में दूसरे दल में चले जाते हैं, और दो तिहाई लोगों के दल-बदल पर कोई कानून भी लागू नहीं होता, इसलिए अब कई जगहों पर खरीददारी दर्जन के भाव से थोक में होती है। दल-बदल कानून को बनाया तो दल-बदल रोकने के हिसाब से था, लेकिन अब थोक में दल-बदल को छूट मिलने की वजह से खरीददारी थोक में होने लगी है। यह कानून ही लोकतंत्र का कत्ल करने में लग गया है। हमारा मानना है कि किसी भी सांसद या विधायक के दल-बदल करने पर न सिर्फ उसकी सदस्यता तुरंत खत्म हो जानी चाहिए, बल्कि उसके अगला चुनाव लडऩे पर भी रोक लगनी चाहिए। एक बार अगर ऐसी व्यवस्था हो गई, तो हमारा ख्याल है कि दल-बदल का कारोबार ही थम जाएगा। आज देश में पैसों की ताकत, या जांच एजेंसियों के बाहुबल से इस रफ्तार से दल-बदल हो रहा है कि किसी की आत्मा का कोई भरोसा नहीं रह गया है कि वह कब और कितने में बिकेगी। लेकिन इस गंदगी का खत्म किया जाना जरूरी है। 

लोकतंत्र को एक वक्त गौरवशाली परंपराओं की व्यवस्था माना जाता था, लेकिन अब भारत में दल-बदल मुजरिम गिरोहों के धंधे की तरह हो गया है, और पार्टियों में विभाजन चल रहा है, लोग सत्ता का सुख पाने के लिए थोक में दूसरी जगहों पर जा रहे हैं जहां से पूरी जिंदगी उनका सैद्धांतिक विरोध रहते आया है। हमारा ख्याल है कि जनता के चुने हुए लोगों को अगर अपनी आत्मा ही बेचनी है, तो उन्हें अगले एक-दो चुनाव तक चुनाव से परे रखा जाना चाहिए। आज न सिर्फ सांसदों और विधायकों में, बल्कि पार्षदों और पंच-सरपंचों में जिस बड़े पैमाने पर दल-बदल हो रहा है, उसने लोकतंत्र का सम्मान पूरी तरह खत्म कर दिया है। जनता किसी उम्मीदवार को जब पार्टी के निशान पर वोट देती है, तो यह माना जाना चाहिए कि वे नेता उस कार्यकाल में अपने वोटरों और पार्टी को धोखा नहीं देंगे। फिर इस्तीफे देश पर एक निहायत गैरजरूरी चुनाव का बोझ भी लाद देते हैं, वह भी ठीक बात नहीं है। 

अभी लोकसभा चुनाव एकदम सामने हैं, पता नहीं हमारी कही हुई इस बात को सुनने वाले कोई हैं, या मंडी के शोरगुल में समझदारी और ईमानदारी की कोई भी बात अनसुनी कर देना आसान है। लेकिन जनता के बीच के लोगों को और जनसंगठनों को ऐसा वैचारिक आंदोलन छेडऩा चाहिए जिससे देश में आगे जाकर ऐसा कानून बन सके जो कि पांच बरस से अधिक लंबी अपात्रता लाद सके। दूसरी बात यह भी कि अगर सरकारें ऐसा कानून नहीं बनाती हैं, तो लोकतंत्र के हित में किसी को सुप्रीम कोर्ट तक जाना चाहिए, और इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि वहां से ऐसे दल-बदल के बाद अगला चुनाव लडऩे पर भी रोक लगे।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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