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राहुल की सजा पर फैसले से तय होगी न सिर्फ राजनीति बल्कि अदालती नजीर भी..
09-Jul-2023 5:58 PM
राहुल की सजा पर फैसले से  तय होगी न सिर्फ राजनीति बल्कि अदालती नजीर भी..

राहुल गांधी को गुजरात के हाईकोर्ट से एक निराशा हाथ लगी है। उन्होंने सूरत के एक मजिस्ट्रेट की सुनाई गई दो साल की सजा के खिलाफ अपील की थी, उसके खिलाफ राहुल सूरत के सेशन कोर्ट गए थे, लेकिन वहां  उनकी याचिका खारिज हो गई थी। अब वे सेशन कोर्ट के फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट गए थे लेकिन उसने भी उसे खारिज कर दिया। अब राहुल के पास सुप्रीम कोर्ट जाना ही एक रास्ता बचा है, हो सकता है कि गुजरात हाईकोर्ट में एक अकेले जज के फैसले के खिलाफ भी अपील की कोई गुंजाइश अभी बची हो। लेकिन हम यह मानकर चल रहे हैं कि उनका यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचेगा, और वहीं से उनकी सजा पर कोई फैसला होगा, और यह भी तय होगा कि क्या उनकी संसद की सदस्यता बचेगी? या अगला चुनाव लडऩे की उनकी पात्रता बचेगी? अगर उन्हें सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलेगी, तो उसका मतलब यह होगा कि इस संसद की सदस्यता तो उनकी जाएगी ही, वे मजिस्ट्रेट के फैसले के छह साल बाद तक कोई चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। 

अब देश की राजनीति पर इसके असर को अगर देखें तो दो ही स्थितियां बनती हैं। या तो राहुल अगला चुनाव लड़ेंगे, या नहीं लड़ पाएंगे। आज देश में जिस तरह के विपक्षी गठबंधन की कोशिश और तैयारी चल रही है, उसकी सेहत पर भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर पड़ सकता है। अभी तक यह बात उभरकर सामने आ रही है कि पूरे देश में मौजूदगी वाली कांग्रेस ऐसी अकेली पार्टी है जो कि विपक्षी गठबंधन में रह सकती है, और शायद उसकी मुखिया भी रह सकती है। कांग्रेस के बहुत से नेता बेमौसमी और बेमौके की बातें करते हुए इस बात पर कई बार सार्वजनिक बयान दे चुके हैं कि विपक्षी गठबंधन की मुखिया कांग्रेस ही रहेगी, और कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार राहुल गांधी ही रहेंगे। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला विपक्ष के सारे समीकरणों को बदलने वाला भी हो सकता है। 

सुप्रीम कोर्ट से जिन दो में से एक संभावना के आने की उम्मीद है, उस हिसाब से देखें तो राहुल गांधी या तो अपात्रता से मुक्त होकर 2024 के आम चुनाव में उम्मीदवार रहेंगे, और कांग्रेस पार्टी के सपनों के मुताबिक वे संयुक्त विपक्षी मोर्चे के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी भी रहेंगे। लेकिन अदालत तो अदालत है, उसके किसी फैसले को पहले से भविष्यवाणी की तरह सामने रखना ठीक नहीं है। इसलिए यह भी हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला राहुल के खिलाफ जाए, और वे अगला चुनाव ही न लड़ सकें, और छह बरस की अपात्रता उन्हें बिना चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बनने से भी रोक देगी क्योंकि बिना संसद बने कोई व्यक्ति बस छह महीनों के लिए प्रधानमंत्री बन सकते हैं, और आगे अगले कई बरसों की अपात्रता इस बात की इजाजत नहीं देगी। अब देश में विपक्षी गठबंधन की संभावनाओं को अगर देखें तो क्या एक अपात्र राहुल, एक पात्र राहुल के मुकाबले विपक्ष के अधिक काम का हो सकता है? यह सवाल इसलिए जरूरी है कि विपक्ष की एकता की संभावनाओं में आज यह एक बड़ा तनाव दिखता है कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन बने? किसका चेहरा सामने रखकर विपक्ष चुनाव लड़े? जो दो-चार चेहरे इस सिलसिले में सामने आते हंै उनमें से एक चेहरे का कम हो जाना क्या गठबंधन की संभावनाओं को बढ़ाने वाला भी हो सकता है? यह कांग्रेस को एक अपमानजनक, या आपत्तिजनक सवाल भी लग सकता है, लेकिन हम तो अदालत की एक कागजी संभावना को ध्यान में रखते हुए एक काल्पनिक स्थिति पर बात कर रहे हैं कि क्या गैरउम्मीदवार राहुल गांधी देश में विपक्ष की संभावनाओं को बढ़ा सकते हैं? क्या उनके साथ भाजपा, केन्द्र सरकार, संसद, और अदालतों के बर्ताव के खिलाफ राहुल को जनता की हमदर्दी मिल सकती है? यह सवाल बिल्कुल बेबुनियाद इसलिए नहीं है कि भारतीय जनता पहले के कई चुनावों में किसी नेता या पार्टी के साथ हुई ज्यादती के खिलाफ वोट दे चुकी है। लोगों को 1980 का वह चुनाव याद रहना चाहिए जो इंदिरा गांधी के खिलाफ जनता पार्टी सरकार, तरह-तरह के जांच आयोग, और दूसरी संस्थाओं द्वारा की गई कार्रवाई के खिलाफ जनता की नाराजगी की शक्ल में दिखा था। जनता को इस बात से कोई नहीं रोक सकते कि वह सुप्रीम कोर्ट के भी किसी फैसले के खिलाफ चुनाव में वोट डाले। उसे अगर लगेगा कि अदालत ने किसी के साथ ज्यादती की है, तो वे उसके साथ खड़े हो सकते हैं। आज एक ऐसी नौबत भी बनते दिखती है कि राहुल देश में आम लोगों के बीच जिस तरह मोहब्बत बांट रहे हैं, और जवाब में पा भी रहे हैं, उसके चलते बेइंसाफी के शिकार राहुल को एक बड़ा जनसमर्थन मिल भी सकता है। और अगर वे खुद प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं रहेंगे, तो उनके खिलाफ मोदी समर्थकों का वह सारा अभियान भी ठंडा पड़ जाएगा जो मोदी के मुकाबले राहुल की तस्वीर दिखाकर लोगों में एक निराशा जगाने की कोशिश करते हैं। अगर राहुल सिर्फ प्रचारक रहेंगे, और चेहरा किसी और का रहेगा, तो मोदी से राहुल की तुलना प्रचारक के रूप में हो सकेगी, अगले प्रधानमंत्री के रूप में नहीं होगी।
 
अब यह भी समझने की जरूरत है कि अगर राहुल गांधी अपात्र भी रहते हैं, तो भी कांग्रेस पार्टी विपक्षी गठबंधन की अगुवाई का अपना दावा तो छोड़ेगी नहीं, और चेहरा भी अपनी ही पार्टी से किसी का पेश करना चाहेगी, उससे क्या फर्क पड़ेगा, यह अभी कुछ दूर की अटकलबाजी होगी। शतरंज खेलने वाले जरूर अगली आठ-दस चालों की तमाम संभावनाओं का हिसाब लगाकर खेलते हैं, लेकिन चुनावी राजनीति में शायद इतनी संभावनाओं का अंदाज लगा पाना संभव नहीं होगा। फिर भी विपक्षी गठबंधन की कोशिश एक जमीनी हकीकत है, और जिस तरह महाराष्ट्र में एनसीपी में बड़ा विभाजन एक हकीकत है, उसी तरह राहुल गांधी का यह कानूनी मामला भी एक हकीकत है, और तमाम विपक्षी दलों को ऐसी घटनाओं पर नजर भी रखनी चाहिए, और ऐसी किसी भी अनहोनी के होने पर रूख क्या रहे इस पर भी चर्चा करनी चाहिए। 

राहुल गांधी को मजिस्ट्रेट ने जिस आरोप में दो बरस की अधिकतम संभव कैद सुनाई है, उसे कानून के अधिकतर जानकार लोग अनुपातहीन तरीके से अधिक और नाजायज बता रहे हैं, अब उस मजिस्ट्रेट के फैसले के साथ उसके ऊपर की दो और अदालतों की सहमति भी जुड़ गई है। अब सुप्रीम कोर्ट की तरफ लोगों की नजरें रहेंगी कि उसका रूख मानहानि कानून की ऐसी व्याख्या, और इतनी कैद से सहमत रहेगा, या असहमत? और इससे देश की राजनीति में आगे की इस किस्म की मुकदमेबाजी का भविष्य भी तय होगा। सुप्रीम कोर्ट न सिर्फ राहुल के मामले में फैसला देगा, बल्कि उसका फैसला देश में एक नजीर की तरह इस्तेमाल भी होगा। आगे देखें, होता है क्या। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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