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सबको मालूम है दोजख़ की हकीकत लेकिन..
03-Oct-2021 5:18 PM
सबको मालूम है दोजख़ की हकीकत लेकिन..

एप्पल कंपनी के नए मोबाइल फोन के बाजार में आने के पहले ही कंपनी की दी गई जानकारी कुछ घंटे के भीतर ही लोगों की जुबान पर आ जाती है कि अगला फोन किस साइज का आ रहा है, उसमें कौन सी खूबियां रहेंगी, और दाम कितने डॉलर रहेगा, यह हिंदुस्तान में वह कितने का पड़ेगा। शाहरुख खान का बेटा किसी नशे के मामले में पकड़ाता है तो उस बेटे के बारे में लोगों को खासी जानकारी रहती है। लेकिन हिंदुस्तान के एक सबसे बड़े अखबार का खुद का बनाया हुआ एक पॉडकास्ट सुनते हुए अभी समझ आया कि उस अखबार के बड़े-बड़े दिग्गज राजनीतिक रिपोर्टर माइक्रोफोन पर बात करते हुए भी पंजाब के सिलसिले में दलितों को अलग गिन रहे हैं, और हिंदुओं को अलग। एक दलित के मुख्यमंत्री बनने के मामले को एक हिंदू मुख्यमंत्री से अलग गिनकर चल रहे हैं। यह मामला कुछ वैसा ही है कि कश्मीर के बारे में चर्चा करते हुए लोग कश्मीर और इंडिया जैसी बात करते हैं। एक अमरीकी रेडियो स्टेशन के लिए कुछ बरस पहले मैंने देश की एक बड़ी अखबारनवीस का ऑडियो इंटरव्यू रिकॉर्ड किया था जो कि कश्मीर के मामलों की बड़ी जानकार भी थीं, और उन्होंने बातचीत में एक से अधिक बार कश्मीर और इंडिया जैसी बातें कहीं, जाहिर है कि मेरा अगला और आखरी सवाल यही था कि क्या वे कश्मीर को इंडिया से अलग मानकर चल रही हैं ? और तब जाकर उन्हें अपनी चूक समझ में आई कि वे क्या गलती कर रही थीं।

अभी जब पंजाब में मुख्यमंत्री के बदलने की बात आई और एक दलित विधायक के मुख्यमंत्री बनने की मुनादी हुई तो बहुत से खासे पढ़े लिखे लोगों को हैरानी के साथ यह चर्चा करते हुए सुना कि क्या सिखों में भी कोई जाति व्यवस्था है? लोग यही मानकर चल रहे थे कि जिस तरह गुरुद्वारे की पंगत में बिना जाति धर्म पूछे सबको एक साथ खाना खिलाया जाता है तो उससे शायद सिखों के भीतर कोई जाति व्यवस्था नहीं होगी। सच तो यह है कि भारत के किसी भी दूसरे प्रदेश के मुकाबले पंजाब में दलितों की आबादी का प्रतिशत सबसे अधिक है, वहां 32 फीसदी दलित हैं। लेकिन लोगों की याददाश्त कुछ कमजोर रहती है और मीडिया के बहुत से लोगों ने टीवी चैनलों पर यह कहा, और अखबार की खबरों में भी लिखा, कि यह पंजाब का पहला गैर-सिक्ख मुख्यमंत्री बनने जा रहा है जबकि इसके पहले पंजाब में एक से अधिक गैर-सिक्ख मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लोगों की जानकारी असल मुद्दों को लेकर धीरे-धीरे कम इसलिए हो रही है कि फिल्म इंडस्ट्री के एक अभिनेता की खुदकुशी को राजनीतिक बनाने की कोशिशों में वे डूब जाते हैं। खेल सत्तारूढ़ ताकतें करती हैं और लोग स्टेडियम में बैठे दर्शकों की तरह मैच देखने जाते हैं, लेकिन चीयरलीडर्स की तरह नाचने लगते हैं। अफवाहों और झूठ-फरेब के इस बाजार में सच की इज्जत इतनी कम रह गई है कि लोग खबरों में सच पाने की उम्मीद करते, न कोशिश करते।

अभी एक वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहा है जिसमें किसी महानगर में कॉलेज के छात्र-छात्राओं के बीच एक कैमरा और माइक्रोफोन लिए हुए लोग उनसे हिंदुस्तान के बारे में कई किस्म के सवाल करते हैं। उन्हें हिंदुस्तान के पहले प्रधानमंत्री का नाम नहीं मालूम, पहले राष्ट्रपति का नाम नहीं मालूम, उन्हें किसी अंतरिक्ष यात्री का नाम नहीं मालूम, उन्हें छत्तीसगढ़ के भीतर झारखंड है या झारखंड के भीतर छत्तीसगढ़ है यह भी नहीं मालूम, उन्हें उत्तराखंड, हिमाचल, और उत्तर प्रदेश के अलग-अलग होने की खबर नहीं है, उन्हें किसी बात की खबर नहीं है, और वे खासे फैशनेबल कपड़े पहने हुए, संपन्न परिवारों के, कॉलेज में पढ़ रहे या पढ़ चुके लोग दिख रहे हैं। जो सामान्य ज्ञान के दसियों सवालों में नाकामयाब हो कर कैमरे से ही यह सवाल करते हैं कि क्या यह उन्हें अपमानित करने के लिए यह किया जा रहा है?

हिंदुस्तान के असल मुद्दों की जानकारी में लोगों की दिलचस्पी बहुत ही कम है। सच तो यह है कि लोगों की अपने आसपास की ऐसी जानकारी में दिलचस्पी नहीं है जिससे उन्हें कोई मजा नहीं मिलता। देश के बड़े-बड़े अखबारों के छत्तीसगढ़ में रहने वाले रिपोर्टरों से कई बार यह कहा जाता है कि वे बहुत दुख-तकलीफ की या नक्सल हिंसा की खबरें बहुत अधिक ना भेजें क्योंकि उनमें किसी की अधिक दिलचस्पी नहीं है। जब मरने वाले गिनती में बहुत अधिक होते हैं, तब तो यह खबर बनती है, लेकिन छोटी-मोटी नक्सल हिंसा की खबरों में किसी अखबार की दिलचस्पी नहीं रहती, छत्तीसगढ़ के अखबारों की भी सीमित दिलचस्पी रहती है। इसके पीछे की वजह यह है कि विज्ञापन देने वाले लोग अखबार या टीवी चैनलों को दुख-दर्द, तकलीफ, और लाशों से भरा हुआ देखना नहीं चाहते। उसकी जगह एक किसी जहाज पर चल रही पार्टी में थोड़ा-बहुत नशा कर रहे लोगों के पकडाने पर शाहरुख खान के बेटे की वीडियो के साथ कई-कई घंटे उसी खबर को दिखाने में टीवी चैनलों की दिलचस्पी अधिक है, और हो सकता है कि अखबार भी वैसे ही निकलें।

फिल्मी दुनिया, सेक्स, क्राइम, और क्रिकेट से जुड़ी हुई खबरें लोगों को गुदगुदाती हैं, और उन्हें कुछ भी सोचने पर मजबूर नहीं करती। यह कुछ वैसा ही होता है कि सोफे पर बैठ कर चिप्स खाते हुए टीवी पर क्रिकेट देखना जितना आरामदेह रहता है, कसरत करना या दौडऩा, साइकिल चलाना तो उतना आरामदेह हो नहीं सकता। इसलिए लोग अपने दिमाग पर अधिक जोर डालना नहीं चाहते, अपने भीतर के सामाजिक सरोकारों को जगाने का खतरा भी उठाना नहीं चाहते। सामाजिक सरोकार अगर जाग गए तो देश-दुनिया के असल मुद्दे उनके दिल-दिमाग को परेशान करने लगेंगे। इसलिए ऐसी खबरों को ही ना पढ़ा जाए कि कितने लोग कुपोषण के शिकार हैं, कितने बच्चे पिछली शाम के खाने के बाद अगला खाना अगली दोपहर स्कूल में ही पाते हैं। ऐसी खबरों को पढऩे के बाद लोगों के अपने गले से कुछ उतरना मुश्किल होने लगेगा इसलिए लोग सामाजिक सरोकार की तमाम बातों से दूर रहते हैं।

यही वजह है कि दलितों के मुद्दों की जानकारी लोगों को कम है. कश्मीर में एक सैलानी जितनी दिलचस्पी तो है, लेकिन कश्मीर के लोगों की बाकी दिक्कतों से लोग अपने को दूर और अछूता रखते हैं. लोग उत्तर-पूर्वी राज्यों की दिक्कतों से अपने को दूर रखते हैं, और दिल्ली के बाजारों में उत्तर-पूर्व के लोगों को देखकर उन्हें चिंकी बुलाकर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं। लोगों को उन लोगों को देख कर भी आत्मग्लानि होती है जो कि बहुत सादगी से जीते हैं, इसलिए ममता बनर्जी की साधारण रबड़ चप्पल और उसकी साधारण साड़ी को लोग मखौल का सामान मानते हैं, और जो नेता दिन में 4 बार, 6 बार महंगे कपड़े बदलते हैं, उनकी वे इज्जत करते हैं। लोग नेताओं से यह पूछना नहीं चाहते कि उनके पास इतना पैसा कहां से आया, और लोग देश के गरीबों की तकलीफ को जानना नहीं चाहते कि बिना पैसों के या इतने कम पैसों के साथ वे जिंदगी कैसे काट सकते हैं।

लोगों का सामाजिक सरोकार से दूर रहना, लोगों की तकलीफों को अनदेखा करना, जमीन की कड़वी हकीकत को नहीं देखना, इन सबसे लोग सुखी रहते हैं, और यही वजह है ये  मुद्दे धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं फीके पड़ते जा रहे हैं। इसे एक और बात से जोडक़र देखा जा सकता है कि किस तरह हिंदुस्तान की संसद में अरबपति बढ़ते चले जा रहे हैं, और हिंदुस्तान की विधानसभाओं में भी करोड़पतियों का अनुपात लगातार बढ़ते चल रहा है। इतनी संपन्नता लोगों को विपन्नता के दर्शन ही नहीं करने देती और बहुत गरीबी से तकरीबन अनजान लोग जब संसद या विधानसभा में बैठकर चर्चा करते हैं, तो जाहिर है कि वह चर्चा गरीबों पर तो टिक नहीं सकती, वहां तक पहुंच भी नहीं सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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