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राहुल की भारत जोड़ो पदयात्रा पढक़र याद आई मेरी 240 मील की पदयात्रा..
28-Aug-2022 1:19 PM
राहुल की भारत जोड़ो पदयात्रा पढक़र याद आई मेरी 240 मील की पदयात्रा..

7 सितंबर को राहुल गांधी की अगुवाई में कन्याकुमारी से कश्मीर तक के लिए भारत जोड़ो पदयात्रा शुरू होने जा रही है। यह डेढ़ सौ दिनों में कश्मीर पहुंचकर खत्म होगी। कांग्रेस पार्टी इसे शुरू तो कर रही है, लेकिन उसने दूसरे राजनीतिक दलों और जनसंगठनों को भी इसमें शामिल होने का न्यौता भेजा है, और यह यात्रा कांग्रेस का झंडा लेकर नहीं, देश का झंडा लेकर चलेगी। इसका नारा, ‘मिले कदम, जुड़े वतन’ रखा गया है, और 3570 किलोमीटर की यह यात्रा बारह राज्यों और दो केन्द्रशासित प्रदेशों से होकर गुजरेगी। कांग्रेस का कहना है कि यह देश में आर्थिक असमानता, सामाजिक ध्रुवीकरण, राजनीतिक तनाव के खिलाफ लोगों को आपस में जोडऩे की एक कोशिश है।

अभी यह साफ तो नहीं है कि राहुल गांधी पूरे 150 दिन इसमें पैदल चलेंगे, या बीच-बीच में संसद सत्र में जाकर लौटेंगे, या चुनाव प्रचार में जाकर वापिस आएंगे। लेकिन इसे महत्वपूर्ण इस हिसाब से माना जा रहा है कि इतनी लंबी पदयात्रा आसान भी नहीं रहेगी, और रोज का यह मुश्किल पैदल सफर अधिक लोगों के बस की बात भी नहीं होगी। बीबीसी की एक रिपोर्ट में इस यात्रा का जिक्र करते हुए 1983 की चन्द्रशेखर की पदयात्रा का जिक्र किया गया है, और 1930 की महात्मा गांधी की दांडीयात्रा का भी। चन्द्रशेखर ने भी 1983 में इसे कन्याकुमारी से शुरू किया था, और वे राजघाट तक आए थे, लेकिन उन्होंने करीब इतने ही दिनों में एक दूसरे रास्ते से करीब 4200 किलोमीटर का सफर किया था। चन्द्रशेखर ने उसे भारत यात्रा कहा था, और वे पूरे करीब छह महीने इसमें रोज पैदल चले।

गांधी का दांडी मार्च 239 मील (385 किलोमीटर) का था, और इसे उन्होंने 24 दिनों में पूरा किया था। यह पदयात्रा अंग्रेजों की नमक नीति के खिलाफ थी, और नमक बनाने पर टैक्स देने का विरोध करने के लिए गांधी ने अपने 78 साथियों के साथ यह कड़ा सफर किया था।

अभी की राहुल गांधी की यात्रा की रिपोर्ट तो आती रहेगी, लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने के साथ-साथ मैं यह भी याद कर रहा हूं कि किस तरह एक दांडी मार्च का हिस्सेदार मंै भी रहा हूं।

यह 2011 की बात है, कुछ ही महीने पहले मैं राजघाट से फिलीस्तीन के गाजा तक सडक़ के रास्ते से गए एक शांति कारवां का हिस्सेदार था। वहां से लौटे अधिक समय नहीं हुआ था कि इंटरनेट पर यह पढऩे मिला कि अमरीका के कैलिफोर्निया में कुछ भारतवंशी लोग दांडी मार्च-2 आयोजित कर रहे हैं जिसमें गांधीवादी मूल्यों को लेकर लोग गांधी के दांडी मार्च की तरह 240 मील पैदल चलेंगे। चूंकि अमरीका व्यस्त जगह है, लोगों के पास समय कुछ कम रहता है, इसलिए इन भारतवंशीय लोगों ने इसे पन्द्रह दिनों में समेट लिया था, और रोज 28-29 किलोमीटर पैदल चलना तय किया गया था।

मैंने अमरीका में बसे अपने छत्तीसगढ़ के एक दोस्त वेंकटेश शुक्ला के मार्फत उसी राज्य कैलिफोर्निया के इन आयोजकों से संपर्क किया, और वे यह जानकर हैरान हुए कि हिन्दुस्तान से कोई अखबारनवीस इस पदयात्रा में शामिल होने के लिए वहां आना चाहता है। जिन आयोजकों से मेरी बात हुई, उन्होंने पूरी ताकत से मेरा हौसला पस्त करने की कोशिश की, कि उनके पास न तो मेरी टिकट के लिए कोई बजट होगा, और न ही वे मेरे रहने-खाने का कोई सलीके का इंतजाम कर सकेंगे। उन्होंने कहा कि वे लोग तो अलग-अलग जगहों पर अपने स्थानीय समर्थकों और साथियों के घरों पर ठहरेंगे, सोने के लिए फर्श होगी, खाने के लिए मामूली खाना, और रोज चलने से कोई रियायत नहीं होगी।

मेरा महीने भर से अधिक का फिलीस्तीन का कुछ दिक्कतों वाला सफर हाल ही में हुआ था, और हौसला बुलंद था। दो दिन के भीतर वहां रवाना होना था, और मेरे पासपोर्ट पर कुछ वक्त पहले एक अमरीकी विश्वविद्यालय के न्यौते पर वहां बोलने जाने की वजह से वीजा भी लगा हुआ था।

दो दिनों में ही मैं अमरीका के कैलिफोर्निया के लॉस एंजिल्स में था, जहां इमिग्रेशन अफसर मुझसे पूछ रहा था कि मैं वहां किस मकसद से आया हूं। एक वजह यह भी रही होगी कि मेरे पासपोर्ट पर पाकिस्तान, ईरान, टर्की, सीरिया, लेबनान, इजिप्ट, और फिलीस्तीन जैसे वीजा लगे हुए थे। जब उसे अमरीका आने का मकसद बताया कि यहां 240 मील पैदल चलकर हिन्दुस्तानी समुदाय के लोगों से मिलना है, और उन्हें सहमत करना है कि वे हिन्दुस्तान में फैले भयानक भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां के अपने सांसदों और विधायकों को लिखें, तो वह अफसर चक्कर खा गया। उसे समझ नहीं आया कि हिन्दुस्तान के भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए वहां से कोई अमरीका पैदल चलने क्यों आया है?

खैर, आयोजकों का मकसद बड़ा साफ था, वे हिन्दुस्तान में उस वक्त चल रहे अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल वगैरह के जनलोकपाल आंदोलन के समर्थन में यह पदयात्रा कर रहे थे। मैं अपनी व्यक्तिगत सोच के मुताबिक अन्ना-केजरीवाल के मुद्दे पर बिना किसी निष्कर्ष के था, और इस दांडी मार्च-2 में शामिल होने के पीछे गांधी का नाम, और गांधी की तस्वीर वाली टी-शर्ट मेरे लिए अधिक मायने रखती थी, और उस वक्त मैं अन्ना-केजरीवाल का आलोचक भी नहीं था, क्योंकि वह आंदोलन शुरू ही हुआ था।

इसके मुख्य आयोजकों में से कुछ तो वहां पर महीनों से रोज इतना चलने के लिए काफी हद तक तैयारी भी कर रहे थे, लेकिन मैं हिन्दुस्तान से जब वहां गया, तो मेरी दिन में एक किलोमीटर भी चलने की आदत नहीं थी। वहां पर पहले ही दिन से हर दिन 28-29 किलोमीटर चलना शुरू हुआ, पहली ही शाम तक पैरों के दोनों तलुवे फफोलों से भर गए, और अगली सुबह तो चलने की हालत भी नहीं थी। फिर भी लोगों को मुंह तो दिखाना ही था, इसलिए मलहम पट्टी करके, दर्द से लंगड़ाते हुए, उस वक्त के करीब सौ किलो के बदन को ढोते हुए, और उसके ऊपर करीब 12 किलो की कैमरा किट लादकर चलते हुए हर दिन एक से अधिक बार लगता था कि बस आज शाम इससे बिदा होकर लौट जाना है।

लेकिन पदयात्रा का एक अलग नशा होता है। साथ के लोग एक-दूसरे के लिए चुनौती भी बन जाते हैं। जख्म दुरूस्त होने के पहले ही नए जख्म बन जा रहे थे, और कुछ दिन तो ऐसे थे जब पूरे-पूरे दिन बर्फीला पानी बरसते रहा, और जूतों में भरा बर्फीला पानी दर्द के एहसास को बहुत हद तक दूर करने वाला भी था। हर सुबह हम किसी नये शहर में पहले से घोषित जगह से चलना शुरू करते थे, रास्ते में कहीं किसी पार्किंग, कहीं बगीचे, कहीं किसी धर्मस्थान पर लोगों से मिलना तय रहता था। हिन्दुस्तानी समुदाय के लोग कुछ खाना ले आते थे, अलग-अलग शहर के वालंटियर हमारा सामान लिए किसी गाड़ी में चलते थे, अलग-अलग घरों में रात में अमूमन फर्श पर चादर बिछाकर सो जाते थे, और सुबह-सुबह फिर निकल पड़ते थे।

अमरीका में हिन्दुस्तान की तरह की पदयात्रा मुमकिन नहीं थी क्योंकि वहां एक शहर से दूसरे शहर के बीच के हाईवे पर पैदल चलने की मनाही है, और 240 मील पूरा करने के लिए हम शहरों के भीतर गूगल-मैप से नापी गई दूरी तय करते थे ताकि कोई कमी न रह जाए। मेरे आयोजक दोस्त लगातार जनलोकपाल की बात करते थे, और हिन्दुस्तान में भ्रष्टाचार को खत्म करने के सपने देखते थे। दिलचस्प बात यह थी कि गांधी की तस्वीरों वाले टी-शर्ट, गांधी के बैनर लेकर चलने से अमरीका के भारतवंशियों के दो समुदाय इस दांडी मार्च के खिलाफ हर शहर पहुंचकर प्रदर्शन करते थे। इनमें से एक सिक्खों का संगठन था जिसका यह मानना था कि गांधी ही विभाजन के जिम्मेदार थे जिसकी वजह से लाखों लोग मारे गए थे, और वे गांधी का विरोध करने पूरे एक पखवाड़े सभी घोषित जगहों पर पहुंचकर प्रदर्शन करते रहे। दूसरा संगठन दलितों का था जो कि गांधी को दलित-विरोधी करार देता था, और वे लोग भी अपने झंडे-बैनर लेकर दांडी मार्च-2 के खिलाफ लगे रहते थे। वे गांधी को एक मनुवादी नस्लभेदी मानते थे।

मेरी दिलचस्पी अमरीकी सडक़ों पर एक पखवाड़े फोटोग्राफी की थी, लोगों से मिलने-जुलने की थी, और दांडी यात्रा जैसे ऐतिहासिक पैदल-सफर को दुहराने की थी। नतीजा यह हुआ कि हर दिन हौसला छोडऩे के बाद भी आत्मसम्मान उसे छोडऩे नहीं देता था, और मैं एक और दिन पैदल चल लेने की हिम्मत जुटाते चलता था। अमरीका की सैन डिएगो नाम की जगह से अमरीका के एक महान नेता डॉ. मार्टिन लूथर किंग की स्मृति में यह पदयात्रा शुरू हुई थी, और सान फ्रांसिस्को में 15 दिन बाद गांधी प्रतिमा पर खत्म हुई थी। जिन छह लोगों ने बिना रूके 240 मील पूरे किए थे, उनमें से मैं भी एक था। अब इस कॉलम की जगह पर उस पदयात्रा की और यादें लिखने की गुंजाइश नहीं है, लेकिन राहुल गांधी की होने जा रही इस पदयात्रा के मौके पर 11 बरस पहले की वह पदयात्रा याद आ गई, बस इतना ही।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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