संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पौन फीसदी वोटों से पड़ा था राज्य में दस सीटों का फर्क, इसलिए वोट जरूर डालें...
19-Oct-2023 3:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पौन फीसदी वोटों से पड़ा था राज्य में दस सीटों का फर्क, इसलिए वोट जरूर डालें...

छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव सामने खड़े हैं। चुनाव कार्यक्रम आ चुका है, पार्टियों के उम्मीदवार घोषित होते चल रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जो मतदाता वोट डालने नहीं निकलते हैं, उनका क्या किया जाए? दुनिया के कुछ देशों में वोट डालने को अनिवार्य भी किया गया है ताकि नागरिकों अगर अधिकार चाहिए तो उन्हें कुछ जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए। लेकिन कई लोगों का यह भी मानना है कि वोट डालने की अनिवार्यता भी अलोकतांत्रिक होती है। लोगों के पास यह भी पसंद रहना चाहिए कि वे वोट न डालें। शायद ऐसी ही सोच के बाद भारत के वोट में नोटा नाम का एक प्रावधान जोड़ा गया था जिसका मतलब था, नन ऑफ द अबव, यानी इनमें से कोई नहीं। नोटा किसी बैलेट पेपर या ईवीएम मशीन पर सबसे आखिर में रहता है, और जो मतदाता पोलिंग बूथ तक पहुंचते हैं, लेकिन जिन्हें वहां जाकर कोई भी नाम पसंद नहीं आते, वे नोटा में वोट डाल सकते हैं। नोटा के विकल्प ने उन लोगों को पोलिंग बूथ तक जाने का उत्साह दिया जो हर उम्मीदवार और पार्टी से निराश हैं। यह इंतजाम कई और देशों की चुनाव प्रणाली में भी है, और यह लोगों को सबको खारिज करने के लिए भी मतदान केन्द्र तक जाने का उत्साह देता है जो कि चुनाव में शामिल होने के बराबर रहता है। 

अब हम यह देखें कि वोट डालने न जाने वाले लोगों से क्या फर्क पड़ता है। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ को देखें जहां 2003 से विधानसभा चुनाव शुरू हुए हैं, और अब तक चार चुनाव हो चुके हैं, यह पांचवां चुनाव होने जा रहा है। इस बीच दो सबसे प्रमुख दलों, कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फर्क दस फीसदी से लेकर 0.75 फीसदी तक रहा है। कभी सत्ता पर आने वाली पार्टी 10 फीसदी वोटों से आगे रही, तो कभी महज पौन फीसदी वोटों से। अब यह कल्पना करें कि 2013 में कुल पौन फीसदी के फर्क से भाजपा को 49 सीटें मिली थीं, और कांग्रेस को 39! कुल पौन फीसदी के फासले ने एक पार्टी को 10 सीटें दिलवाकर उसकी सरकार बनवा दी थी। अब अगर उस चुनाव में कांग्रेस को भाजपा से एक फीसदी वोट अधिक मिले रहते, तो हो सकता है कि उसकी सरकार बन गई होती। 2013 के छत्तीसगढ़ के आंकड़े देखें तो ऐसा भी नहीं था कि कांग्रेस या भाजपा के वोट नहीं बढ़े थे। दोनों ही पार्टियों के वोट अपने पिछले चुनावों के वोट से बढ़े थे, उसके बावजूद पौन फीसदी आगे रहकर भाजपा 10 सीटें ज्यादा पाकर सरकार बनाने वाली साबित हुई। जबकि इस चुनाव में पहले के मुकाबले 6.79 फीसदी वोट अधिक गिरे थे, और छत्तीसगढ़ के चार चुनावों का रिकॉर्ड मतदान, 77.45 फीसदी उसी चुनाव में हुआ था।

किसी खास पार्टी के नफे और नुकसान से परे जब यह देखें कि एक फीसदी के फासले से किस तरह दस सीटों का अंतर हो सकता है, और कई प्रदेशों में तो एक-दो सीटों के फासले से भी सरकारें बनती हैं, या बनने से रह जाती हैं। मतलब यह कि किसी पार्टी के वोटर अगर सौ के बजाय 101 रहते, तो हो सकता है वह पांच बरस विपक्ष के बजाय पांच बरस सत्ता पर रहती। यह तो बात हुई पार्टियों के नजरिए से इन आंकड़ों को देखने की। लेकिन इससे परे जनता की नजर से भी इन्हें देखने की जरूरत है। वह यह है कि कई सीटों पर चार-पांच सौ वोटों से भी विधायक जीत या हार जाते हैं, कभी-कभी यह आंकड़ा सौ-पचास से नीचे भी चले जाता है। और अगर ऐसे में वहां पर कोई दुष्ट या भ्रष्ट जीत जाए, तो उसके लिए घर बैठे हुए वे कुछ सौ वोटर जिम्मेदार रहते हैं जो अगर वोट डालने गए रहते तो हो सकता है कि तस्वीर बदल गई रहती। 

आज राजनीतिक दलों के तमाम चुनाव सर्वे और विश्लेषण देखें, तो वे पूरी तरह पिछले कुछ चुनावों के आंकड़ों को लेकर किए जाते हैं। अब अगर छत्तीसगढ़ के 2013 के आंकड़ों को 2018 के विधानसभा चुनाव से मिलाकर देखें, तो कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फर्क 10 फीसदी हो गया था, और सीटें कांग्रेस की 68, और भाजपा की 15 रह गई थी। इस चुनाव में पिछले चुनाव के मुकाबले करीब आधा फीसदी कम मतदान हुआ था, लेकिन दोनों पार्टियों के बीच वोटों का फर्क जमीन-आसमान जैसा हो गया था। अब इस बात को देखा जाए कि 77 फीसदी से कम वोटों के बाद भी 20 फीसदी से अधिक तो ऐसे वोटर थे ही जो कि जिंदा होंगे, चुनाव क्षेत्र में होंगे, और वोट डालने नहीं गए। अगर वे भी गए होते तो छत्तीसगढ़ के इन दोनों चुनावों, खासकर 2013, और 2018 का भी, नतीजा कुछ का कुछ हो सकता था। 10 फीसदी का फर्क तो शायद नहीं पटता, लेकिन 2013 का पौन फीसदी का फर्क तो बिल्कुल गायब हो सकता था। 

इसलिए घर बैठे आलसी, लापरवाह, गैरजिम्मेदार वोटरों को यह सोचना चाहिए कि अगर उनके इलाके से गलत और बुरे सांसद, विधायक, महापौर-पार्षद, सरपंच-पंच चुने जाते हैं, तो वे घर बैठे रहने के नाते इस बर्बादी के जिम्मेदार रहते हैं। आज ही यह कल्पना करें कि 2013 के चुनाव में अगर 10 फीसदी और लोग निकलकर वोट डालते, तो न सिर्फ सरकार कोई और बन सकती थी, बल्कि नेताओं और पार्टियों के होश उड़ गए रहते। अभी 2023 के चुनाव में भी अगर 20 फीसदी से अधिक वोटर हाथ-पैर चलते हुए भी, घर बैठे हुए भी अगर वोट डालने नहीं जाते हैं, तो उन्हीं के सरीखे मुर्दों की वजह से यह लोकतंत्र मरघट और कब्रिस्तान में तब्दील हो रहा है। हिन्दुस्तान में वोट डालना अकेला ऐसा काम है जो कि महंगाई से बेअसर है, जिस पर कोई जीएसटी नहीं है, मनोरंजन तो है पर कोई मनोरंजन टैक्स भी नहीं है, जिसके लिए इलाके के बड़े-बड़े नेता हाथजोड़े गिड़गिड़ाते खड़े रहते हैं, और गरीब से गरीब आम वोटर भी शान के साथ जाकर करोड़पतियों के साथ कतार में लगकर वोट डाल सकते हैं। अपने इलाके, प्रदेश और देश के भविष्य को तय करने का जो बड़ा मौका लोकतंत्र लोगों के हाथ देता है, उसकी अहमियत खासी बड़ी है। हिन्दुस्तान में यही अकेला ऐसा हक है जो जेंडर, जाति, धर्म, संपन्नता या विपन्नता, इन सबसे पूरी तरह आजाद है। आज देश में यही एक हक सबसे गरीब और सबसे कमजोर तबके को भी सबसे अमीर और सबसे मजबूत तबके के बराबर हासिल है। ऐसे में जो कोई भी इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं, वे लोहिया के शब्दों में मुर्दा लोगों से भी गए-गुजरे हैं, क्योंकि लोहिया का कहना था कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करती। हिन्दुस्तान के गैरजिम्मेदार घर बैठे वोटर तो ऐसे कई पांच बरस निकाल देते हैं, इसलिए वे मुर्दों से भी गए-गुजरे हैं। लोगों को लोकतंत्र में अपने जिंदा रहने का सुबूत देना चाहिए, और वोट डालने जरूर जाना चाहिए। लोगों को अपने आसपास के लोगों को भी तैयार करना चाहिए, और दोपहर-शाम तक किसी काम में फंसने के बजाय सुबह-सुबह किसी बुरे को निपटाने के इरादे से, या किसी भले को बनाने के हिसाब से वोट डालने चले जाना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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