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धरती पर जिंदा हैं दूसरे ग्रह के प्राणियों सरीखे भी कुछ इंसान
01-Oct-2023 3:25 PM
धरती पर जिंदा हैं दूसरे ग्रह के प्राणियों सरीखे भी कुछ इंसान

दक्षिण अमरीकी देश उरुग्वे का दिल को छू लेने वाला एक समाचार है जहां मारिया नाम की 29 बरस की एक शिक्षिका अपने स्कूली बच्चों को पढ़ाने के लिए हर दिन दो सौ किलोमीटर से ज्यादा का सफर करती है। और यह सफर कार से करना आसान नहीं है क्योंकि वह बहुत महंगा पड़ेगा, दुपहिया से आना-जाना आसान नहीं है क्योंकि वह खतरनाक होगा, गांवों के इलाकों में सडक़ें बहुत खराब हैं। वह आती-जाती गाडिय़ों से लिफ्ट लेकर आती-जाती है। अपने घर से 108 किलोमीटर दूर इस स्कूल आने-जाने के लिए उसे कई गाडिय़ां बदलनी पड़ती हैं, सडक़ किनारे रूककर अगली गाड़ी का रास्ता देखना पड़ता है, उनसे अपील करनी पड़ती है, और कुछ लोग मददगार निकलते हैं तो वह स्कूल पहुंच पाती है। उसके पास कार है भी नहीं, और होती तो भी वह उसके ईंधन का खर्च नहीं उठा पातीं। स्कूल पहुंचने पर उसे कुल दो बच्चे पढ़ाने होते हैं क्योंकि वहां वे ही दो बच्चे हैं। चार बरस की जूलियाना, और 9 बरस का बेंजामिन। ये दोनों बच्चे ग्रामीण मजदूरों के बच्चे हैं, और अगर मारिया उन्हें पढ़ाने नहीं पहुंचेगी तो उनकी पढ़ाई का और कोई जरिया नहीं होगा। हर दिन टुकड़े-टुकड़े में उसका सफर जाते हुए दो घंटे, और आते हुए दो घंटे का होता है, और बाकी वक्त स्कूल में पढ़ाना। 

इसे देखकर कुछ दिन पहले छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक शिक्षिका की सोशल मीडिया पर आई तस्वीर याद पड़ती है। बस्तर के पत्रकार तामेश्वर सिन्हा ने लक्ष्मी नेताम नाम की एक सहायक शिक्षक की फोटो ट्विटर पर पोस्ट की थी जो पिछले 15 बरस से एक खतरनाक नदी को पार करके, कमर से ऊपर तक भीगकर अपनी प्राइमरी स्कूल पहुंचती हैं, और बच्चों को पढ़ाती हैं। 

ऐसे कुछ और लोग भी अलग-अलग विभागों में होंगे, अलग-अलग देशों या प्रदेशों में होंगे, जो कि अपने काम को ही किसी धार्मिक रस्म रिवाज, या मान्यता की तरह पूरा करते होंगे, लगातार समर्पित रहते होंगे। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान जैसे देश में सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा कामचोरी और भ्रष्टाचार के लिए जाना जाता है, और थोड़ा-बहुत जो काम होता भी है, वह उसी घटिया क्वालिटी का होता है जिस घटिया क्वालिटी का सामान सरकारें खरीदती हैं। हमारे आसपास हर दिन ऐसी अनगिनत खबरें छपती हैं, जिनमें करोड़ों रूपए लगाकर सरकारों और म्युनिसिपलों ने गैरजरूरी काम करवाए, फिजूल के सामान खरीदे, और बिना एक दिन भी इस्तेमाल हुए वे पड़े-पड़े खराब हो गए, खत्म हो गए। सरकारों में मानो किसी की कोई जवाबदेही ही नहीं रह गई है, और कितनी बातों को लेकर कोई अदालत जा सकते हैं? और अदालतें सरकार तो चला नहीं सकतीं, इनको चलाने का जिम्मा और उसका हक तो निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ही है जो कि सरकारी अफसर-कर्मचारी के साथ मिलकर गब्बर का गिरोह चलाए जैसे काम कर रहे हैं। 

ऐसे में लगता है कि उरुग्वे की वह टीचर, या बस्तर की यह शिक्षिका, इनकी मेहनत करने, अपनी जिंदगी को जिम्मेदारी के लिए समर्पित कर देने की प्रेरणा आती कहां से है? जब चारों तरफ भ्रष्टाचार और नालायकी का अंधेरा छाया हुआ हो, तब कोई इंसान इतनी समर्पित भावना से काम कैसे करते रह सकते हैं? यह बात हैरान भी करती है, और परेशान भी करती है। 

आज ही सुबह की एक दूसरी खबर है कि झारखंड में स्कूली बच्चों के मां-बाप स्कूल में शिक्षकों की मांग को लेकर जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे हैं। खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि एक तिहाई सरकारी स्कूलें ऐसी हैं जहां पर कुल एक शिक्षक है। मां-बाप का कहना है कि पांचवीं में पढऩे वाले बच्चे भी लिख-पढ़ नहीं पाते हैं, ऐसे में वे ऐसी स्कूलों से पढक़र निकलने के बाद भी मजदूरी करने के अलावा किसी काम के नहीं रहेंगे। अब इसे क्या कहा जाए? यह तो खुद झारखंड के ही आदिवासी नेताओं की चलाई जा रही सरकार है जिन पर सैकड़ों करोड़ के भ्रष्टाचार के मामले भी चल रहे हैं। जाहिर है कि अगर इतने बड़े भ्रष्टाचार किए गए हैं, तो उन्हें करने में भी सरकार चला रहे लोगों का वक्त लगा होगा, और फिर काली कमाई को बचाने और ठिकाने लगाने में भी मेहनत करनी पड़ती होगी। ऐसे में सरकारी काम करने के लिए अगर वक्त और ताकत नहीं बच रहे हैं, तो इसमें भी हैरानी की कोई बात नहीं है। 

छोटे-छोटे शिक्षकों, किसी गांव-देहात में काम कर रहे समर्पित सरकारी डॉक्टर, और ऐसे ही इक्का-दुक्का दूसरे लोगों को देखकर लगता है कि दुनिया इन्हीं, और ऐसे ही लोगों के कंधों पर चल रही है, बाकी बड़े-बड़े लोगों के कंधे अपनी काली कमाई के बोरों को लादे हुए चल रहे हैं, और वे जनता का बोझ ढोने के लिए खाली नहीं हैं। भारत के किसी भी औसत प्रदेश में अधिकतर जगहों पर सरकार और म्युनिसिपल, पंचायत और दूसरे दफ्तरों का हाल इतना खराब है कि कहीं भी लोग ईमानदारी की उम्मीद भी नहीं करते हैं। सबको मालूम है कि कितने सरकारी बजट में कितना हिस्सा लूटपाट में जाएगा। पटवारी से लेकर कलेक्टर तक के दफ्तर पहुंचने वाले लोगों को यह मालूम रहता है कि किस काम के लिए उन्हें कितनी रिश्वत का इंतजाम करके जाना है।
 
ऐसे में अपना दिल बहलाने के लिए हम उरुग्वे और बस्तर की इन शिक्षिकाओं की कहानियों को दूसरे ग्रह से आए हुए लोगों की कहानियों की तरह पढ़ते हैं, सुनते हैं, और सुनाते हैं। इनका कम से कम हिन्दुस्तान जैसे देश के सरकारी इंतजाम से कोसों दूर का भी कोई रिश्ता नहीं है। और लोग जिस उत्सुकता और दिलचस्पी से दूसरे ग्रह के प्राणियों और उडऩ तश्तरियों के बारे में पढ़ते हैं, उसी दिलचस्पी से गांधी सरीखे ईमानदार इन छोटे-छोटे कर्मचारियों के बारे में पढऩा चाहिए, और उन्हें प्रणाम करना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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