संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिना लंगोट वाले राज्यपालों को संवैधानिक-सुरक्षा गलत
16-May-2024 3:49 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बिना लंगोट वाले राज्यपालों को संवैधानिक-सुरक्षा गलत

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के खिलाफ वहां राजभवन की एक अस्थाई महिला कर्मचारी ने यौन शोषण का आरोप लगाया था जिसकी जांच बंगाल की पुलिस कर रही है, और उसने राजभवन कर्मचारियों से पूछताछ की इजाजत के अलावा राजभवन का सीसीटीवी फुटेज मांगा है। भारत की संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक राज्यपाल के खिलाफ कोई एफआईआर नहीं हो सकती, इसलिए वे अभी तक बचे हुए हैं। लेकिन राज्यपाल सी.वी.आनंद बोस ने इस महिला की शिकायत पर पुलिस जांच के बाद करीब सौ चुनिंदा पत्रकारों को राजभवन में इकट्ठा करके शिकायत में बताए गए घटना के दिन के सीसीटीवी फुटेज में से चुनिंदा हिस्सा उनके सामने अपने को बेकसूर साबित करने की कोशिश में रखा। खबरें बताती हैं कि इस फुटेज में शिकायतकर्ता महिला को भी दिखाया गया, जिससे उसकी निजता भंग हुई। यौन शोषण की शिकायत पर किसी भी महिला की पहचान, उसका नाम, कुछ भी उजागर करने पर कानूनी रोक है, और राज्यपाल ने ठीक यही किया। राज्य का संवैधानिक प्रमुख अगर ऐसी हरकत करता है, और उसे संवैधानिक सुरक्षा हासिल है, तो फिर ऐसी सुरक्षा के बारे में एक बार और सोचना चाहिए। लोगों को याद होगा कि आन्ध्रप्रदेश के राजभवन में कुछ दशक पहले उस वक्त राज्यपाल रहे नारायण दत्त तिवारी के भी कुछ वीडियो सामने आए थे जिनमें वे राजभवन के किसी कर्मचारी के साथ तो नहीं थे, लेकिन वहां के अतिथिगृह में आकर ठहरी एक महिला के साथ थे। ऐसे वीडियो के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। देश में अलग-अलग कई राजभवनों में राज्यपाल जितने छिछोरे किस्म के मामलों में उलझे हुए दिखते हैं, उनसे लगता है कि उन्हें मिली हुई ऐसी संवैधानिक सुरक्षा खत्म करनी चाहिए। वैसे भी किसी भी ओहदे पर बैठे हुए व्यक्ति को सिर्फ उसकी जिम्मेदारी के कामकाज से जुड़ी हुई कोई सुरक्षा देना शायद जायज होता हो, लेकिन निजी चाल-चलन, निजी भ्रष्टाचार, यौन शोषण जैसे मामलों में किसी को संवैधानिक हिफाजत देना पूरी तरह अलोकतांत्रिक है। अब राज्यपाल आनंद बोस के खिलाफ मानो यह शिकायत काफी नहीं थी कि एक ओबीसी नृत्यांगना ने बंगाल राज्यपाल के खिलाफ बंगाल पुलिस को एक शिकायत की थी जिसकी जांच अब पुलिस ने पूरी की है, और राज्य शासन को रिपोर्ट दे दी है। इस नृत्यांगना ने दिल्ली के एक होटल में ठहरने के दौरान उनसे मिलने के लिए दिल्ली का बंग भवन छोडक़र बिना सुरक्षा अकेले पहुंचे हुए राज्यपाल का जिक्र किया था, और शिकायत की थी कि उन्होंने होटल में उसका यौन उत्पीडऩ किया था। बंगाल पुलिस के मुताबिक बंग भवन में राज्यपाल के ठहरने, निकलने, और होटल में आने, वहां से जाने का सीसीटीवी फुटेज देख लिया गया है, और पहली नजर में इस महिला की शिकायत पुलिस ने सही पाई है। 

अब भारत में किसी भी व्यक्ति को ऐसी संवैधानिक सुरक्षा मिलना पूरी तरह अलोकतांत्रिक है जो कि उसके काम से जुड़ी हुई नहीं है। यही शिकायत अगर किसी छोटे सरकारी कर्मचारी या आम नागरिक के खिलाफ होती, तो उन्हें तो कोई हिफाजत नहीं मिल सकती थी। ऐसे में आम और खास के बीच यौन शोषण जैसे आरोप, या मध्यप्रदेश में एक वक्त राज्यपाल रहते हुए रामनरेश यादव के व्यापमं घोटाले में शामिल होने के आरोप सामने आए थे, लेकिन उनके रिटायर होने के बाद पुलिस कोई कार्रवाई पाती, उसके पहले ही वे गुजर गए, और कई किस्म की कानूनी परेशानियों से बच भी गए। अब ऐसे मामलों में किसी को कानूनी कार्रवाई से हिफाजत देना पूरी तरह अलोकतांत्रिक और नाजायज है। 2015 में जब यह मामला सामने आया था उस वक्त सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर हुई थी जिसमें एमपी के गवर्नर को हटाने की मांग की गई थी, और उस वक्त अदालत ने केन्द्र सरकार से इस पर जवाब भी मांगा था। उस वक्त की खबर बताती है कि सुप्रीम कोर्ट ने रामनरेश यादव को भी नोटिस जारी किया था जो कि अपने किस्म का एक असाधारण मामला था। 

लोकतंत्र में जनता के ऊंचे ओहदों पर बैठे हुए लोगों को इतना तो ख्याल रखना चाहिए कि ऐसी शर्मिंदगी और कानूनी कार्रवाई झेलने के बजाय, ऐसे आरोप लगने पर वे कम से कम राजभवन की हिफाजत को छोडक़र घर तो चले जाएं। लेकिन ऐसे लोग इस दहशत में रहते होंगे कि राजभवन छोड़ते ही उन पर कार्रवाई हो सकती है, और इसीलिए वे कुर्सी से अधिक से अधिक वक्त तक चिपके रहना चाहते होंगे। और रिटायर होने के पहले ही गुजर जाने वाले राज्यपाल की तरह बाकी लोग भी उम्मीद करते होंगे कि हो सकता है कि रिटायरमेंट आने के पहले मौत ही आ जाए, तो किसी कार्रवाई का कोई टंटा ही नहीं रहेगा। और इस देश में तो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने एक बेमिसाल मिसाल छोड़ी है कि बंगले के दफ्तर में मातहत कर्मचारी के यौन शोषण का आरोप लगने पर वे खुद ही इसकी सुनवाई के लिए बनी बेंच के मुखिया बनकर बैठ गए थे। इससे अधिक शर्मनाक कोई मिसाल देश के इतिहास में आज तक नहीं हुई है, और हमने यह बेंच बनने के दिन से ही इसे शर्मनाक करार देना शुरू किया था, यह एक अलग बात है कि साल-दो साल बाद जब रंजन गोगोई की किताब प्रकाशित हुई थी तो उन्होंने इस बेंच में खुद के बैठने को गलत फैसला माना था, तब तक हम दर्जन भर बार से अधिक अपने संपादकीय और कॉलम में इसे धिक्कार चुके थे। 

हम पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के हर राज्यपाल के साथ वहां चलने वाले स्थाई टकराव को अनदेखा करना नहीं चाहते। लेकिन अगर एक के बाद एक महिलाएं राज्यपाल पर यौन शोषण का आरोप लगा रही हैं, तो हम इनके पीछे कोई राजनीति मानने से इंकार करते हैं, और उन महिलाओं का जांच और कार्रवाई का हक राजनीति से ऊपर मानते हैं। ऐसे में देश के संविधान में यह फेरबदल करना चाहिए कि निजी आचरण, भ्रष्टाचार, यौन शोषण जैसी शिकायतों पर किसी राज्यपाल, राष्ट्रपति, या जज, देश में किसी को भी कोई छूट नहीं मिलनी चाहिए। लोकतंत्र जरा भी सभ्य होता तो बंगाल सरीखे राज्यपाल इस्तीफा देते, और फिर चाहे अपनी मोटी पेंशन से थाईलैंड आते-जाते रहते। लेकिन कुकर्मों को संवैधानिक हिफाजत देना पूरी तरह अलोकतांत्रिक है, और हमारा ख्याल है कि एक व्यापक मुद्दा बनाकर अगर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका लगाई जाएगी, तो उसकी सुनवाई की संभावना बनती है। देश में किसी वकील को, या जागरूक नागरिक को यह पहल करनी चाहिए। और क्या होगा, अधिक से अधिक सुप्रीम कोर्ट पिटीशन को खारिज करके लाख-पचास हजार रूपए जुर्माना लगा देगा, उसके लिए भी जनता के बीच से क्राउड फंडिंग से पैसा इकट्ठा किया जा सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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