संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दिल्ली की हवा का जहर बाकी देश के लिए भी एक चेतावनी बनने की जरूरत
29-Oct-2023 3:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दिल्ली की हवा का जहर बाकी देश के लिए भी एक चेतावनी बनने की जरूरत

अभी दीवाली दूर है, और दिल्ली की हवा में प्रदूषण बहुत खराब केटेगरी तक पहुंच गया है। चारों तरफ धुंध छाई है, धुआं सा दिख रहा है, और सुबह की सैर पर निकले लोग भी मास्क लगाए हुए हैं। जैसा कि हर बरस होता है दीवाली पर फटाके जलाने को लोग अपना धार्मिक विशेषाधिकार मान लेते हैं, और इस पर रोक को हिन्दू धर्म पर हमला करार देते हैं। कोई भी अदालत, या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल धार्मिक भावनाओं के ऊपर वैज्ञानिक समझ लागू नहीं कर पाती हैं। नतीजा यह होता है कि भारत में चीन से अरब के रास्ते आने वाले बारूद और फटाकों को लोग हिन्दू धर्म से जोडक़र उसे जलाना एक धार्मिक रिवाज मानते हैं, और इस पर किसी भी रोक की बात से भडक़ उठते हैं। इस तरह एक और हिन्दुस्तानी त्यौहार प्रदूषण को अंधाधुंध बढ़ाने वाला, और जानलेवा हो रहा है। दीवाली के आसपास दिल्ली जैसे शहर के प्रदूषण में लाशें गिरती तो नहीं हैं, लेकिन फेंफड़े खोखले हो जाते हैं, और हर बरस हिन्दुस्तान में लाखों मौतें हो रही हैं, 2019 में ही भारत में वायु प्रदूषण से 16 लाख 70 हजार मौतों का वैज्ञानिक अनुमान है। और चूंकि वे भोपाल गैस त्रासदी की तरह एक दिन में एक जगह पर नहीं होती हैं, इसलिए उनकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता है।

अब हिन्दुस्तान में वायु प्रदूषण को लेकर जनता के बीच जागरूकता की जरूरत तो दीवाली जैसे मौकों पर अधिक दिखती है, लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो सरकार पर आती है क्योंकि पटाकों का बनना और बिकना उसके हाथ में होता है, कारखानों से प्रदूषण, कोयले से बिजली, निर्माण कार्य का प्रदूषण, खेतों में ठूंठ का जलाना, और जगह-जगह कचरा जलाना, इन सबको रोकने की जिम्मेदारी सरकार पर आती है। दूसरी तरफ दिल्ली जैसे महानगर में सार्वजनिक यातायात का इंतजाम करना भी सरकारों का ही जिम्मा रहता है, और जब इसकी कमी होती है, तभी लोग निजी गाडिय़ों पर अधिक निर्भर करते हैं। न सिर्फ महानगर, बल्कि अब तो छोटे-छोटे शहरों में भी बस, मेट्रो, या किसी और किस्म का सार्वजनिक परिवहन बढ़ाने की जरूरत है ताकि लोग निजी गाडिय़ों की तरफ कम से कम जाएं। लोग एक बार अपनी गाडिय़ों पर चलना शुरू कर देते हैं, तो फिर उनका सार्वजनिक परिवहन की तरफ जाना कुछ मुश्किल हो जाता है। लोगों को यह भी समझना चाहिए कि वे अपने घर-दफ्तर को कुछ हद तक तो वायु प्रदूषण से बचा सकते हैं, लेकिन हर किसी को बाहर तो निकलना ही होता है, और सार्वजनिक जगहों पर कुछ मिनटों में ही कुछ शहरों में लोग ऐसी हवा लेते हैं कि मानो उन्होंने सिगरेट पी ली हो। जब नुकसान का ऐसा हाल रहता है, तो फिर यह नुकसान पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है। 

आज हिन्दुस्तान जैसे देश में एक सीमित तबके की संपन्नता लगातार बढ़ते जाने की वजह से उसकी ईंधन की खपत अंधाधुंध बढ़ रही है। बिजली से लेकर पेट्रोल-डीजल तक संपन्न तबका अंधाधुंध इस्तेमाल करता है क्योंकि वह उसका खर्च उठा सकता है। और सरकारों को लगता है कि जितनी भी बिजली की खपत हो रही है, उससे अधिक बिजली बनाना उसकी जिम्मेदारी है। यह बाजार की तरह डिमांड और सप्लाई का कारोबार हो गया है, और सरकारें इस बात को नहीं देख रहीं कि लोगों की एयर कंडीशनिंग की जरूरतें कम कैसे हो सकती हैं, किस तरह निजी गाडिय़ों के पेट्रोल और डीजल को बचाया जा सकता है, और कम ईंधन पर मेट्रो और बस चलाई जा सकती हैं। सरकारें यह भी नहीं देखती हैं कि भवन निर्माण में, इंजीनियरिंग की डिजाइनों में, पैकिंग मटेरियल में किस तरह की किफायत की जा सकती है, ताकि धरती पर कार्बन बनना कम हो, और प्रदूषण कम हो। इन सबके लिए एक कल्पनाशीलता की जरूरत होती है, और धरती के लिए एक ऐसी संवेदना की जरूरत रहती है जो कि पांच-पांच बरस के चुनावी कार्यकाल में बांटकर नहीं देखी जा सकती। दरअसल सरकार और कारोबार, इनका चाल-चलन और मिजाज ऐसा रहता है कि वह धरती को बर्बाद करने और कानूनी-गैरकानूनी कमाऊ धंधों को आबाद करने में दिलचस्पी रखता है। दरअसल देश में जब ग्रीन ट्रिब्यूनल बनाया गया था, तो उसके पीछे सोच यही थी कि कानूनी मामलों के बोझ से लदी हुई अदालतों से निकालकर पर्यावरण से जुड़े मामलों को एक ऐसे ट्रिब्यूनल में ले जाया जाए जहां पर्यावरण और प्रदूषण जैसे मुद्दे ही रहें, वही प्राथमिकता रहे, और उनकी बेहतर समझ रहे। लेकिन भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों ने लगातार पेशेवर मुजरिमों के अंदाज में ग्रीन ट्रिब्यूनल सरीखी पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी दूसरी संवैधानिक संस्थाओं को भी बेवकूफ बनाना जारी रखा, और आज हालत यह है कि हर शहर कांक्रीट का जंगल बन गया है, जंगल घटते चले गए हैं, लोगों को पितृपक्ष पर अपने पुरखों को खाना खिलाने के लिए कौव्वे नसीब होना भी बंद हो गया है। आज लोग अगर चाहें तो भी अपने बच्चों को गौरैय्या नहीं दिखा सकते हैं। 

हम फिर से शहरों में जहरीली होती हवा की तरफ लौटें, तो दुनिया के अलग-अलग देश अपनी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश कर रहे हैं, और सबसे संपन्न देश अपनी खपत को किसी भी तरह घटाने में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। दिल्ली का वायु प्रदूषण तो दिल्ली शहर और पंजाब के खेतों से पैदा हुआ दिखता है, लेकिन सरकारों के हाथ में इसे काबू में रखना और घटाना था, है, लेकिन सरकारें अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से नहीं निभा रही हैं। इस बारे में लोगों को भी सरकारों पर दबाव बनाना पड़ेगा, वरना लोग अपने बच्चों के लिए घर-दुकान तो छोड़ जाएंगे, लेकिन उनके फेंफड़ों को खोखला करने वाली जहरीली हवा के बीच ही वह जायदाद रहेगी। लोगों को आज अपनी खुद की जिंदगी चाहे प्यारी न हो, लेकिन आने वाली पीढिय़ों से तो इतनी मोहब्बत करनी चाहिए कि उनके लिए जहर छोडक़र न जाएं। यह देश पूरी दुनिया में कामयाब इंजीनियर और मैनेजर देता है, लेकिन पता नहीं क्योंकि आईआईटी और आईआईएम से निकली काबिलीयत का इस देश की सरकारों और स्थानीय संस्थाओं में इस्तेमाल नहीं दिखता है क्योंकि यहां नेता ही हर हुनर में हरफनमौला की तरह तमाम फैसले लेते हैं। यही वजह है कि देश में कुछ भी सुधरते हुए नहीं दिखता है। 

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