संपादकीय
छत्तीसगढ़ में एकाएक स्कूलों से जुड़े हुए इतने मामले सामने आ रहे हैं कि वे चौंकाते हैं। कहीं पर शिक्षक नहीं है, इसलिए बच्चे अपने मां-बाप के साथ वहां से टीसी निकालने के लिए खड़े हुए हैं, तो कहीं निजी स्कूलों की बसें बच्चों को बिना किसी फिटनेस सर्टिफिकेट के ढो रही है, किसी सडक़ हादसे की नौबत में बड़ी संख्या में जिंदगियां खतरे में रहेंगी। एक कहीं पर हॉस्टल अधीक्षक ने नशे की हालत में आकर मार-मारकर बच्चों को हॉस्टल से भगा दिया, तो बस्तर के कोंडागांव में एक शिक्षक ने अपने बन रहे मकान की छत पर काम करने के लिए 10वीं की छात्रा को जबर्दस्ती बुलाया, और फेल करने की धमकी देकर उससे मुफ्त में मजदूरी करवाने लगा। तीन मंजिल से गिरकर यह नाबालिग लडक़ी मर गई। उसके साथ की एक और बच्ची अभी सदमे में है। कुछ जगहों पर स्कूल का भवन नहीं है, या खतरनाक हालत में है, और वहां पर गांव वालों ने गेट पर ताला डाल दिया है। अब तो छत्तीसगढ़ की मौजूदा भाजपा सरकार को काम संभाले छह महीने से अधिक हो चुका है, और अभी बीस दिन पहले तक सबसे अधिक अनुभवी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल इस विभाग को देख रहे थे। यह जाहिर है कि यह हालत एकाएक तो नहीं हुई है, और इसमें से बहुत सी बातें तो पिछली कांग्रेस सरकार के समय से चली आ रही होंगी, और उस सरकार को भी ऐसी ही विरासत अपनी पिछली रमन सरकार से मिली रही होगी। कोई हैरानी नहीं है कि छत्तीसगढ़ के बच्चों का शिक्षा का स्तर देश में सबसे खराब पाया जा रहा है, जो आधा दर्जन राज्य सबसे खराब हालत में हैं, उनमें छत्तीसगढ़ भी शुमार है। अब किसी नए मंत्री के आने तक स्कूल शिक्षा को मुख्यमंत्री ने खुद रखा है, और ये महीने स्कूल शिक्षा के साल के सबसे महत्वपूर्ण महीने हैं जब न सिर्फ स्कूल या हॉस्टल को देखना होता है, बल्कि शिक्षकों से लेकर दोपहर के भोजन तक, और किताबों से लेकर यूनिफॉर्म तक हर चीज का इंतजाम करना पड़ता है। ऐसे में पहले से कई विभागों का काम देख रहे मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को किसी ऐसे वरिष्ठ और अनुभवी व्यक्ति को स्कूल शिक्षा का जिम्मा देना चाहिए जो कि दबाव में तबादले करने का प्रतिरोध भी कर सके, और तीस लाख बच्चों के भविष्य का बेहतर इंतजाम भी कर सके।
छत्तीसगढ़ में स्कूल शिक्षा विभाग राज्य के सरकारी कर्मचारियों की संख्या के मामले में प्रदेश का सबसे बड़ा विभाग है। फिर यह भी है कि इससे जुड़े तीस लाख बच्चे लगभग सभी नाबालिग रहते हैं, और वे किसी गड़बड़ी का अधिक विरोध नहीं कर पाते। ऐसे में इस विभाग को भ्रष्टाचार से बाहर निकालना चाहिए जो कि इसकी रगों में भरा हुआ है। पिछले 25 बरस में छत्तीसगढ़ की स्कूलों के लिए फर्नीचर खरीदी से लेकर लाइब्रेरी की किताबें खरीदने तक, साइकिलें और यूनिफॉर्म लेने तक, कदम-कदम पर भ्रष्टाचार रहते आया है। हर किसी को यह पता रहता है कि कहां कितना कमीशन चलता है। जाहिर है कि इससे स्कूलों के ढांचों की क्वालिटी घटिया रहती है, और बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित होती है। हर स्कूल में एक-दो कमरे तो टूटे फर्नीचर से ही भरे रहते हैं, क्योंकि उन्हें इस्तेमाल के हिसाब से नहीं, सप्लाई के हिसाब से बनाया जाता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। छोटे बच्चों को जब यह दिखे कि सरकारी खरीदी के सामान कितने घटिया होते हैं, तो उनकी जिंदगी में सीखने की शुरूआत ही सरकार के प्रति हिकारत के साथ होती है।
दूसरी बात यह कि किसी स्कूल में पांच-पांच कक्षाओं को पढ़ाने के लिए एक अकेले शिक्षक की तैनाती है, और बहुत से ग्रामीण इलाकों में तो ऐसे अकेले शिक्षक भी गांव के किसी मामूली पढ़े नौजवान को पढ़ाने का काम ठेके पर देकर घर चले जाते हैं। एक तरफ तो शिक्षकों के लिए पढ़ाने की तकनीक वाले बीएड जैसी डिग्री अनिवार्य की गई है, दूसरी तरफ कई-कई क्लास संभालने वाले इकलौते शिक्षक भी कई जगह नशे की हालत में आकर स्कूल में फर्श पर पड़े रहते हैं, और उसी कमरे में बच्चे पढ़ते रहते हैं। हर कुछ हफ्तों में किसी न किसी जगह से ऐसे वीडियो आते हैं, और हमारा मानना है कि ऐसे दर्जनों मामलों में से किसी एक का ही वीडियो बन पाता होगा। देश में बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ खासा कड़ा कानून रहने के बावजूद छत्तीसगढ़ की स्कूलों में छात्राओं पर यौन शोषण बहुत सी जगहों पर होता है, और उनमें से कुछ ही जगहों पर पुलिस या प्रशासन तक शिकायत पहुंच पाती है। अब सवाल यह उठता है कि सबसे अनुभवी मंत्री के रहते हुए भी अगर हालत नहीं सुधर पा रही है, तो ऐसा स्कूल शिक्षा विभाग कैसे सुधारा जा सकता है?
यह तो सबसे गरीब बच्चों को दोपहर के भोजन का एक मोह स्कूल खींच लाता है, वरना स्कूल छोडऩे वाले बच्चों की गिनती और बहुत बढ़ गई रहती। पढ़ाई छोडऩे वाले बच्चों को स्कूल में वापिस लाने का अभियान हर बरस सुनाई पड़ता है, लेकिन यह भी सुनाई पड़ता है कि बच्चों के भोजन, और दूसरी चीजों पर होने वाले खर्च को खाने-पीने के लिए विभाग अधिक से अधिक बच्चों की मौजूदगी दिखाता है, जबकि इतने बच्चे स्कूल पहुंचते नहीं हैं। और ये तमाम बातें बिल्कुल ही बुनियादी पढ़ाई को लेकर हैं, और खेलकूद से लेकर दूसरे तरह की गतिविधियों का हाल अलग-अलग स्कूलों में अलग-अलग रहता है जिसे लेकर कोई एक बात नहीं कही जा सकती। छत्तीसगढ़ में एक दिक्कत यह भी रही कि यहां पिछली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने स्वामी आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल के नाम से अंधाधुंध लागत से ऐसे स्कूल बनाए जिनसे राज्य के बाकी सरकारी स्कूलों का कोई मुकाबला ही नहीं रह गया। और जिस शहर-कस्बे में सरकार की जो मौजूदा हिन्दी स्कूलें सबसे अच्छी हालत में थीं, उन्हें ही सबसे पहले आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल बनाया गया, इससे हिन्दी भाषा में पढऩे वाले बच्चों के हाथ से सबसे अच्छे ढांचे वाली स्कूलें चली गईं। आम सरकारी स्कूलों में न भवन ठीक से हैं, न अहाते हैं, और न ही दूसरी कोई सुविधाएं। और ऐसे ही अभाव के समंदर में आत्मानंद नाम से महंगे और खर्चीले टापू बना दिए गए जो कि अंग्रेजी भाषा के आतंक का एक प्रतीक भी हैं। अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने के लिए शिक्षकों का अधिक तनख्वाह पर मिलना तो समझ में आता है, लेकिन उसके लिए ऑलीशान इमारत और नए-बेहतर फर्नीचर जैसी जरूरतें क्यों हैं? अंग्रेजी तो बिना शान-शौकत के भी पढ़ी जा सकती है, लेकिन छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की पांच बरस की सरकार ने स्कूल शिक्षा विभाग का बहुत सा पैसा और जिलों में आने वाला खनिज निधि का पैसा आत्मानंद पर खर्च किया, और नतीजा यह निकला कि बाकी उपेक्षित हिन्दी स्कूल परमात्मानंद होकर रह गए।
स्कूली शिक्षा बच्चों की जिंदगी में सबसे महत्वपूर्ण बुनियाद रहती है, और यहीं पर इतना भयानक भेदभाव, इतने किस्म के भ्रष्टाचार, शिक्षकों की तैनाती में अराजकता की नौबत, और कहीं नशा करते, कहीं मारपीट करते, और कहीं छात्राओं से दुष्कर्म करते शिक्षकों से सरकारी स्कूली शिक्षा के प्रति हिकारत ही पैदा होती है। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय को चाहिए कि वे इस विभाग को किसी अच्छे पूर्णकालिक मंत्री को बिना देर किए सौंपें, ताकि स्कूलों के लिए सबसे महत्वपूर्ण जुलाई का यह महीना हर बात के लिए टलते न चले जाए।