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चुनावी हार की वजहों में अनदेखी न रह जाएं ये..
10-Dec-2023 5:28 PM
चुनावी हार की वजहों में अनदेखी न रह जाएं ये..

अभी इस वक्त जब हम यह लिख रहे हैं, छत्तीसगढ़ में भाजपा के दिल्ली से भेजे गए पर्यवेक्षक पहुंचे हुए हैं, और जब तक यह लिखना पूरा होगा तब तक उनकी विधायकों के साथ बैठक शुरू हो चुकी होगी। विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच इस बात को लेकर आत्ममंथन चल रहा है कि कांग्रेस की ऐसी हार, और भाजपा की ऐसी जीत कैसे हुई? दोनों ही उम्मीद से अधिक रहीं, इसलिए यह चर्चा अखबारों के पन्नों पर भी बिखरी हुई है, और कैमरों के सामने भी। हम भी लगातार इस मुद्दे पर सोच रहे हैं, और लिख-बोल रहे हैं। लेकिन जिस तरह चुनाव के पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी ने एक बड़ा जनधारणा प्रबंधन किया था, और तमाम ओपिनियन पोल से लेकर एक्जिट पोल तक एक ही चर्चा थी कि कांग्रेस बड़े वोटों से जीतकर आ रही है, उसी तरह आज ऐसा लगता है कि एक यह जनधारणा बन रही है, या बनाई जा रही है कि कांग्रेस की ऐसी बुरी हार पार्टी के भीतर नेताओं के एक-दूसरे को हराने की कोशिशों से हुई है। अभी यह साफ नहीं है कि ऐसी जनधारणा अगर सचमुच बनाई जा रही है, तो उसके पीछे क्या मकसद है? लेकिन ऐसा लगता है कि ये आरोप तो कांग्रेस के भीतर चल ही रहे थे, जब वोट भी नहीं डले थे, नतीजे निकलना तो दूर की बात थी, तब भी ये आरोप हवा में थे कि कुछ बड़े नेताओं के खिलाफ उनके विधानसभा क्षेत्र में उनके वोट खराब करने कुछ लोगों को खड़ा किया गया था, कुछ लोगों को अंधाधुंध बड़ी रकमें भेजी गई थीं। इसलिए इस शिकायत में कुछ नया नहीं है। और अगर आज भी ऐसी शिकायतों की खबरों को हवा दी जा रही है, तो यह सोचने का मौका है कि क्या यह किसी और मुद्दे की तरफ से ध्यान हटाने के लिए की जा रही सायास कोशिश है? 

आज छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की ऐसी हार के पीछे एक बड़ी वजह भूपेश बघेल सरकार के तौर-तरीके थे। जिस अंदाज में वह सरकार चली, जिसे कि बोलचाल की जुबान में बैड गवर्नेंस कहते हैं, वह चर्चा से गायब दिख रही है। भ्रष्टाचार के कुछ मामलों की चर्चा भाजपा जरूर कर रही है कि कांग्रेस को इस वजह से भी खारिज किया है, लेकिन सरकार चलाने के गलत तौर-तरीकों पर बात नहीं हो रही है। पता नहीं कल दिल्ली में हुई कांग्रेस की समीक्षा बैठक में खरगे-राहुल जैसे लोगों ने हकीकत जानने की कोशिश की, या टकराव को टालने की, यह तो बाहर पता नहीं चल पाया है, लेकिन छत्तीसगढ़ में पांच बरस सरकार चलाने में जो गलत तौर-तरीके थे, उनकी बात की जानी चाहिए, लेकिन उस पर अखबारों और टीवी पर भी बात होते नहीं दिख रही है। 

कल कोरबा के विधायक रहे, और भूपेश मंत्रिमंडल के एक सबसे मुखर मंत्री, जयसिंह अग्रवाल ने जरूर कैमरे के सामने इस बात को खुलकर कहा कि उनके जिले में कलेक्टर और एसपी जैसे अफसर जिस तरह के भेजे गए, और उन्होंने जिस तरह से सत्तारूढ़ पार्टी की संभावनाओं को खत्म किया, वह हार की अकेली वजह थी। उन्होंने यह भी कहा कि मंत्रियों को कोई अधिकार नहीं दिए गए थे, और सारे अधिकार एक जगह (जयसिंह ने सीएम का नाम लेने से परहेज किया, लेकिन उनकी बात का मतलब किसी भी कोने से छिपा हुआ नहीं था) एक जगह केन्द्रित हो गए थे। यह बात पांच बरस हर मंत्री बोलते रहे, सार्वजनिक रूप से तो कम लोगों ने कहा, लेकिन बंद कमरे की आपसी बातचीत में हर किसी का दुखड़ा यही था। तमाम लोगों का यही कहना था कि प्रदेश में हाऊस (मुख्यमंत्री निवास) ही हर फैसला लेता है, और प्रदेश के हर महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठे हुए अफसर भी हर बात के लिए हाऊस की तरफ देखते थे। जब पूरी की पूरी सत्ता एक जगह केन्द्रित थी, तो सरकार के अच्छे कामों के लिए भी उसी को शोहरत मिलनी थी, और तमाम बुरे कामों के लिए भी बदनामी की वही अकेली हकदार थी। इस तरह प्रदेश की पूरी सरकार, शासन-प्रशासन के सारे काम, एक हाऊस में सीमित हो गए थे, और कलेक्टर-एसपी जैसे पुलिस-प्रशासन के जिला-मुखिया भी अपने प्रशासनिक अफसरों के प्रति जवाबदेह नहीं रह गए थे। आज जब हम जनता के फैसले को देखते हैं, तो लगता है कि मुख्य सचिव से लेकर पटवारी तक के बीच मजबूती से जमी हुई यह धारणा सरकारी अमले से निकलकर बाहर भी चारों तरफ फैली, सत्तारूढ़ विधायकों और मंत्रियों को भी एक मामूली अफसर के रहमोकरम पर रहना पड़ा, और यह बात शासन-प्रशासन और सत्तारूढ़ संगठन सभी का मनोबल तोडऩे के लिए काफी थी। 

आज चूंकि इस पहलू से कांग्रेस की हार को जोडक़र नहीं देखा जा रहा है, इसलिए इस पर चर्चा जरूरी है। कांग्रेस पार्टी को अगर देश-प्रदेश में कहीं भी अपना कोई भविष्य बनाना है, और बनाना तो दूर रहा, बचाना है, तो उसे पार्टी से परे की किसी पेशेवर संस्था की सेवाएं लेनी चाहिए, और उसे गोपनीय तरीके से अपने हारे हुए इन तीन राज्यों में कुछ महीने अध्ययन करने भेजना चाहिए, और उनकी रिपोर्ट पर बंद कमरे में खुलकर विचार करना चाहिए। हमारा मानना है कि कोई गैरराजनीतिक संस्था ऐसे काम को बेहतर तरीके से कर सकती है कि सरकार कैसे-कैसे नहीं चलाई जानी चाहिए थी। कम से कम जो तीन राज्य कांग्रेस अभी बुरी तरह हारी है, उस पर ऐसी रिपोर्ट कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के वक्त भी काम आ सकती है। इससे भी पार्टी सबक ले सकती है कि किसी भी प्रदेश में पार्टी और उसकी सरकार की लीडरशिप के एक व्यक्ति में ही सीमित हो जाने का क्या नुकसान हो सकता है, उसके क्या खतरे हो सकते हैं? छत्तीसगढ़ इसकी एक शानदार मिसाल है कि जब किसी राज्य को किसी एक व्यक्ति को लीज पर दे दिया जाता है, तो उससे पूरी सरकार, और पूरा पार्टी संगठन कैसे खत्म होता है। इस राज्य में कांग्रेस को दो बार ऐसा करने का मौका मिला, 2000 में उसने जोगी को इस राज्य का पट्टा लिख दिया था, और इस बार भूपेश बघेल को। ऐसे निर्बाध एकाधिकार का क्या नतीजा निकलता है, यह पार्टी के सामने है। उसके पास अब इन प्रदेशों में राज्य के स्तर पर खोने के लिए कुछ नहीं बचा है, लेकिन पूरे देश के स्तर पर यह सबक लेने का मौका अभी बाकी है कि उसे अपना संगठन कैसे नहीं चलाना चाहिए। किसी एक व्यक्ति को ही ईश्वरीय सत्ता सौंप देने पर पार्टी के बाकी लोग किस तरह हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने को मजबूर रहते हैं, छत्तीसगढ़ अपनी दो कांग्रेस सरकारों में इसकी एक शानदार मिसाल रहा है, और दोनों ही मौकों पर कांग्रेस हाईकमान का रूख एक सरीखा रहा है, फिर चाहे वजहें अलग-अलग क्यों न रही हों। लेकिन नतीजा एक ही रहा जब तानाशाही के अंदाज में चली सरकारें लोगों के बीच में एक मुजरिम-गिरोह की तरह मानी गईं, और चुनावी हार से परे भी कांग्रेस साख की इस नुकसान से उबर नहीं पाई। जोगी के बाद कांग्रेस 15 बरस सत्ता के बाहर रही, और इस बार मंत्रालय से उसका वनवास कितना लंबा होगा, यह इस पर भी निर्भर करेगा कि वह अपनी पार्टी के लिए अब कौन सा तौर-तरीका तय करती है। 

खुद कांग्रेस के भीतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए यह एक आत्ममंथन का मौका हो सकता है कि राजनीतिक और सरकारी फैसले लेने में जब लोगों की भागीदारी खत्म कर दी जाती है, और अपने इर्द-गिर्द हासिल अकेली राय पर प्रदेश चलाया जाता है, तो उसके क्या नुकसान होते हैं। कांग्रेस ने 2023 के विधानसभा चुनाव के पहले दसियों हजार करोड़ रूपए के वायदे मतदाताओं से किए थे, इनमें से बहुत सीधे-सीधे नगद फायदा पहुंचाने वाले कुछ वायदे तो ऐसे थे जिनसे तमाम दो करोड़ वोटर जुड़े हुए थे, लेकिन जिस अंदाज में उन्होंने कांग्रेस को खारिज किया है उससे कांग्रेस को बहुत कुछ समझना और सीखना चाहिए। यह पार्टी घर तो बैठने वाली नहीं है, लेकिन यह मौका पार्टी संगठन को एक बेहतर भागीदारी वाली संस्था बनाने का भी है। कोई भी व्यक्ति चाहे वे कितने ही काबिल और कितने ही जनकल्याणकारी क्यों न हों, लोकतंत्र कभी व्यक्तितंत्र नहीं हो सकता। जब कभी लोकतंत्र में भागीदारी खत्म की जाती है, वह उसे तानाशाही की तरफ ले जाती है। छत्तीसगढ़ में लोग यह कहने में कतरा जरूर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस को इस प्रदेश में अपने घर की पड़ताल करवाना चाहिए कि हम सैद्धांतिक रूप से जो बात कह रहे हैं, क्या वह छत्तीसगढ़ में उसकी सरकार, और उसकी पार्टी पर लागू नहीं हो रही थी? 

कांग्रेस को यह भी समझने की जरूरत है कि देश में अपना संगठन चलाने के लिए, प्रदेशों में चुनाव करवाने के लिए उसे जो रकम लगती है, क्या उसके एवज में किसी प्रदेश को किसी एक नेता को लीज या ठेके पर दे देना ठीक है? 
इससे परे हम कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन को यह भी याद दिलाना चाहते हैं कि छत्तीसगढ़ में इन पांच बरसों में सत्ता और संगठन (अब इन दोनों को क्या अलग-अलग लिखा जाए) ने पार्टी के सबसे बुनियादी मूल्यों को किस तरह खत्म किया है। धर्मनिरपेक्षता गांधी के वक्त से कांग्रेस की रीढ़ की हड्डी बनी हुई थी, उसकी आत्मा बनी हुई थी, इस एक शब्द के बिना कांग्रेस की कोई शिनाख्त नहीं थी, और इसके बड़े-बड़े नेता दिल्ली में बैठकर यह देखते रहे कि किस तरह कांग्रेस ने हिन्दुत्व की ए टीम बनने के लिए छत्तीसगढ़ में पार्टी के तन-मन से रीढ़ की हड्डी और आत्मा को निकालकर बाहर कर दिया था, ताकि बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के सामने यह साबित किया जा सके कि उसका अल्पसंख्यकों से कोई भी लेना-देना नहीं है। यह बात हम पिछले आधे बरस में दो दर्जन बार लिख और बोल चुके हैं, और इसका चुनावी नतीजों से कोई लेना-देना नहीं है। चुनावी नतीजों ने सरकार के बारे में वोटरों की सोच का नया पहलू जरूर सामने रखा है, लेकिन सरकार का घोड़े पर सवार हिन्दुत्व इन पांच बरस भगवा झंडा लेकर प्रदेश में दौड़ते रहा, और किनारे पड़े जख्मी अल्पसंख्यकों को झंडे के डंडे से किनारे करते भी रहा। ऐसा भी नहीं कि सोनिया-परिवार को यह दिख न रहा हो, और अगर बीते बरसों में यह न दिखा हो, तो अब प्रदेश भर के चुनावी नतीजों से तो दिख जाना चाहिए। 

कांग्रेस को छत्तीसगढ़ के पिछले पांच बरस के मॉडल से यह सबक लेने की जरूरत है कि उसे अपना संगठन, और अपनी सरकार किस तरह नहीं चलानी चाहिए, उसे यह भी सबक लेने की जरूरत है कि कोई नेता चाहे कितने ही कामयाब न हों, वे पूरे संगठन के, तमाम नेताओं के अकेले विकल्प नहीं बन सकते। अगर ऐसा हो सकता तो फिर सोनिया परिवार के तीन लोगों से परे देश में किसी पार्टी संगठन की जरूरत ही क्या रहती? छत्तीसगढ़ में इस पार्टी ने पांच बरस जो किया है, जो देखा है, और नतीजे में जो पाया है, वह भी अगर इस पार्टी के लिए सबक नहीं बन सकेगा, तो इसके लिए फिर दुनिया में और कोई सबक नहीं है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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