राजपथ - जनपथ
ओहदे से परे भी ताकत होती है...
वन विभाग में अफसरों के बीच आपसी खींचतान चल रही है। पड़ोस के वन मंडल में तो सीसीएफ ने एक शिकायत पर डीएफओ के वित्तीय अधिकार छीन लिए। आदेश जारी हुए 48 घंटे नहीं हुए थे कि डीएफओ के वित्तीय अधिकार को मुख्यालय ने बहाल कर दिया। ऐसा नहीं है कि शिकायत गंभीर नहीं थी। बल्कि सीसीएफ को डीएफओ की ताकत का अंदाजा नहीं था।
सुनते हैं कि डीएफओ एक राजनीतिक दल के राष्ट्रीय पदाधिकारी के नजदीकी रिश्तेदार हैं। राष्ट्रीय पदाधिकारी कई बार रायपुर आ चुके हैं, और पार्टी कार्यक्रम निपटने के बाद दामाद से भी मिलने जाते रहे हैं। विभाग के ज्यादातर प्रमुख अफसरों को इसकी जानकारी है। सिर्फ सीसीएफ ही इससे अनभिज्ञ थे। फिर क्या था, शीर्ष अफसरों ने हस्तक्षेप किया, और डीएफओ को वित्तीय अधिकार वापस करने में देर नहीं लगाई।
पोस्टर पर चेहरा भले न हो, लड़ेंगे...
भाजपा ने भले ही मोदी के चेहरे पर चुनाव लडऩे का ऐलान किया है। पार्टी के रणनीतिकार यह भी साफ कर चुके हैं कि सीएम का चेहरा घोषित नहीं किया जाएगा। बहुमत मिलने पर विधायक दल में ही नेता का चुनाव किया जाएगा। ऐसे में 15 साल सीएम रहे डॉ. रमन सिंह के चुनाव लडऩे को लेकर भी अटकलें लगाई जा रही थी। लेकिन पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने दो दिन पहले अपने विधानसभा क्षेत्र राजनांदगांव में मीडिया कर्मियों से अनौपचारिक चर्चा में संकेत दिए, कि वो विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे।
पूर्व सीएम ने मीडियाकर्मियों के साथ लंच भी किया, और राजनांदगांव के विकास के लिए उनकी सरकार में किए गए कार्यों का ब्यौरा भी दिया। पूर्व सीएम ताल ठोककर चुनाव मैदान में उतरने के लिए तैयार नजर आ रहे हैं, और उनके करीबी समर्थकों ने ग्रामीण इलाकों में वाल पेंटिंग शुरू भी कर दिया है। अब पूर्व सीएम चुनाव लड़ेंगे, तो वो स्वाभाविक तौर पर अघोषित सीएम का चेहरा हो जाएंगे। अब पार्टी में सीएम पद के दूसरे दावेदार, और रमन विरोधी नेताओं का क्या रूख रहता है, यह तो चुनाव के नजदीक आते-आते पता चल जाएगा।
सरकार पर कर्मचारियों का दबाव
राज्य सरकार के अधीन काम कर रहे अनियमित और संविदा कर्मचारियों को नियमित करना कांग्रेस की चुनावी घोषणाओं से एक था, जो अब तक अधूरी है। ? ऐसी कर्मचारियों की संख्या करीब 45 हजार है। दैनिक वेतन भोगी और अन्य अस्थायी कर्मचारियों को जोडऩे पर उनकी संख्या एक लाख 80 हजार तक पहुंच रही है। नियमित करने की मांग पर संविदा कर्मचारी लगातार आंदोलन चला रहे हैं। इसी माह उन्होंने प्रदेश भर में एक महीने लंबी रथयात्रा भी जगह जगह निकाली। 8 माह पहले भूपेश सरकार ने इस दिशा में थोड़ी कार्रवाई शुरू की। उसने सामान्य प्रशासन विभाग से सभी विभागों से डाटा एकत्र करने के लिए कहा था। सरकार के करीब 42 विभाग हैं, जिनमें से 20 विभागों की जानकारी जीएडी के पास आ चुकी है लेकिन 22 विभागों से कोई ब्यौरा नहीं मिला है। आंदोलनरत कर्मचारियों की चिंता है कि यदि यही रफ्तार रही तो उनकी मांगे आचार संहिता लागू होने के पहले पूरी ही हो पाएगी भी या नहीं? दरअसल जीएडी के पास सूची आ जाने के बाद भी वरिष्ठता क्रम तय करने और वित्त विभाग से मंजूरी लेने की प्रक्रिया बची रहेगी। कई कर्मचारी ऐसे हैं जो पूरी नौकरी अनियमित या संविदा कर्मचारी के रूप में कर चुके और कुछ बरस बाद उनके रिटायरमेंट का समय आ जाएगा।
दूसरी ओर रेगुलर कर्मचारी संगठनों का फेडरेशन भी 7 जुलाई को तालाबंदी आंदोलन करने जा रहा है। एक अगस्त से उन्होंने बेमियादी हड़ताल की घोषणा कर दी है। उनकी चार स्तरीय वेतनमान, पिंगुआ कमेटी की रिपोर्ट और सातवें वेतनमान में संशोधित गृह भाड़ा तथा केंद्र के समान महंगाई भत्ता देने जैसी मांगें हैं।
यह भी सन् 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में शामिल किया था। चुनाव मैदान में उतरने से पहले कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं चाहेगी कि अधिकारी कर्मचारी उनसे नाराज चलें। देखना है कि इन दबावों के बीच सरकार क्या कदम उठाती है।
महुआ पेड़ों पर मंडराता संकट
महुआ छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि मध्य भारत ?के कई राज्यों में आदिवासियों के जीविकोपार्जन का बहुत बड़ा माध्यम है। आदिवासी परिवारों में संपत्ति का जब बंटवारा होता है तो इन पेड़ों को भी गिना जाता है। अभी तो छत्तीसगढ़ के जंगल महुआ पेड़ों से मुक्त नहीं दिखाई देते हैं, मगर ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का शोध जरूर चिंताजनक है। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि पारिस्थितिकी तंत्र को होने वाले नुकसान के चलते महुआ पेड़ की जो औसत आयु 8 से 15 वर्ष की होती थी, वह घट रही है। बीजों पर इसका क्या असर हुआ है इस पर शोध करना बचा है। और पेड़ों की आयु को धीरे धीरे कम हो रही है। इस नुकसान के लिए सरकार को कानून बनाने की भी जरूरत पर यह वैज्ञानिक बल देते हैं।
कुछ बरस पहले एक और शोध छपा था, जिसमें इस बात पर चिंता जताई गई थी कि पहले महुआ और जामुन जैसे पेड़ों से जंगल आबाद दिखाई देते थे लेकिन अब स्वाभाविक रूप से इनके उगने की रफ्तार कम हो गई है। लोग भी इन पेड़ों को कम लगा रहे हैं। क्योंकि इसे तैयार करने में ज्यादा श्रम और देखभाल की जरूरत पड़ती है।
छत्तीसगढ़ सरकार का दावा है कि वह 65 प्रकार के लघु वनोपज की समर्थन मूल्य पर खरीदी करती है। मगर ये वनोपज भविष्य में भी जंगल में रहने वालों की आजीविका के स्रोत बने रहेंगे, इस पर शासन स्तर पर शायद ही कोई अध्ययन हो रहा हो। ([email protected])