संपादकीय
![‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सीमा से सौ-सौ गुना खर्च भी नहीं दिखता चुनाव आयोग को? ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सीमा से सौ-सौ गुना खर्च भी नहीं दिखता चुनाव आयोग को?](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/1698750181lection_commesion_Of_India_(1).jpg)
हिन्दुस्तान का चुनाव आयोग एक वक्त टी.एन.शेषन की मेहरबानी से देश की एक सबसे ताकतवर संवैधानिक संस्था बना था, और ऐसा लगता है कि उस साख को बाद में लगातार खोते चले गया। अब तो नए चुनाव आयुक्त बनाने के लिए जो तरीका केन्द्र सरकार ने बनाया है उससे आयोग सरकार के ही एक विभाग की तरह होकर रह जाएगा। आज भी चुनाव आयोग के सामने अलग-अलग पार्टियों की तरफ से जो शिकायतें जा रही हैं, उन्हें मानो पार्टी का चेहरा देखकर सही या गलत ठहराया जा रहा है। जिस तरह आज देश और दुनिया में किसी लाश का मजहब जानने के बाद ही उस पर आंसू बहाए जाते हैं, या उसे अनदेखा किया जाता है, ठीक उसी तरह चुनाव आयोग अलग-अलग पार्टियों या नेताओं के चेहरे देखकर कार्रवाई करते दिखता है। लेकिन आज हमारा लिखने का मकसद आयोग की आलोचना से कुछ अधिक भी है।
चुनावों में जिन सीटों पर सीमा से बहुत अधिक खर्च की आशंका रहती है, वहां पर आयोग निगरानी रखने के लिए अलग से ऑब्जर्वर तैनात करता है जो कि आमतौर पर भारतीय राजस्व सेवा, या कस्टम जैसे विभागों से आए रहते हैं, और जो खर्च का हिसाब बेहतर निकाल सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद जो उम्मीदवार अंधाधुंध खर्च के लिए जाने जाते हैं, जहां सीमा से सौ-सौ गुना खर्च होता है, वैसी सीटें पहले से सबको पता रहती है, और यह भी पता रहता है कि कौन से उम्मीदवार ऐसा खर्च करेंगे। लेकिन ऐसा खर्च भी आयोग के इन खास पर्यवेक्षकों को या तो दिखता नहीं है, या वे उस पर हाथ नहीं डाल पाते। यह एक बड़ी वजह है कि भारतीय चुनाव लोकतांत्रिक क्यों नहीं रह पाते, और क्यों सबसे संपन्न उम्मीदवारों की जीत की संभावना सबसे अधिक रहती है। सच तो यह है कि पार्टियां भी अब किसी को उम्मीदवार बनाते हुए यह तौलती हैं कि वे चुनाव में खर्च कितना कर पाएंगे? और इस खर्च का मैनेजमेंट करने की उनकी क्षमता है या नहीं? इस तरह भारतीय संसद और विधानसभाओं में धीरे-धीरे अतिसंपन्न लोग भरते चले जा रहे हैं। यह एक अलग बात है कि अगर कुछ मामूली लोग भी वहां पहुंच जाते हैं, तो भी वे एक कार्यकाल खत्म होते-होते खासे संपन्न हो जाते हैं।
जब चुनाव की उम्मीदवारी पाने में संपन्न की संभावना अधिक हो, और उस संपन्नता से वोट पाने की संभावना अधिक हो, तो फिर लोकतंत्र के जिंदा रहने की संभावना रह कहां जाती है। और अगर खर्च से परे की बातों को भी देखें, तो कई पार्टियां और उम्मीदवार, या उनके स्टार-प्रचारक जिस तरह की नफरती, हिंसक, साम्प्रदायिक बातें करते हैं, उससे भी जाहिर है कि लोगों को लोकतांत्रिक फैसला नहीं लेने दिया जा रहा है, और उनको ऐसे अलोकतांत्रिक और हिंसक असर का शिकार बनाकर उनके वोटों का ध्रुवीकरण किया जा रहा है। धर्म और जाति का जितना खुलकर इस्तेमाल हिन्दुस्तानी चुनाव में हो रहा है, वह अपने आपमें चुनावों के मकसद को खत्म कर रहा है। लोगों को चुनाव में भेड़ों की रेवड़ की तरह एक ही खड्ड में गिराने के लिए नेता और उनकी पार्टियां धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण में लगी रहती हैं, और लोगों की लोकतांत्रिक समझ खत्म करने में भी। इसलिए कि जिनकी लोकतांत्रिक समझ रहेगी, वे अपने वोट बेचेंगे नहीं, या धर्म और जाति की नफरत के आधार पर नहीं देंगे।
अपने आसपास हम देखते हैं तो लगता है कि कोई पार्टी या उम्मीदवार जितने वोटों से जीतते हैं, उससे कई गुना अधिक वोट कालेधन, या साम्प्रदायिकता की बदनीयत के झांसे में आए रहते हैं। ऐसा लगता है कि जीत हासिल नहीं की जाती, खरीदी जाती है, या हिंसक भडक़ावे से पाई जाती है। जब हार-जीत का फासला देखें तो लगता है कि उससे कई गुना अधिक बिके हुए वोट, और साम्प्रदायिक वोट रहते हैं, जो कि यह साबित करते हैं कि जीत और हार किसी भी कोने से लोकतांत्रिक नहीं है। ऐसा लगता है कि बिना हिंसा के एक मशीनी मतदान करवा देने को ही लोकतांत्रिक चुनाव मान लिया गया है, जबकि यह चुनाव न होकर सिर्फ मतदान है। चुनाव तो तब हो सकता है जब लोगों को खरीद-बिक्री करने न मिले, भडक़ाने न मिले, हिंसा और नफरत की बातें करने न मिले। लेकिन हिन्दुस्तानी चुनाव अब इन तमाम चीजों की गिरफ्त में आ गए हैं। पार्टियों के पास सैकड़ों करोड़ रूपए हैं, और अभी जब सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में मामला पहुंचा, तो केन्द्र सरकार ने वहां कहा कि राजनीतिक दलों को चुनावी बॉंड से जो दान मिलता है, उसके बारे में कोई भी जानकारी पाने का जनता को हक नहीं है। यह किस किस्म की पारदर्शिता है? ऐसे लुके-छिपे काम में तो सरकार से अपना काम निकलवाने वाले लोग सत्तारूढ़ पार्टी को दलाली, कमीशन, या रिश्वत देने के लिए उस पार्टी के बॉंड खरीद लेंगे, और जनता को यह पता भी नहीं लगेगा कि यह रकम किस एवज में दी गई है। हम यह उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट केन्द्र सरकार के इस रूख के पीछे की बेईमानी और खतरों को समझेगा, और राजनीतिक दान को सौ फीसदी पारदर्शी बनाएगा। कारोबारियों से लिए जाने वाले चंदे के बारे में जनता को जानने का हक क्यों नहीं होना चाहिए जबकि सत्ता या विपक्ष में बैठी पार्टियां ऐसे कारोबारियों के गलत धंधों को बचाने के लिए गिरोहबंदी भी कर लेती हैं।
चुनावों में पार्टियों और उम्मीदवारों के अंधाधुंध खर्च पर रोक लगाने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति वाले चुनाव आयोग और पर्यवेक्षकों की जरूरत रहती है। इन लोगों को सत्तारूढ़ या सत्ता पर आने की संभावना वाली पार्टियों के आतंक से आजाद भी रहना चाहिए। आज पैसे वाले नेता, और पार्टियां जितने बेधडक़ होकर चुनाव कानून तोड़ते हैं, अंधाधुंध खर्च करते हैं, वह सिलसिला खत्म होना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)