संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : साथी पर निगरानी रखने का हक सिर्फ लडक़ों-मर्दों को?
15-Mar-2023 4:07 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : साथी पर निगरानी रखने का हक सिर्फ लडक़ों-मर्दों को?

हिन्दुस्तान की एक सबसे बड़ी समाचार वेबसाइट पर एक खबर की हैडिंग है- आपकी गर्लफ्रेंड वॉट्सऐप पर किससे करती है ज्यादा बातें? खुद वॉट्सऐप खोलता है राज, तरीका काफी आसान। इसके साथ की खबर तरीका बताती है कि बॉयफ्रेंड यह मालूम कर सकता है कि उसकी गर्लफ्रेंड सबसे ज्यादा किससे बातें करती हैं। हैडिंग इतनी सनसनीखेज है कि इसे पढऩे वाले लोगों में से तमाम मर्द और लडक़े इसलिए इसे पढ़ लेंगे कि अपनी जिंदगी की महिला या लडक़ी पर निगरानी कैसे रखी जाए, और हो सकता है कि महिलाएं और लड़कियां भी इसे जरूर पढ़ लें कि उनकी जिंदगी के लोग तांक-झांक किस तरह से कर सकते हैं, और उससे अगर बचना है, तो पहले उसके खतरे को तो समझना ही होगा। 

अब सवाल यह उठता है कि लाखों रूपये महीने तनख्वाह पाने वाले मीडियाकर्मियों की समझ अगर ऐसी है कि लड़कियों पर ही नजर रखने की जरूरत है, तो फिर हर दिन दसियों लाख लोगों की पढ़ी जाने वाली वेबसाइट का समाज पर ऐसा ही असर होगा। और यह कोई अनोखी बात नहीं है, समाज की पूरी की पूरी भाषा, उसकी पूरी सोच, उसकी समझ, और उसकी हरकतें महिलाओं के खिलाफ हैं। और दिक्कत की एक बात यह भी है कि महिलाओं के खिलाफ महज आदमी नहीं हैं, खुद महिलाएं भी हैं। पिछले एक-दो बरस में दसियों ऐसे वीडियो आए हैं जिनमें नशे या होश में लड़कियां और महिलाएं किसी गरीब चौकीदार या फंस गए लडक़े को पीट रही हैं, और उसे मां-बहन की गालियां दिए जा रही हैं। जिन लड़कियों और महिलाओं में हालात या टोली के चलते इतनी ताकत आ गई है कि वे सार्वजनिक जगहों पर मोबाइल फोन के वीडियो कैमरे के सामने भी जमकर मारपीट कर रही हैं, जमकर गालियां बक रही हैं, लेकिन उनकी गालियां मां-बहनों पर केन्द्रित हैं, उनके ताकतवर हो जाने से, आक्रामक और हमलावर हो जाने से गालियां बाप और भाई के खिलाफ नहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले किसी जगह कांग्रेस पार्टी ने किसी अफसर या मंत्री के खिलाफ प्रदर्शन किया तो कमजोरी और निकम्मेपन की तोहमत लगाते हुए उन्हें चूडिय़ां भेंट कीं। यह काम इंदिरा और सोनिया गांधी की पार्टी भी करती है, और वह पार्टी तो करती ही है जो कि सुबह उठते ही पहला नाम भारतमाता का लेती है, और भारतमाता को प्रणाम करने के बाद सोती है। यह देश जहां साल में दो बार नौ दिनों तक देवी की पूजा होती है, जहां पर स्कूलों में सभी धर्मों के बच्चे शायद सौ बरस से भी अधिक से सरस्वती की पूजा करते आए हैं, जहां पर बंगाल में मुस्लिम लोग बराबरी से दुर्गा पूजा में शामिल होते हैं, वहां भी देवी की पहनी जाने वाली चूडिय़ों को राजनीतिक प्रदर्शन में कमजोरी के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 

दरअसल हिन्दुस्तानियों की सोच महिलाओं को एक कमजोर तबका मानकर चलने की है, और ऐसी पुरूषवादी सोच की शिकार वे महिलाएं भी हो जाती हैं जो कि अपने आपको बराबरी का मानती हैं, समाज में जिनकी हालत बेहतर है, जिनके हाथ कुछ ताकत है, और जो मर्दों से आगे बढक़र निकलने की हसरत रखती हैं, वैसी महिलाएं भी मर्दानगी के प्रतीकों को ज्यों का त्यों इस्तेमाल करने लगती हैं, और गालियां बकते समय दूसरों की मां-बहन के साथ ऐसी हरकतों का जिक्र करने लगती हैं, जो कि एक महिला होने के नाते उनके लिए मुमकिन भी नहीं है। यह सिलसिला लोग बचपन से देखना शुरू करते हैं, तो यह मरने तक उनके साथ बने रहता है। और हिन्दुस्तानी समाज में गैरबराबरी तो इतनी अधिक है ही कि आज बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि हरियाणा के एक गांव में 75 साल बाद अब पहली बार लड़कियों को कॉलेज जाने की इजाजत मिली है। लडक़े पहले से कॉलेज जाते रहते थे, लेकिन रास्ते में उनकी बदमाशियों के चलते लड़कियां कॉलेज नहीं जा पाती थीं, और अब पहली बार एक बाहरी महिला की प्रेरणा से गांव के लोगों ने अपनी लड़कियों को कॉलेज जाने की इजाजत दी है। 

महिलाओं के साथ भेदभाव की सोच को कदम-कदम पर कुचलने की जरूरत है। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को ऐसे मौके भी मिलते हैं कि हिंसक मर्दानगी का विरोध किया जा सके। लोगों को भाषा, मुहावरों, मिसालों, और गालियों में औरतों पर हमले जहां दिखें, वहां उसका विरोध करना चाहिए। हिन्दुस्तानी संस्कृति और सोच में यह बात इतने गहरे पैठ चुकी है कि लोगों को अब इनमें कोई हिंसा या बेइंसाफी दिखती भी नहीं है। खुद महिलाएं विरोध-प्रदर्शन में चूडिय़ां भेंट करने निकल पड़ती हैं, और सडक़ की लड़ाई में दूसरों की मां-बहन एक करने लगती हैं। इसलिए न सिर्फ मर्दों की सोच को बदलने की जरूरत है, बल्कि औरतों को भी यह समझाने की जरूरत है कि वे अपने पूरे तबके के खिलाफ हिंसा और बेइंसाफी कर रही हैं। 

जब कभी भाषा बनी होगी, जाहिर है कि उस पर मर्दों का ही कब्जा रहा होगा, वे ही पहले पढऩे-लिखने वाले रहे होंगे, और उनका एकाधिकार उस पर रहा होगा। इसलिए समाज में लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ चली आ रही बेइंसाफी तमाम कहावतों और मुहावरों में अच्छी तरह दर्ज है। स्कूल की किताबों को देखें तो कमल को घर चलकर पढऩे को कहा जाता है, और विमला को नल पर जल भरने के लिए। बचपन से दिमाग में बैठी हुई यह गैरबराबरी आखिरी तक चलती ही रहती है, और मर्द मरने के बाद अपनी बेटियों के हाथ से जलाया या दफनाया जाना भी बर्दाश्त नहीं करते, और वहां भी बेटे न हों तो दूर के रिश्तेदार मर्दों को मौका मिल जाएगा, लेकिन बेटी या किसी महिला का मौका नहीं मिलेगा। आज इस मुद्दे पर हमारे लिखने का मकसद यही है कि एक प्रमुख वेबसाइट की एक खबर को लेकर चर्चा छेडऩे का मौका मिला है, तो इस पर लिखना हम अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। इस बहाने और कई पहलुओं पर बात हो गई, और लोगों के सोचने का कुछ सामान सामने रखना हो गया। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news