आजकल

बंगाल की एक खबर है कि वहां के माल्दा जिले में एक स्कूल के बच्चों के मां-बाप का यह कहना था कि स्कूल में दोपहर के भोजन में जब चिकन परोसा जाता है, तो वहां के शिक्षक उसके सभी अच्छे हिस्सों को (जिन्हें शायद लेग पीस कहते हैं) अपने लिए रख लेते हैं, और मुर्गे के बदन के बाकी कम जायकेदार माने जाने वाले हिस्सों को बच्चों के खाने में डालते हैं। मां-बाप का यह भी कहना था कि जिस दिन स्कूल में चिकन पकता है, उस दिन शिक्षक पिकनिक के मूड में होते हैं, और वे बेहतर क्वालिटी का चावल लाकर अपने लिए उसे अलग पकाते हैं। इस बात की शिकायत लेकर मां-बाप स्कूल पहुंचे, और वहां शिक्षकों के साथ उनकी कहासुनी हो गई। बात बढऩे पर आधा दर्जन शिक्षकों को पालकों ने एक कमरे में बंद कर दिया, और चार घंटे बंद रखा, बाद में पुलिस ने आकर इन शिक्षकों को छुड़वाया।
अब बंगाल राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक, बहुत मुखर, और आक्रामक-सामाजिक-राजनीतिक संस्कृति वाला प्रदेश है। यहां पर छोटी बातें भी बड़ा मुद्दा बन जाती हैं। एक वक्त की बात है कि कोलकाता में ट्राम की टिकट एक या दो पैसे बढ़ा दी गई थी, तो वहां राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सडक़ों पर गाडिय़ों में आग लगा दी थी। जागरूकता का हाल यह है कि इस राजधानी में फुटपाथों पर किताबों की दुकानें शायद हिन्दुस्तान में किसी भी दूसरे शहर के मुकाबले अधिक हैं। लोग दीवारों पर नारे लिखते हुए, समर्थन या विरोध के कार्टून बनाते हुए मानो खूबसूरत कलाकृतियां ही बना देते हैं। इसलिए अगर वहां के स्कूली बच्चों के मां-बाप ऐसे भेदभाव के खिलाफ ऐसा आक्रामक विरोध करते हैं, तो भी हैरानी की बात नहीं है, और अगर राजनीतिक असहमति की वजह से गांव के लोगों ने शिक्षकों के खिलाफ गुटबाजी करके ऐसा किया होगा, तो भी हैरानी नहीं होगी। पहले वामपंथी पार्टियों के राज में उनके कार्यकर्ता प्रदेश में ऐसे किसी भी मुद्दे को लेकर राज करते थे, और अब ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सत्ता के बाहुबल का उसी तरह इस्तेमाल करती है। कुल मिलाकर बंगाल की राजनीतिक संस्कृति एक मुखर प्रतिक्रिया की है, और यह ताजा मामला उसी की एक मिसाल है।
लेकिन इस बात से मेरे अपने बचपन की कुछ यादें ताजा हो गई हैं। मैं छत्तीसगढ़ के उस वक्त के एक जिला मुख्यालय वाले शहर के म्युनिसिपल स्कूल में पढ़ता था। यह बात आधी सदी के और पहले की है। उन दिनों यूनीसेफ या विश्व स्वास्थ्य संगठन किसी के बैनरतले हिन्दुस्तानी गरीब बच्चों को कुपोषण से बाहर लाने के लिए विदेशी दूध पाउडर आता था, और विटामिन, कैल्शियम, या किसी और किस्म की गोलियां भी आती थीं। हर शनिवार स्कूल की छुट्टी जल्दी होती थी, और आखिरी घंटे में सबकी नजरें मैदान के उस कोने पर लगी रहती थीं जहां एक भट्टी पर बड़े से गंज में दूध पाउडर को खौलाकर दूध बनाया जाता था, और उसके बाद हम सब छात्र एक-एक गिलास लेकर कतार में लग जाते थे, और सबको आधा-पौन गिलास दूध मिलता था, और एक-एक गोली मिलती थी। इस खुराक की साख इतनी थी, और इससे इतने करिश्मे की उम्मीद रहती थी कि दवा खाने और दूध पीने के तुरंत बाद तमाम बच्चे किसी बॉडीबिल्डिंग मुकाबले की तरह अपने हाथों को मोडक़र देखने लगते थे कि मांसपेशियां (मसल्स) बन गई हैं या नहीं?
उस वक्त वही एक किस्म का हफ्तावार मिड डे मील था, और आज सोचते हुए याद पड़ता है कि सभी जातियों के बच्चे थे, सभी धर्मों के भी थे, लेकिन दूध बनाने और देने वाले चपरासी या चौकीदार की जात या धरम की कोई चर्चा भी नहीं थी। यह 60 के दशक की बात थी, लेकिन स्कूल के शिक्षकों में ब्राम्हणों का बहुमत था, लेकिन किसी को भी उस दूध को पीने से इंकार नहीं रहता था। शायद जाति और धरम की समझ आने के पहले ही बच्चों को उससे उबर जाने की पहली नसीहत वहीं मिली होगी। बाद में जब देश में सरकारी स्कूलों में मिड डे मील कार्यक्रम शुरू किया गया, तो उसके पीछे की एक सोच यह भी थी कि स्कूलों में एक साथ खाते-पीते बच्चों के बीच से जाति की दीवारें टूटेंगीं, और मोटेतौर पर वैसा हुआ भी, कई जगहों पर जाति व्यवस्था ने अपने खूनी पंजे दिखाए, लेकिन कहीं सरकारों की सख्ती से, तो कहीं अदालती दखल से, कुल मिलाकर सरकारी स्कूलों के गरीब बच्चों के बीच एक साथ खाना तकरीबन सभी जगह होने लगा। कुपोषण से मुक्ति के अलावा यह एक बड़ा फायदा हुआ, लेकिन यह बात तो आज के मुद्दे से परे की है, और कुछ लंबी खिंच गई।
मुद्दे की बात यह है कि उस वक्त हमारी म्युनिसिपल स्कूल के शिक्षक दूध वाले ऐसे दिन कागजों में बांधकर दूध पाउडर के एक-दो किलो के पैकेट साइकिल के पीछे फंसाकर ही घर जाते थे। यह सिलसिला बहुत लंबा नहीं चला, लेकिन जब तक चला, तब तक अधिकतर, या सभी शिक्षकों के लिए यह आम बात थी कि दूध पीना भी था, और बांधकर घर भी ले जाना था। लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में, जो कि उस समय मध्यप्रदेश का हिस्सा था, वहां जनता के बीच जागरूकता न तब थी, न आज है। जब अविभाजित मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के कैबिनेट में सैकड़ों लोगों को सीधे सरकारी नौकरी दे दी, तो केरल से आए हुए एक आईएएस अफसर ने हैरानी जाहिर की थी, और व्यक्तिगत बातचीत में मुझसे कहा था कि यह आपके प्रदेश मेें ही हो सकता है, हमारे केरल में सरकार मुकाबले से परे किसी एक को भी नौकरी देने की हिम्मत नहीं कर सकती, क्योंकि लोग उसके खिलाफ अदालत चले जाएंगे, और सरकार कटघरे में होगी।
जनता की जागरूकता के बिना न उसके बच्चों को कोई हक मिल सकते, न उसे खुद कोई हक मिल सकता, और उन्हें कोई भविष्य तो मिल ही नहीं सकता। इस राज्य में पिछली सरकारों के वक्त से ही स्कूल शिक्षा विभाग एक सबसे भ्रष्ट विभाग बना हुआ है। यहां किताबें सप्लाई करने से लेकर फर्नीचर की खरीदी तक में खुला भ्रष्टाचार हावी रहा है, और हर सरकारी स्कूल में एक-दो कमरे टूटे हुए फर्नीचर से भरे हुए रहते हैं। लेकिन राज्य बनने के बाद के इन 22 बरसों में भी कहीं मां-बाप ने जाकर स्कूल की बदइंतजामी के खिलाफ आवाज उठाई हो, ऐसा सुनाई नहीं पड़ा। किसी-किसी स्कूल में जब शिक्षक दारू पिए हुए फर्श पर पड़े रहते हैं, या किसी महिला के साथ स्कूल की इमारत में बंद कमरे में रंगे हाथों पकड़ाते हैं, तो जरूर कुछ गांव वाले इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं। लेकिन बाकी बदइंतजामी, बाकी भ्रष्टाचार से लोग अछूते रहते हैं, बेअसर रहते हैं।
कुछ लोगों को लग सकता है कि बंगाल की तरह की हमलावर जागरूकता अच्छी नहीं है, और वह हिंसक होने लगती है, लेकिन हिंसा से नीचे दर्जे की, अमन-पसंद जागरूकता भी तो हिन्दीभाषी प्रदेशों में देखने नहीं मिलती। मां-बाप यह आवाज भी नहीं उठाते कि उनके बच्चों की स्कूल में शिक्षक कितने दिन आते हैं, कितने दिन नहीं आते, और शिक्षकों की कितनी कुर्सियां खाली पड़ी हुई हैं। मां-बाप चबूतरों पर बैठे हुए खाली वक्त गुजार लेते हैं, लेकिन बच्चों की स्कूल की तरफ झांकना जरूरी नहीं समझते, और गैरजिम्मेदार मां-बाप तो अब और बेफिक्र हो गए हैं कि बच्चों को एक वक्त का खाना स्कूल से मिल जाता है, अब वह अच्छा रहता है या नहीं, उनके हक के लायक रहता है या नहीं, इसकी फिक्र अपने आपको सबले बढिय़ा मानने वाले छत्तिसगढिय़ा में नहीं दिखती है।
बंगाल का यह ताजा मामला सच्चा है यह मानकर हम उसे एक मुद्दा मान रहे हैं कि चिकन का अच्छा हिस्सा उनके बच्चों को न मिलने पर वे स्कूल पहुंचकर शिक्षकों को बंधक बना लेते हैं। स्कूलों की कई बुनियादी दिक्कतों को लेकर, खामियों और मक्कारियों को लेकर हिन्दीभाषी इलाकों में लोगों में जागरूकता पता नहीं कभी आएगी भी या नहीं। लोगों को याद रखना चाहिए कि राजनीतिक जागरूकता वाला जिम्मेदार प्रदेश केरल अपने बच्चों को सबसे अच्छी शिक्षा देता है, सबसे अच्छा इलाज देता है, और जिंदगी में कामयाब होने के लायक सबसे अच्छी संभावनाएं भी अपने बच्चों को केरल ही देता है। अगली पीढ़ी को सिर्फ निजी विरासत, और अपना डीएनए नहीं दिया जाता, अपनी जागरूकता से अगली पीढ़ी को एक बेहतर भविष्य भी दिया जा सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)