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![तू इधर-उधर की बात न कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा तू इधर-उधर की बात न कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा](https://dailychhattisgarh.com/uploads/aajtak/1691316876C_POSTER.jpg)
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने राहुल गांधी को निचली अदालत से दी गई सजा, और हाईकोर्ट से खारिज की गई उनकी अपील के खिलाफ राहत देते हुए सजा पर रोक लगा दी है, जिसका एक मतलब यह निकाला जा रहा है कि उनकी संसद सदस्यता बहाल हो गई है, और अब सिर्फ औपचारिकता बाकी है। कुछ लोगों को यह भी आशंका है कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला खेल को इतना आसान नहीं रहने देंगे, और अविश्वास प्रस्ताव पर बहस खत्म हो जाने के बाद ही शायद लोकसभा सचिवालय की कागजी कार्रवाई पूरी हो सके। राहुल को संसद से निकालने की कार्रवाई जंगल में हिरण की छलांग की रफ्तार से हुई थी, लेकिन हो सकता है कि उनकी वापिसी की कार्रवाई घोंघे की रफ्तार से हो। खैर, हम उस पर नहीं जा रहे, और आज का हमारा मुद्दा कुछ अलग है जिससे बहुत भटकना भी ठीक नहीं है। राहुल की अपील पर सुनवाई के दौरान तीन जजों की बेंच की अगुवाई कर रहे जस्टिस बी.आर.गवई ने राहुल की अपील खारिज करने वाले गुजरात हाईकोर्ट के फैसले को आड़े हाथों लिया। उन्होंने सुनवाई के दौरान ही अदालत में तल्ख बातें कहीं, और कहा कि हाईकोर्ट की सिंगल जज बेंच ने फैसले लिखने में तो सैकड़ों पेज खर्च कर दिए, एक सांसद की भूमिका पर तमाम टिप्पणियां कर डाली, लेकिन एक बार भी नहीं लिखा कि राहुल को दो साल की सजा देना किस हिसाब से जायज है। जस्टिस गवई ने कहा कि अदालत को अधिकतम सजा देने की वजह साफ करने चाहिए थी, लेकिन गुजरात हाईकोर्ट के जज को निचली अदालत की खामी नजर नहीं आई। उन्होंने कहा कि इसके उल्टे हाईकोर्ट जज पूरे फैसले में बताते रहे कि सांसद किस तरह से आम आदमी हैं, और नेता को किस तरह से मर्यादा में रहकर बयान देना चाहिए। जस्टिस गवई ने कहा कि जज को राहुल की सजा की वजह को साफ करना चाहिए था। उन्होंने एक दूसरे केस का भी जिक्र किया, और कहा कि तीस्ता सीतलवाड़ केस में भी उन्हें गुजरात हाईकोर्ट का फैसला बहुत अखरा था। तीस्ता को बेल क्यों नहीं मिलनी चाहिए ये बताने के बजाय हाईकोर्ट ने दूसरी बातों पर सैकड़ों पेज लिख डाले, जज दूसरी ही चर्चा मेें मशगूल हो गए, लेकिन इस मामले से संबंधित कानूनी नुक्तों का जवाब नहीं ढूंढा, जबकि अदालत का काम होना चाहिए कि वो सजा देते समय उसके कारण पर सबसे ज्यादा फोकस करे।
जस्टिस गवई ने भारत सरकार के सबसे बड़े वकील, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पर एक किस्म से तंज कसते हुए कहा कि यह उन्हीं के प्रदेश के हाईकोर्ट की बात है। उल्लेखनीय है कि तुषार मेहता गुजरात के हैं, और पहले गुजरात हाईकोर्ट में ही वकालत करते थे। उन्होंने जस्टिस गवई का रूख देखते हुए कहा कि उनकी हाथ जोडक़र विनती है कि सुप्रीम कोर्ट कोई ऐसी टिप्पणी न करे जो हाईकोर्ट का मनोबल तोड़ दे। उन्होंने कहा कि कुछ मामलों में हो सकता है कि हाईकोर्ट दिशा से भटका हो, लेकिन सुप्रीम कोर्ट मेहरबानी करके इसे नजरअंदाज करे।
कुछ दिनों के फासले से ही सुप्रीम कोर्ट पहुंचे इन दो मामलों की ऐसी चर्चा गुजरात हाईकोर्ट के लिए सोचने लायक है, और भारत सरकार के वकील के लिए भी। हम बड़ी अदालतों के जजों की हर टिप्पणी से सहमत नहीं रहते, और राहुल के मामले में गुजरात जिला अदालत के एक मजिस्ट्रेट के 168 पेज के पूरे फैसले की व्याख्या भी करना हम नहीं चाहते, दूसरी तरफ इस फैसले से सहमति जताते हुए गुजरात हाईकोर्ट के जज के जिन सैकड़ों पेज की चर्चा जस्टिस गवई ने की है, हमने उसे भी पूरा नहीं पढ़ा है, लेकिन इन दोनों को हम जस्टिस गवई की नजरों से देख रहे हैं। यह बात कुछ हैरान, और अधिक परेशान करती है कि किस तरह एक प्रदेश की एक के ऊपर एक, दो अदालतें अपने सैकड़ों पेज के फैसलों में, असल मुद्दे की बात छोडक़र दीगर तमाम बातें करने में लग जाती है। ऐसा सिर्फ जजों के साथ होता है यह भी नहीं, हमारे जैसे लोग जो अखबारों में लिखते है, वे भी चाहें तो किसी मुद्दे की बुनियाद, या उसकी रीढ़ की हड्डी को छोडक़र महज उसकी महत्वहीन खाल की चर्चा करते हुए पूरी बात खत्म कर सकते हैं, बहुत से लोग ऐसा करते भी हैं, और लोगों को यह भी लगता है कि इतना लंबा पढ़ते-पढ़ते लोग मुद्दों की बात भूल जाएंगे, और लिखी हुई तर्कपूर्ण, लेकिन प्रसंगहीन बातों से प्रभावित होकर उसे एक अच्छा फैसला, अच्छा लेख, अच्छा भाषण मान लेंगे।
अच्छा लिखा या अच्छा बोला कई पैमानों पर कसा जाना चाहिए, उसे तर्कपूर्ण तो होना चाहिए, लेकिन उसे प्रासंगिक और न्यायपूर्ण भी होना चाहिए। कई लोगों के पास जब न्याय के पक्ष में कहने को कुछ नहीं रहता है, तो वे इर्द-गिर्द के मुद्दों पर कई किस्म के वजनदार तर्क देकर लोगों को गुमराह करने की कोशिश करते हैं। अंग्रेजी में कहा जाता है कि जब आप किसी को कनविंस न कर सकें, उसे कन्फ्यूज कर दें, और जब अदालतें सैकड़ों पेज लिख डालती हैं, तो वे लोगों को इतना कन्फ्यूज तो कर ही सकती हैं कि वे यह नहीं समझ पाएं कि इसमें मुद्दे की बात तो है नहीं। यह कुछ उसी किस्म का है कि एक घंटे के भाषण में आप इतने किस्म की कहानियां सुना दें, कि लोगों को यह बात भूल ही जाए कि आपने आज के सबसे जलते-सुलगते मुद्दे पर कुछ भी नहीं कहा है, उससे साफ-साफ कन्नी काट गए हैं, उससे बचकर निकल गए हैं, अनदेखा करके निकल गए हैं।
लोगों को याद होगा कि हिन्दीभाषी प्रदेशों में भी गुजरात से निकले हुए कथाकारों और प्रवचनकारों की बड़ी लोकप्रियता है। एक-एक प्रवचनकर्ता वहां से आकर हिन्दी में प्रवचन करते हैं, दसियों हजार लोग जुटते हैं, और करोड़ों का चढ़ावा भी आता है। इससे भी बड़ी बात यह होती है कि धर्म के नाम पर चुनिंदा मिसालों वाली कहानियां, और उनकी एक खास किस्म की व्याख्या से सुनने वालों के दिमागों को सरकार और कारोबार की ताकत का गुलाम बना देते हैं। लोग किसी किस्म के संघर्ष की बात सोचना भी भूल जाते हैं, क्योंकि उन्हें इस लोक में अपने हक का दावा करने के बजाय अगले लोक को सुधारने की अपनी जिम्मेदारी बेहतर लगने लगती है, उस लोक को जिसे कि किसी ने देखा नहीं है। कुछ अदालतों के फैसले भी ऐसे हो सकते हैं जिनमें किसी सांसद या जनप्रतिनिधि की जिम्मेदारियों पर इतना लंबा और इतना असरदार निबंध पढऩे मिले, कि लोग अधिकतम सजा के कानूनी नुक्ते के बारे में सोचना ही भूल जाएं। आज अधिकतर लोग तो अदालत की खबर के तथ्यों की व्याख्या करने या समझने लायक भी नहीं रहते, क्योंकि उनके दिल-दिमाग बिना मेहनत समझ आने वाले धार्मिक और साम्प्रदायिक भडक़ावों को समझने, और सोख लेने के आदी हो चुके रहते हैं। ऐसे में दिल-दिमाग की चर्बी को कसरत क्यों कराई जाए? अपने को मिलने वाले समाचार-विचार को न्यायसंगत, तर्कसंगत, प्रासंगिक जैसे पैमानों पर क्यों कसा जाए जिससे कि दिल-दिमाग की बेचैनी बढ़े, और उन्हें कुछ सोचना पड़े जो कि हो सकता है कि बहुत सहूलियत का न हो। इतनी देर में दिल-दिमाग और जुबान हिंसक और उन्मादी नारों को दुहरा सकते हैं जिनसे कि रगों में एक आसान उत्तेजना दौडऩे लगती है, और हवा में नामौजूद दुश्मन दिखने लगते हैं, बांहें फडक़ने लगती हैं, और मन आत्मसंतुष्टि से भर जाता है कि अपने धर्म और अपने देश के लिए कुछ करना हो गया। ऐसी जनता के बीच अदालती फैसलों की बुनियादी कमजोरी की चर्चा करना भी आसान नहीं है, क्योंकि वह उनकी सोच पर जोर डालने वाली होगी, और बहुसंख्यक लोगों की हसरत के खिलाफ भी होगी। लेकिन हम इसे अपनी जिम्मेदारी मानते हैं कि जब लोग मुद्दों से भटकाने की नीयत से दूसरों के सामने प्रसंगहीन बातों का एक गुलदस्ता रख देते हैं, तो उसकी कमी लोगों को बता सकें। भारत सरकार के सबसे बड़े वकील ने गुजरात हाईकोर्ट को बचाने के लिए नाहक ही तो हाथ जोडक़र रहम नहीं मांगी होगी।
गुजरात के एक मजिस्ट्रेट, और एक हाईकोर्ट जज के फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से एक पुराना शेर याद पड़ता है- तू इधर-उधर की बात न कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा...