राजपथ - जनपथ

राजपथ-जनपथ : स्टेट गैरेज की राजनीति
05-Apr-2023 4:23 PM
 राजपथ-जनपथ : स्टेट गैरेज की राजनीति

स्टेट गैरेज की राजनीति

 

दिग्गज नेताओं के बीच मतभेद को बढ़ाने में कई बार अफसर भी भूमिका निभा जाते हैं। ऐसा ही एक वाक्या स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव से जुड़ा हुआ है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि सीएम भूपेश बघेल, और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है। लेकिन व्यक्तिगत तौर पर दोनों एक-दूसरे के सम्मान में कहीं कोई कसर बाकी नहीं रखते। मगर कई अफसर इससे अनभिज्ञ हैं।

हुआ यूं कि सिंहदेव ने सरकारी गाड़ी की हालत ठीक नहीं होने की वजह से बदलने के लिए स्टेट गैरेज को पत्र भेज दिया। सिंहदेव की गाड़ी करीब डेढ़ लाख किमी से अधिक चल चुकी थी। और अतिविशिष्ट लोगों की गाड़ी एक लाख किमी चलने के बाद बदलने का प्रावधान भी है। मगर स्टेट गैरेज के अफसरों ने कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ दिन बाद गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तब हड़बड़ी में नई गाड़ी के लिए फाइल चली।

सिंहदेव गाड़ी की मरम्मत कर काम चला रहे हैं। इसी बीच तीन और नई गाड़ी खरीदी गई, लेकिन एक गाड़ी प्रमुख सचिव, और अन्य लोगों को आबंटित कर दी गई। स्टेट गैरेज के लोगों ने बता दिया कि सिंहदेव के लिए नई गाड़ी खरीदने की फाइल सीएम ऑफिस में पेंडिंग है। और जब सिंहदेव के स्टाफ ने जब इसकी पतासाजी करने की कोशिश की, तो फिर उन्हें बताया गया कि जल्द ही उनके लिए नई गाड़ी आने वाली है। यानी सीएम ऑफिस का नाम लेकर विवाद खड़ा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।

स्टेट गैरेज के पद के लिए काफी जोड़-तोड़ होती है। पिछली सरकार में तो एक शिक्षक ने स्टेट गैरेज के मुखिया का पद पा लिया था। उन्होंने सीएम और उनके करीबी अफसरों की इतनी सेवा की कि उन्हें संविलियन कर दिया गया। वो अब सरकार में ऊंचे ओहदे पर आ गए हैं। स्टेट गैरेज में पदस्थ लोग अब शिक्षक का ही अनुसरण करने लगे हैं।

डॉक्टर हर रूप में भगवान...

 

सरकारी सेवा से बर्खास्तगी किसी अधिकारी-कर्मचारी के लिए दु:स्वप्न से कम नहीं, लेकिन डॉक्टरों के मामले में ऐसा सोचना नहीं चाहिए। पिछले सप्ताह स्वास्थ्य विभाग ने 11 डॉक्टरों को बर्खास्त किया। कार्रवाई के पहले जिन 13 डॉक्टरों को नोटिस देकर अपनी दलील रखने के लिए मौका दिया गया, उनमें से ये 11 ऐसे थे, जो लगातार 3 साल से ड्यूटी से गायब थे। नोटिस का जवाब देने कोई भी नहीं पहुंचा। इसका मतलब तो यही है कि उन्हें नौकरी खोने की कोई चिंता नहीं थी। 13 में से जिन दो डॉक्टरों पर कार्रवाई नहीं हुई, उन्हें गायब हुए अभी तीन साल नहीं हुए हैं। इसके पहले फरवरी में भी 6 चिकित्सा अधिकारियों की सेवाएं समाप्त की गई और पांच की लंबी गैरहाजिरी बर्दाश्त की गई थी।

सवाल उठता है कि ये डॉक्टर सरकारी अस्पतालों में ड्यूटी नहीं कर रहे थे तो फिर थे कहां ? इनमें से कुछ एक के साथ निजी समस्या हो सकती है लेकिन बाकी के बारे में यह धारणा गलत नहीं हो सकती कि वे सरकार से फायदा भी ले रहे थे और कहीं दूसरी जगह पर भी प्रैक्टिस कर रहे थे। अपनी खुद की क्लीनिक में या किसी निजी अस्पताल में।

यह तो 3 साल तक लगातार गायब रहने की वजह से की गई कार्रवाई है। साल, 6 महीने से गायब डॉक्टरों की सूची बने तो वह और लंबी हो जाए।
याद हो कि सन् 2013 में जारी स्वास्थ्य विभाग के संचालनालय के परिपत्र के अनुसार बर्खास्तगी जैसी सख्त कार्रवाई सिर्फ 3 साल बाद की जाती है। बाकी को नोटिस देकर मौका देना लगा करता है।

यह भी याद करना ठीक होगा कि पीजी करने के बाद सरकारी अस्पतालों में दो साल की सेवा अनिवार्य है। इसके बावजूद बांड की रकम चुका कर कई डॉक्टर? भागने लगे। बांड की रकम बढ़ाई गई, पर बेअसर। फिर सन् 2017 में मेडिकल एक्ट में एक संशोधन छत्तीसगढ़ सरकार ने किया और नियम बनाया कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया से भागने वाले डॉक्टरों का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की सिफारिश भी की जाएगी, तब छोडऩा कुछ थमा। ध्यान रहे कि मेडिकल छात्रों से फीस तो ली जाती है, बावजूद इसके एक-एक की पढ़ाई पर सरकार के अतिरिक्त लाखों रुपये खर्च होते हैं, हमारे आपके टैक्स से।

प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में अनेक विशेषज्ञ पद भरे नहीं जा सके हैं। कई की ड्यूटी लगी है गांव में, अटैच हैं शहरों में। जो अटैच नहीं करा पाते वे ड्यूटी पर जाते नहीं। इसका नतीजा क्या है, इसकी खबर आए दिन, खासकर बस्तर और सरगुजा जिलों से आती रहती है। दूर क्यों जाएं, 2 दिन पहले हुई सुपेला, भिलाई के सरकारी अस्पताल की घटना देख लें। क्रिटिकल सर्जिकल केस होने के बावजूद गायनोलॉजिस्ट के नहीं होने के कारण अकेली नर्स ने नॉर्मल डिलीवरी कराने की कोशिश की और जन्म लेने से पहले ही शिशु ने दम तोड़ दिया। यह बात भी सामने आई कि नर्स की ड्यूटी का वक्त पूरा हो चुका था लेकिन उसका कोई रिलीवर नहीं आया। इसलिए भी उसने हड़बड़ी की। इस अस्पताल में स्त्री रोग विशेषज्ञ की मांग कई बार की गई, नहीं हुई नियुक्ति। यह ऐसे जिले की घटना है, जहां पर कैबिनेट मंत्रियों की भरमार है और राजधानी के नजदीक है।

डॉक्टरों की ऐसी कमी और सरकारी सेवा के प्रति अनेक डॉक्टरों के अनमनेपन के बीच इस साल से यूनिवर्सल हेल्थ सुविधा शुरू करने का अति उत्साही फैसला छत्तीसगढ़ सरकार ने लिया है। हालात ऐसे हों तो क्या गंभीर केस में जान जोखिम में डालकर लोग मुफ्त इलाज कराने सरकारी अस्पताल जाएंगे?

लगे हाथ कुछ दूसरे राज्यों का हाल भी देख लें। बिहार में नीतीश सरकार ने जनवरी माह में एक साथ 81 डॉक्टरों को बर्खास्त किया। छत्तीसगढ़ जैसी ही वजह थी। ड्यूटी पर लौटने की चेतावनी कहें या अपील, डॉक्टरों ने नहीं सुनी। इधर राजस्थान सरकार एक राइट टू हेल्थ बिल लेकर आई है, जो छत्तीसगढ़ की यूनिवर्सल हेल्थ स्कीम से कहीं आगे की सोच है। निजी अस्पतालों को भी इमरजेंसी केस का मुफ्त इलाज करना होगा, बाद में सरकार इलाज का खर्च देगी। इसके खिलाफ निजी अस्पतालों के डॉक्टर, मालिक लामबंद हुए। पूरे प्रदेश में उन्होंने एक पखवाड़े से ज्यादा दिनों तक स्वास्थ्य सेवाओं को ठप कर दिया। स्थिति ऐसे गंभीर हो गई कि ब्लड टेस्ट कराने के लिए भी लोगों को भटकना पड़ा। सक्षम लोग पड़ोसी राज्यों में इलाज के लिए जाने लगे। गहलोत सरकार को हार माननी पड़ी। कल डॉक्टरों ने हड़ताल सशर्त स्थगित की है। सरकार तैयार हुई है कि केवल वही निजी अस्पताल इलाज करेंगे, जो बीमा योजनाओं और रियायती जमीन के तहत सरकार से लाभ लेते हैं। साथ ही इमरजेंसी केस क्या है इसकी स्पष्ट व्याख्या होगी। इलाज के बाद कितने दिन में भुगतान होगा, यह सुनिश्चित होगा, सरकारी रेट नहीं चलेगा। 50 से कम बिस्तर वाले अस्पताल इस कानून से बाहर किए जाएंगे, फायर सेफ्टी सर्टिफिकेट हर साल नहीं, तीन या पांच साल में लेना होगा, आदि।
जो डॉक्टर मरीजों को सेवा दे रहे हैं उनको तो इस धरती का भगवान ही माना जाता है। पर जो नहीं दे रहे, अंतर्धान हैं या अपनी शर्तों पर काम कर रहे, वे भी भगवान से कम नहीं हैं।

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