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साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार के लिए अफसरों का मनोबल तोडऩा
20-Aug-2023 3:57 PM
साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार के लिए अफसरों का मनोबल तोडऩा

हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता से घिरे हुए हरियाणा की सरकार ने अभी बहुत से अफसरों के ट्रांसफर किए, और इन्हें प्रशासनिक आधार पर किया हुआ बताया। कोई भी सरकार चाहे किसी भी नीयत से तबादले करे, उन्हें प्रशासनिक आधार पर किया हुआ बताना उसका विशेषाधिकार रहता है, और वह इसका बेजा इस्तेमाल करने से कभी पीछे नहीं हटती। ऐसे में तनावग्रस्त रेवाड़ी जिले के एक डिप्टी कमिश्नर मोहम्मद इमरान रज़ा को भी हटाया गया है जिन्होंने जिले की उन बहुत सी पंचायतों को नोटिस जारी किया था जहां मुस्लिमों के दाखिले का प्रस्ताव पारित किया गया था। देश के कुछ प्रमुख अखबारों में ऐसे गांवों के पोस्टर-बैनर भी सामने आए थे जिनमें मुस्लिमों को भीतर न घुसने की चेतावनी दी गई थी। इस मुस्लिम डिप्टी कमिश्नर सहित और बहुत से तबादले प्रशासनिक आधार पर किए हुए हो सकते हैं, लेकिन सदमा पहुंचाने वाली बात यह है कि रज़ा ने इस जिले में काम अप्रैल के महीने में ही सम्हाला था, और चार महीनों के भीतर ही उन्हें यहां से हटाया गया। पता नहीं कि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में साम्प्रदायिक हिंसा की जो सुनवाई चल रही है, उसमें सरकार से यह पूछना जायज होगा या नहीं कि चार महीने में इस अफसर को हटाने की कौन सी नौबत आई है? 

हरियाणा में साम्प्रदायिक तनाव के बीच जगह-जगह ग्राम पंचायतें प्रस्ताव पारित कर रही हैं कि सामाजिक सुरक्षा व शांतिप्रिय माहौल बनाए रखने के लिए मुस्लिम समुदाय के किसी भी व्यक्ति को उनके गांव में कोई बिक्री नहीं करने दी जाएगी। लोकतंत्र में जिन पंचायतों से देश की संसदीय शासन प्रणाली शुरू होना है, उन्हीं जड़ों में यह जहर घोला जा रहा है, और सरकार की इसमें मौन सहमति दिखाई पड़ रही है। मुख्यमंत्री और मंत्रियों के बयान यह बताने को काफी हैं कि वे किस धर्म के साथ हैं, किस धर्म के खिलाफ हैं, और किस तरह वे इस मुद्दे पर एक ध्रुवीकरण करने के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से भी काफी हद तक टकराव लेने का इरादा रखते हैं। सजा की नौबत आए उसके पहले तक हरियाणा लोकतंत्र और अदालत की बर्दाश्त तौल रहा है, और यह सिलसिला अकेले हरियाणा में नहीं है, देश के बहुत से राज्यों में कानून और जनता दोनों का बर्दाश्त कसौटी पर कसा जा रहा है कि वह और कितना दबाव झेल सकता है। 

अब ऐसा लगने लगा है कि क्या हिन्दुस्तान में सचमुच ही तबादलों का सारा हक राज्य सरकारों के हाथ दिया जा सकता है, या अदालतों को इसके लिए साफ-साफ कोई फैसला देने की जरूरत है। आज केन्द्र सरकार की कुछ चुनिंदा कुर्सियों और राज्यों के पुलिस-मुखिया के लिए सुप्रीम कोर्ट में दो बरस के कार्यकाल का एक नियम बना रखा है, और उसे भी राज्य सरकारें तोडऩे-मरोडऩे में लगी रहती हैं। अब ऐसा लगता है कि जिस अंदाज में राज्यों में तबादले होते हैं, वे सीधे-सीधे लोकतंत्र को खत्म करने की नीयत से, साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता को बढ़ाने की नीयत से, और सरकारी अमले के हौसले और आत्मसम्मान को तोडऩे के लिए किए जाते हैं। अभी यूपी में बवाल कर रहे कावडिय़ों पर लाठीचार्ज करवाने वाले एसएसपी को योगी सरकार ने कुछ घंटों के भीतर ही हटा दिया, और उस वक्त यह खबर सामने आई कि इस ईमानदार और कडक़ समझे जाने वाले आईपीए को तेरह बरस की नौकरी में डेढ़ दर्जन से ज्यादा तबादले झेलने पड़े हैं। ऐसा ही अफसर समझे जाने वाले आईएएस अशोक खेमका को भी हरियाणा में पूरी नौकरी में इसी तरह तकरीबन हर बरस तबादला झेलना पड़ा। 

दूसरी तरफ अफसरों का एक बड़ा तबका ऐसा हो गया है जो सत्ता हांकने वाले नेताओं के साथ गिरोहबंदी करके भागीदारी में हर किस्म के भ्रष्टाचार में लगे रहता है, और किसी पार्टी के एक कार्यकाल में वह पूरी जिंदगी की तनख्वाह से सैकड़ों गुना अधिक की कमाई कर लेता है। तो ऐसा लगता है कि कानून को लागू करने वाले अफसरों को पूरी नौकरी सजा ही भुगतनी होती है क्योंकि तबादले को सजा नहीं गिना जाता। सरकार बड़ी आसानी से ऐसी हर सजा को प्रशासनिक आधार पर किया गया तबादला कह देती है। अब सवाल यह उठता है कि किसी अफसर के कुछ-कुछ महीने में अगर तबादले होते हैं, तो उसका परिवार कितनी जगह बदल सकता है, बच्चे कितने स्कूल-कॉलेज बदल सकते हैं, क्या दो-दो जगह घर-परिवार चलाना मुमकिन हो सकता है? 

बहुत से प्रदेश ऐसे हैं जहां तबादले बारहमासी रहते हैं, होते ही रहते हैं। एक वक्त था जब स्कूल-कॉलेज शुरू होने के महीने-दो महीने पहले तबादले हो जाते थे ताकि लोग परिवार सहित शहर बदल सकें। अब शायद सरकारें यह मानकर चलती हैं कि उनके अमले की ऊपरी कमाई इतनी तो रहती ही है कि वह जब चाहे तब शहर बदल सके, नया घर बसा सके। चूंकि तमाम किस्म के राज्यों में यह एक लगातार का ढर्रा हो गया है, इसलिए क्या अब अदालतों को ऐसे प्रशासनिक आयोग बनाने चाहिए जो कि सरकार से परे के हों, उसके काबू में न हों, और दो बरस से पहले किसी का तबादला करना हो तो उस आयोग के सामने सरकार यह साबित करे कि यह तबादला करना जरूरी क्यों है। जब कभी सरकार प्रशासनिक आधार पर किसी का तबादला करती है, तो उस पर सरकार का बहुत सा खर्च भी होता है, यह एक अलग बात है कि बहुत से अफसरों की ऊपरी कमाई इतनी रहती है कि शायद वे सरकार से तबादले का खर्च वसूल भी न करते हों, लेकिन भ्रष्टाचार की कमाई को पैमाना बनाकर चलना सरकार के लिए ठीक नहीं है, और भ्रष्टाचार से सौ गुना अधिक नुकसान जनता के खजाने का, जनता की संपत्ति का होता है, यह तय है। 

हरियाणा का मामला जिसे लेकर आज यहां लिखा जा रहा है, वह और अधिक खतरनाक इसलिए है कि वह साम्प्रदायिकता के बीच, साम्प्रदायिकता के खिलाफ सरकारी आदेश, देश के संविधान के मुताबिक कार्रवाई करने वाले एक अल्पसंख्यक अफसर को कुछ महीनों के भीतर हटाने का मामला है। हमारा मानना है कि यह अफसर सरकार से टकराए या न टकराए, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर हरियाणा सरकार से इस पर जवाब-तलब करना चाहिए, और हो सकता है कि इससे देश में एक ऐसी नजीर पेश हो सके जिससे कि बाकी प्रदेशों के सामने भी राजनीतिक-मनमानी के खिलाफ मिसाल बनी रहे। कोई देश-प्रदेश अपनी मनमानी करने के लिए अफसरों का मनोबल तोड़ तो सकते हैं, लेकिन टूटे मनोबल वाला सरकारी अमला देश को आगे नहीं बढ़ा सकता, सत्ता के भ्रष्टाचार में भागीदार जरूर हो सकता है। हिन्दुस्तान को ऐसी नौबत से बचाना आज अकेले सुप्रीम कोर्ट के हाथ में दिख रहा है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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