आजकल
हिन्दुस्तान में खानपान को लेकर बहस कभी खत्म ही नहीं हो पाती। सोशल मीडिया पर एक लतीफा हर कुछ हफ्तों में घूम-फिरकर सामने आता है कि इस देश में कितने किस्म के मांसाहारी हैं। लोग गिनाते हैं कि कुछ लोग बाहर खाते हैं, पर घर पर नहीं, कुछ लोग हफ्ते के बाकी दिन खाते हैं, पर मंगल और शनि को नहीं, कुछ लोग सावन में नहीं खाते, कुछ लोग एकादशी पर नहीं खाते, और कुछ लोग बीफ या पोर्क नहीं खाते, कुछ लोग झटका नहीं खाते, कुछ लोग हलाल नहीं खाते, और कुछ लोग टुकड़े नहीं खाते, लेकिन शोरबा खा लेते हैं। अभी दो-चार दिन पहले ही किसी ने फेसबुक पर यह लिखा कि एक तरफ तो ईश्वर को अंतरयामी मानते हो, और दूसरी तरफ उसकी पूजा के दिन पर नॉनवेज न खाकर उसे धोखा भी देते हो कि मानो उसे दिख नहीं रहा हो।
यह सब बहस तो चल ही रही थी, कि इंफोसिस के मुखिया, संस्थापक और सबसे बड़े शेयर होल्डर नारायण मूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति का एक बयान सामने आया कि वे किसी दूसरे देश जाने पर अपना खानपान लेकर जाती हैं क्योंकि वहां मांसाहार के चम्मच को इस्तेमाल करना भी उन्हें अटपटा लगता है। बहुत से लोग उनके समर्थन में उतर आए, और कई लोगों ने इसे एक ब्राम्हणवादी-शुद्धतावादी रवैया बताया जो कि देश में आज खानपान पर चल रही बहस की आग में ईंधन डालने वाला दिखता है। सुधा मूर्ति खुद को विशुद्ध शाकाहारी भी बताती हैं कि वे अंडा भी नहीं खातीं। उनके बयान से एक गलतफहमी यह पैदा होती है कि वे खाना खाने के चम्मच की बात कर रही हैं, जबकि वे रसोई के कड़छुल की बात करते अधिक दिख रही हैं कि वहां पर शाकाहारी और मांसाहारी दोनों किस्म के खाने में उसका इस्तेमाल न हुआ हो। वे इसलिए या तो पूरी शाकाहारी रेस्त्रां ढूंढती हैं, या फिर पूरा बैग भरकर खाना ले जाती हैं।
इस पर सोशल मीडिया पर बहस ऐसी छिड़ी कि कुछ लोगों ने यह गिनाना शुरू किया कि यह जातीय शुद्धता से उपजी हुई बात है, और कुछ लोगों ने याद दिलाया कि भारत के अलग-अलग हिस्सों में ब्राम्हण भी परंपरागत रूप से मांस खाते थे, और अभी भी खाते हैं। कुछ लोगों ने यह मुद्दा भी उठाया कि क्या बिना चर्बी साबुन बन सकता है, या पशुओं के कुछ हिस्सों से बनने वाली लाल बिंदी वाली दवाओं का इस्तेमाल भी ऐसे शाकाहारी लोग नहीं करते।
हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों पर लागू होने वाली जातिवादी व्यवस्था लोगों के खानपान की बुनियाद हो सकती है, लेकिन इससे परे की सोच भी खानपान पर हो सकती है। मैं अपनी खुद की बात यहां पर रखना चाहूंगा कि मैं धर्म और जाति से परे हूं, लेकिन खानपान की मेरी अपनी पसंद है। मैं आसपास के लोगों पर अपनी खानपान की पसंद थोपता नहीं, लेकिन मांसाहार से अपनी नापसंद मैं अपने घर के लोगों के सामने उजागर कर चुका हूं। इससे परे, इससे आगे बढक़र मैं किसी पर अपनी कोई पसंद नहीं थोपता। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि मांसाहारी खाने के साथ पकाया गया शाकाहारी खाना मेरे गले आसानी से उतर जाता हो। मेरी कोशिश होती है कि ऐसी नौबत न आए, लेकिन जहां ऐसा बिल्कुल मुमकिन नहीं रहता, मैं रसोई की कल्पना किए बिना चुपचाप अपना शाकाहारी खाना खा लेता हूं। दस-बारह बरस पहले हिन्दुस्तान से एक अमन कारवां में फिलीस्तीन तक जाने का करीब महीने भर का सफर ऐसी बहुत सी नौबतों से भरा हुआ था। ईरान, टर्की, सीरिया, इजिप्ट और फिलीस्तीन जैसे देशों में हर जगह शाकाहारी खाना मिलना आसान नहीं था, लेकिन कारवां के करीब पौन दर्जन लोग खालिस शाकाहारी थे, और जो कुछ जुट जाता था, उसमें खुश रहते थे।
धर्म और जाति से परे, मेरी निजी आस्था हर प्राणी के जिंदा रहने के हक पर है। इसलिए मैं किसी दूसरे प्राणी को मारकर खाने के खिलाफ हूं, और अपने से परे मैं किसी और पर इस बात को नहीं थोपता। इसलिए खानपान की मेरी कट्टरता धर्मान्ध न होकर अहिंसक है, मैं किसी भी प्राणी पर हिंसा के खिलाफ हूं। अब इसे कोई ब्राम्हणवादी कहना चाहे, तो वह बात नाजायज होगी क्योंकि हिन्दुस्तान में तो दर्जन भर प्रदेशों में ब्राम्हण परंपरागत रूप से मांसाहारी हैं, और मैं तो किसी ब्राम्हण परिवार में भी जन्मा नहीं हूं।
आज हिन्दुस्तान में खानपान के भेदभाव को लेकर जिस तरह की हिंसा की जा रही है, उसके बीच अपने शाकाहारी होने की चर्चा भी कुछ लोगों को किसी किस्म की हिंसा को बढ़ावा देने की लग सकती है, लेकिन मंै धर्म और जाति की विविधता का सम्मान करने के लिए इस हद तक कुख्यात हूं, कि मेरे बारे में ऐसा कोई धोखा होना भी आसान नहीं हो सकता। लेकिन हिन्दुस्तान के आज के हमलावर तेवरों के पीछे उसके सवर्ण लोगों का भी एक बड़ा छोटा तबका ही है, जो कि कट्टरतावादी, और शुद्धतावादी सोच को दूसरों पर थोपने को अपना हक समझता है। इस देश के सबसे पुराने लोग, यहां के आदिवासी परंपरागत रूप से मांसाहारी रहे हैं, और अगर किसी को इस देश की सबसे पुरानी संस्कृति को लागू करना है, तो वह सबको मांसाहारी बनाने की ही हो सकती है। इसलिए शाकाहारियों को हिन्दुस्तान को शाकाहारी बनाने की जिद नहीं पालनी चाहिए, वरना अगर भारत के मूल निवासी, यहां के आदिवासी अपनी संस्कृति सब पर लादने पर हावी हो जाएंगे, तो फिर शाकाहारियों के लिए दिक्कत खड़ी हो जाएगी!
सुधा मूर्ति की बातों से, खासकर उनके शब्दों से कोई गलतफहमी शुरू हुई दिखती है, उनके जो शब्द पढऩे में आ रहे हैं, उनमें खाने के चम्मच की जगह, पकाने के चम्मच का आशय अधिक दिख रहा है। लोगों को उनकी आलोचना के पहले इस फर्क को भी समझ लेना चाहिए। अभी तक उनकी कोई ऐसी बात पढऩे में नहीं आई है जो दूसरों को शाकाहारी बनाने की जिद की हो। जब तक ऐसा नहीं है, तब तक लोगों को खानपान की अपनी पसंद को अहिंसक तरीके से, अहिंसक संदर्भ में सामने रखने का हक होना चाहिए, क्योंकि मांसाहारी लोग भी खाने की अपनी प्लेट या थाली की तस्वीरें पोस्ट करने का कोई भी मौका तो चूकते नहीं हैं, यह आजादी सबको होनी चाहिए।