राजपथ - जनपथ
टिकट फाइनल, अब वीडियो का वक्त
भाजपा में प्रत्याशियों की सूची जारी होने के बाद से असंतुष्ट नेता अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। दुर्ग जिले की सीटों के प्रत्याशियों के नामों की घोषणा के बाद से नाराज नेता, वरिष्ठ नेताओं से मिलकर अपना विरोध जता रहे हैं। इन सबके बीच एक भाजपा प्रत्याशी का वीडियो वायरल हुआ है। जिसमें वो अपने यहां के म्युनिसिपल में कमीशनखोरी पर बेबाकी से चर्चा करते नजर आ रहे हैं।
भाजपा प्रत्याशी यह कहते दिख रहे हैं कि भाजपा शासनकाल में म्युनिसिपल में निर्माण कार्यों पर 8 फीसदी तक कमीशन लेते-देते रहे हैं। तत्कालीन महापौर से लेकर स्थानीय विधायक को कितना कमीशन मिलता रहा है, इसका विस्तार से जिक्र करते दिख रहे हैं। प्रत्याशी के खिलाफ पहले ही पार्टी में भारी विरोध हो रहा था, और अब वीडियो वायरल होने के बाद पार्टी के रणनीतिकार हलाकान हैं। कुछ लोगों का कहना है कि आने वाले दिनों में इस तरह के कई और वीडियो सामने आ सकते हैं। इस तरह के वीडियो का जवाब ढूंढने में पार्टी नेताओं को कठिनाई हो रही है।
ईश्वर को चेक देने की कोशिश
भाजपा ने बिरनपुर सांप्रदायिक हमले में मारे गए भुवनेश्वर साहू के पिता ईश्वर साहू को साजा से ताकतवर मंत्री रविन्द्र चौबे के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारकर एक बड़ा दांव खेला है। स्वाभाविक है कि भुवनेश्वर की मौत के बाद इलाके में ईश्वर-साहू परिवार के प्रति सहानुभूति है।
साजा, और उसके आसपास की विधानसभा सीटों पर साहू मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। ऐसे में ईश्वर के भाजपा प्रत्याशी बनने के कांग्रेस के नेता असहज भी दिख रहे हैं। इसका अंदाजा उस वक्त लगा जब ईश्वर साहू को प्रत्याशी बनाए जाने की चर्चाओं के बाद पिछले दिनों बेमेतरा के एक राजस्व अफसर, ईश्वर साहू से मिलने गए, और उनसे सहायता राशि 10 लाख का चेक लेने का आग्रह किया।
दरअसल, सीएम भूपेश बघेल ने भुवनेश्वर साहू की हत्या के बाद परिजनों को 10 लाख रुपए सहायता राशि, और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की थी। मगर भुवनेश्वर के पिता ने सहायता राशि लेने से मना कर दिया था। इसके बाद से जिला प्रशासन के लोग उनसे राशि लेने का आग्रह करते रहे। शुरुआत में मना होने के बाद प्रशासन के लोग तकरीबन प्रकरण को ठंडे बस्ते में डाल दिया था, लेकिन जब ईश्वर साहू के राजनीति में आने की चर्चा शुरू हुई, तो प्रशासन ने फिर बिरनपुर की ओर रुख किया।
इस बार भी वो सहायता राशि लेने के लिए राजी करने में नाकाम रहे। भाजपा घटना के कुछ दिनों बाद 11 लाख की सहायता राशि उपलब्ध साहू परिवार को साध चुकी है। अब ईश्वर साहू खुद चुनाव मैदान में उतर चुके हैं, तो बिरनपुर प्रकरण को लेकर जंग तेज होने के आसार है। इसका कांग्रेस, और रविन्द्र चौबे किस तरह सामना करते हैं, यह देखना है।
करोड़ों खर्च, पर टिकट न मिली
भाजपा की सूची जारी होने के बाद से तकरीबन हर जिले में बगावत के सुर सुनाई दे रहे हैं। पार्टी के कुछ लोग इसके लिए संगठन के नेताओं को भी जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। बताते हैं कि संगठन के नेताओं ने कई जगहों पर आर्थिक रूप से ताकतवर नेताओं को चुनाव लड़ाने की योजना बनाई थी। ये दावेदार, पदाधिकारियों के इशारे पर दिल खोलकर खर्च करते रहे। मगर उन्हें प्रत्याशी नहीं बनाया गया।
ऐसे ही रायपुर की सीमा से सटे विधानसभा क्षेत्र में तो एक जनपद के पूर्व पदाधिकारी को सरकार के मंत्री के खिलाफ लड़ाने के संकेत दिए थे। पार्टी का इशारा पाकर पदाधिकारी ने खूब खर्च किए। कुछ लोग बताते हैं कि वो टिकट से पहले ही करोड़ों खर्च कर चुके हैं। मगर ऐन वक्त में पार्टी ने किसी दूसरे को उम्मीदवार बना दिया। अब इतना खर्च कर चुके नेता का चुप रहना अस्वाभाविक है। चर्चा है कि कुछ दावेदार तो थोड़ा और खर्च कर अपने प्रत्याशी को निपटाने की सोच रहे हैं। देखना है कि पार्टी बगावती तेवर वाले इन नेताओं को कैसे समझाती है।
2024 में कितने उप-चुनाव होंगे?
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 2023 में भारतीय जनता पार्टी ने वह हर एक सुराख बंद करने की कोशिश की है जिससे जीत की संभावना पर असर हो। अपने चार सांसदों रेणुका सिंह, गोमती साय, अरुण साव और विजय बघेल को एक साथ मैदान में उतारने से बड़ा दांव इसीलिये खेला गया है। इन सभी को उन सीटों से टिकट दी गई है जहां भाजपा की लोकसभा में जीत का अंतर ठीक-ठाक था। साव लोरमी से मैदान में उतर चुके हैं। यह उनका गृह जिला है। वे लोरमी में कम समय दें तो भी काम चल सकता है क्योंकि आखिर उन्हें प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी संभालनी है।
चुनाव परिणामों के बाद बनने वाली कुछ तस्वीरों के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। एक, भाजपा को बहुमत मिल गया और चारों सांसद जीत जाते हैं, तो क्या होगा? इनमें से दो, विजय बघेल और अरुण साव मुख्यमंत्री पद की रेस में होंगे। रेणुका सिंह और गोमती साय को भी मंत्रिमंडल में लेना होगा।
वहीं, यदि ये चारों अपना चुनाव तो जीत जाएं लेकिन विधानसभा में विपक्ष में बैठना होगा, तब? इनमें से कोई एक तो नेता प्रतिपक्ष बन दिए जाएंगे, पर बाकी क्या विधायक के रूप में काम करना चाहेंगे? यद्यपि लोकसभा में उनका कार्यकाल भी कुछ माह बाद समाप्त होने वाला है, पर वे दोबारा लोकसभा क्यों नहीं पहुंचना चाहेंगे? फिर क्या विधानसभा की सदस्यता से ये सांसद इस्तीफा देंगे। यदि ऐसा हुआ तो 2024 में विधानसभा उप-चुनाव भी जरूर होंगे।
सन् 2003 में राज्यसभा सदस्य रहते हुए (स्व.) रामाधार कश्यप को तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अकलतरा से विधानसभा की टिकट दी थी। कश्यप ने लगातार दो बार के विधायक छतराम देवांगन को हरा दिया। पर जोगी की सरकार नहीं बनी और कश्यप ने विधायक की सीट छोड़ दी। वहां उप-चुनाव हुआ, छत राम देवांगन फिर से लड़े और जीतकर विधानसभा चुनाव पहुंच गए।
एक अनुमान इससे भी बुरा लगाया जा सकता है। मान लें कि इनमें से कुछ या सभी सांसद विधानसभा चुनाव ही हार गए तब क्या होगा? क्या उन्हें फिर से लोकसभा की टिकट मिलेगी? या फिर किनारे कर दिए जाएंगे।
जोखिम वाली सीटें तो बढ़ गईं...
कांग्रेस ने अपने बीते 57-58 महीने के कार्यकाल में यह बात बार-बार दोहराई कि माओवादी हिंसा पर उसने काफी हद तक काबू पा लिया है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी अपने छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान कहा है कि नक्सली नियंत्रण में हैं और 2024 लोकसभा चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ से उनका सफाया हो जाएगा। पर ये सब बातें राजनीतिक हैं। चुनाव आयोग को खतरा पिछली बार से कुछ कम नहीं दिखाई देता, बल्कि अधिक ही दिख रहा है। सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान 12 नवंबर को कराया गया था। इसमें बस्तर की सभी 12 सीटों के अलावा राजनांदगांव जिले की 6 सीटें शामिल थीं। यानि कुल 18 संवेदनशील विधानसभा सीटें थीं। इस बार 2023 में प्रथम चरण में 20 सीटों पर चुनाव हो रहे हैं। 12 सीटें तो यथावत बस्तर संभाग की हैं, 8 दुर्ग संभाग से शामिल हैं, जिनमें राजनांदगांव की सीटें भी हैं। यानि पहले चरण में इस बार पिछली बार से दो सीटें अधिक हैं। माना जा सकता है कि नक्सल वारदातों में कुछ कमी आने के बावजूद चुनाव आयोग ने शांतिपूर्ण चुनाव पुख्ता तरीके से निपटाने के लिए ही ऐसा किया होगा। वैसे अभी तो चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा ही हुई है। नामांकन से लेकर मतदान और मतगणना की लंबी प्रक्रिया अगले 55 दिनों तक चलने वाली है। यह ध्यान रखना होगा कि सन् 2018 में पहले चरण के मतदान के 15 दिन पहले से नक्सली हिंसा शुरू हुई थी। अलग-अलग घटनाओं में 5 ग्रामीणों की मौत भी हो गई थी। इसके बावजूद मतदान का प्रतिशत 74 से अधिक था।
हाईवे पर छात्राओं का चक्का जाम
गीदम, बस्तर के जवांगा ग्राम में पुरानी स्कूल बिल्डिंग का रंग-रोगन करके स्वामी आत्मानंद अंग्रेजी माध्यम स्कूल तो खोल दिया गया लेकिन यहां शिक्षकों की व्यवस्था नहीं की गई। जुलाई से अब तक स्थिति यही बनी हुई है। कलेक्टर, शिक्षा अधिकारियों और प्राचार्य के सामने यहां की छात्राओं ने कई बार मांग उठाई, लेकिन समस्या हल करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। मजबूरन छात्राएं नेशनल हाईवे पर ही सडक़ जाम करके बैठ गईं। आसपास में यह पहला मौका था, जब छात्राओं ने नेशनल हाईवे पर उतरकर चक्काजाम किया। एक बार फिर अधिकारियों ने आश्वासन देकर उनका आंदोलन खत्म करा दिया। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के नाम पर खोले गए आत्मानंद स्कूलों का यह हाल है।