संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ..भारतवंशी प्रोफेसर की यहां पहुंचने के बाद बैरंग वापिसी!
26-Feb-2024 4:26 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  ..भारतवंशी प्रोफेसर की यहां पहुंचने के बाद बैरंग वापिसी!

photo : twitter

ब्रिटेन के एक विश्वविद्यालय में पढ़ा रहीं भारतीय मूल की कश्मीरी पंडित प्रो.निताशा कौल को कर्नाटक सरकार ने एक कार्यक्रम में बुलाया, और उन्हें बेंगलुरू एयरपोर्ट पर इमिग्रेशन अफसरों ने बताया कि दिल्ली से हुक्म मिला है कि उन्हें भारत में घुसने न दिया जाए। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने केन्द्र सरकार तक कोशिश भी की, लेकिन बात नहीं बनी, और अगली सुबह निताशा कौल को वापिस ब्रिटेन भेज दिया गया। केन्द्र सरकार के इमिग्रेशन अफसरों ने एयरलाईंस को कहा कि इन्हें भारत में घुसने की इजाजत नहीं है। निताशा कौल कर्नाटक सरकार द्वारा आयोजित, ‘संविधान और राष्ट्रीय एकता अधिवेशन’ में शामिल होने आई थीं, वे इस कार्यक्रम में वक्ता भी नहीं थीं। वे वेस्टमिंस्टर यूनिवर्सिटी में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाती हैं। जैसा कि उनके नाम से जाहिर है वे कश्मीरी पंडित हैं, उस समुदाय की हैं जो कि कश्मीर से बेदखल किया गया था, और उनके भारत के राष्ट्रविरोधी होने की कोई वजह नहीं है। उन पर आरएसएस विरोधी होने की तोहमत है, अफसर बेंगलुरू एयरपोर्ट पर 24 घंटे उनकी हिरासत के दौरान बार-बार यही बात पूछते रहे। उनका कहना है कि उन्हें कभी भारत सरकार की तरफ से कोई नोटिस नहीं मिला था। 

यह नौबत भयानक है। देश में बहुत से लोग आरएसएस के आलोचक हो सकते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि लोग मोदी, राहुल, या किसी और नेता के भी आलोचक हो सकते हैं। देश के भीतर अलग-अलग पार्टियों और संगठनों को लेकर कई तरह की बहस चलते रहती है, और न सिर्फ आरएसएस बल्कि बहुत से दूसरे संगठन भी आलोचना के निशाने पर रहते हैं, और यही तो लोकतंत्र है कि लोग सैद्धांतिक और वैचारिक आधार पर अपनी बात कानूनी दायरे में रख सकें। भारतीय मूल की ब्रिटेन में पढ़ा रहीं एक प्रोफेसर की बातों को लेकर सरकार को इतना संवेदनशील क्यों होना चाहिए, खासकर तब जब वह भारतीय मूल की हैं, कश्मीरी पंडित हैं, और राजनीति शास्त्र पढ़ाती हैं। पश्चिम के उदार राजनीतिक माहौल में किसी प्राध्यापक या किसी आम व्यक्ति से भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे लोकतंत्र के दायरे में आलोचना करने से कतराएं। और भारत में भी ऐसा माहौल पहले नहीं रहा कि लोग आलोचना न करें। देश का इतिहास अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के चलते हुए कई तरह की आलोचनाओं से भरा रहा। हैरानी की बात यह है कि देश की एक प्रदेश सरकार, फिर चाहे वह कांग्रेस की ही क्यों न हो, अगर उसमें संविधान और राष्ट्रीय एकता पर कार्यक्रम हो रहा है, और भारतीय मूल की एक प्राध्यापक को सरकार ने विदेश से आमंत्रित किया है, तो उसे इस तरह से वापिस भेज देना एक घोर अलोकतांत्रिक बात है। हमारा यह भी ख्याल है कि केन्द्र सरकार के स्तर पर जिस किसी ने यह फैसला लिया होगा, इससे केन्द्र सरकार का ही बड़ा नुकसान होगा। आरएसएस की आलोचक यह प्रोफेसर यहां चाहे जो बोल जाती, अब इस तरह से उन्हें वापिस भेजने का नतीजा यह होगा कि दुनिया भर के पढ़े-लिखे लोगों के बीच संघ की आलोचना को लेकर एक नई उत्सुकता पैदा होगी, और बाकी दुनिया में तो विचारों पर इस तरह की सेंसरशिप है नहीं, इसलिए ब्रिटेन से परे भी बहुत सी देशों में निताशा कौल की लिखी और कही बातें गूंजेंगी। आज हिन्दुस्तान में जरूर असहमति एक अवांछित संतान की तरह हो गई है, लेकिन बाकी दुनिया के सभ्य और विकसित लोकतंत्रों में ऐसा नहीं है। वहां की राजनीतिक व्यवस्था असहमति के बीच मजबूत होते चलती है, और लोकतंत्र की मजबूती में विपक्ष की असहमति का बड़ा योगदान रहता है। ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हिन्दुस्तान में इस तरह खारिज करके यह देश अपनी जमीन पर ही खुद ही अपने को विश्वगुरू करार दे सकता है, लेकिन कोई भी विकसित लोकतंत्र भारत को ऐसा कोई तमगा नहीं देगा। लोकतांत्रिक दुनिया के लिए असहमति को लेकर बर्दाश्त का एक महत्व रहता है। और अगर हिन्दुस्तान में एक भारतवंशी की असहमति से इस कदर परहेज किया गया है, तो फिर विदेशी विचारकों की भारत की आलोचना की गुंजाइश ही कहां रहेगी? 

अभी अधिक दिन नहीं हुए हैं भारत सरकार ने पिछले 22 बरस से हिन्दुस्तान में काम कर रही एक फ्रांसीसी पत्रकार को उस दिन भारत छोडऩे का आदेश दिया जब दो दिन बाद फ्रांस के राष्ट्रपति भारत के गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि होकर पहुंच रहे थे। इस फ्रांसीसी पत्रकार की शादी भी एक भारतीय से हुई है, और उसने हिन्दुस्तान पर बड़ी गंभीर रिपोर्टिंग की है। जाहिर है कि किसी भी गंभीर और पेशेवर पत्रकार के लिखे में कई लोगों की आलोचना भी होगी। इसे भारत सरकार की तरफ से दिए गए नोटिस में यह कहा गया कि उसकी रिपोर्टिंग आलोचना से भरी और खराब नीयत की रहती है। कहा गया कि उसका काम भारत के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ है। हमारा ख्याल है कि उस महिला पत्रकार के लिखे हुए से भारत का जितना नुकसान हो सकता था, उससे कहीं अधिक नुकसान उसे देश से निकालने पर हुआ है, और इतिहास में ऐसी बातें गंभीरता से दर्ज होती हैं। 

असहमति के बीच ही लोकतंत्र का विकास होता है, और जब असहमति रह नहीं जाती, तो फिर खुद सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार को जनभावना समझ नहीं आती, और ऐसी कई मिसालें रही हैं कि जनता की नब्ज से हाथ हट जाने पर सत्तारूढ़ पार्टी का नुकसान होता है। देश और कई प्रदेशों की सरकारों का तजुर्बा यही है कि जब मीडिया और दूसरे लोगों को दबाकर सच पर चर्चा नहीं होने दी जाती, तो उसके बाद सत्तारूढ़ पार्टी अपनी खुशफहमी में रहती है, और कब पांवोंतले से जमीन खिसकना शुरू होती है, उसे पता भी नहीं लगता। आज भारत में मोदी सरकार और उनकी पार्टी भाजपा जिस हद तक कामयाब हैं, उसमें यह बात लोगों को फिजूल लग सकती है, लेकिन जब वक्त नाजुक आता है, और छोटा-छोटा समर्थन भी जरूरी होता है, तब दबाई गई असहमति का नुकसान सामने आता है। जिन दो मामलों को हमने गिनाया है, इन दोनों ही महिलाओं को लेकर पूरी दुनिया के लोकतंत्रों में चर्चा होगी, और इससे सबसे बड़ा नुकसान भारत के विश्वगुरू बनने की खुशफहमी का होगा।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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