संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट के एक जज कल वकीलों पर इस बात को लेकर खफा हुए कि अदालत के मना करने के बाद भी वकील जजों को ‘माई लॉर्डस्’ और ‘योर लॉर्डशिप्स’ जैसे अंग्रेज राज के सामंती शब्दों से संबोधित करते हैं। उन्होंने भडक़कर एक सीनियर वकील को कहा- आप कितनी बार माई लॉर्डस् कहेंगे? अगर आप यह कहना बंद कर देंगे तो मैं आपको अपनी आधी तनख्वाह दे दूंगा। जज पी.एस.नरसिम्हा ने सुनवाई के दौरान कहा आप इसके बजाय ‘सर’ का उपयोग क्यों नहीं करते? उल्लेखनीय है कि बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने 2006 में एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें निर्णय लिया गया था कि कोई भी वकील ‘माई लॉर्डस्’ और ‘योर लॉर्डशिप्स’ जैसे संबोधन का इस्तेमाल नहीं करेंगे, लेकिन वकील इस पर टिके नहीं रहे, और कभी इसका इस्तेमाल बंद नहीं हुआ। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम अदालती या सरकारी कामकाज में ऐसे तमाम सामंती प्रतीकों के खिलाफ लगातार लिखते आए हैं। एक वक्त था जब राष्ट्रपति और राज्यपालों को महामहिम कहा जाता था। इसके बाद प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति रहते हुए 2012 में औपनिवेशिक काल के प्रतीकों, हिज एक्सीलेंसी, या महामहिम जैसे संबोधनों और आदर्श सूचक शब्दों का इस्तेमाल बंद करवा दिया था। और उसकी राष्ट्रपति महोदय जैसे साधारण शब्द लागू करवाए थे। इसके अलावा उन्होंने यह भी किया था कि राष्ट्रपति की मौजूदगी वाले समारोह यथासंभव राष्ट्रपति भवन परिसर में ही किए जाएं ताकि पुलिस और दूसरी एजेंसियों पर बोझ न पड़े, और जनता को दिक्कत न हो। उस वक्त भी हमने इस फैसले की तारीफ में लिखा था, और तुरंत ही देश के सभी राज्यपालों ने राष्ट्रपति के इस फैसले पर अमल शुरू कर दिया था।
कुछ तो हिन्दुस्तानियों को पांव छूने का शौक रहता है, और कुछ पांवों को अपने आपको छुआने में भी मजा आता है। फिर जब आपसी संपर्क और संबंध चापलूसी के दर्जे के हों, तो फिर यह सिलसिला बढ़ते ही चलता है। हिन्दुस्तान में राष्ट्रपति और राज्यपाल तो दूर रहे, कई प्रदेशों में कलेक्टरों के कार्यालय सहायक (चपरासी) भी अलग किस्म की वर्दी पहनते हैं ताकि वे अपने साहब की अतिरिक्त ताकत के प्रतीक बने रहें। अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में नामांकन हुए हैं, और नामांकन लेने वाले अधिकारी अलग ऊंचे मंच पर बैठे रहते हैं, और अदालत के जजों की तरह वे सामने खड़े हुए लोगों से कागज लेते हैं। सामने खड़े हुए लोग मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, और विधायक जैसे निर्वाचित लोग भी रहते हैं, और दूसरे उम्मीदवार भी। अब इस बात का क्या तर्क हो सकता है कि लोकतंत्र में चुनाव लडऩे और जनप्रतिनिधि बनने के लिए जो लोग आ रहे हैं, उनको सामने ऐसे खड़ा रखा जाए? अगर आ रहे सभी लोगों से बराबरी का बर्ताव रखना है, तो भी नामांकन के कागज लेने वाले अफसर को हर उम्मीदवार के लिए उठकर खड़ा होना चाहिए, और सामने बैठने को कुर्सियां देनी चाहिए। यह एक अलग किस्म का प्रशासनिक अहंकार है जो कि जनप्रतिनिधियों को सामने खड़ा रखकर संतुष्ट होता है। निष्पक्षता और बराबरी का आसान तरीका भी हो सकता है कि हर उम्मीदवार और उसके प्रस्तावक-समर्थक को बैठने को कुर्सियां दी जाएं।
भारत कहने को तो लोकतांत्रिक है, लेकिन यहां पर छोटे-छोटे ओहदों पर बैठे हुए लोग भी अपने बड़े-बड़े अहंकारों को ढोकर चलते हैं। बड़ी अदालतों के जिन जजों को लोकतंत्र में बराबरी कायम करना चाहिए, वे भी अपने खुद के लिए खास सहूलियतें जुटाते हुए अपने को औरों से महान साबित करते रहते हैं। अभी कुछ अरसा पहले एक ट्रेन में हाईकोर्ट के एक जज को ठीक से खाना नहीं मिला, तो उन्होंने अगले दिन जज की हैसियत से रेलवे के अफसरों को नोटिस देकर बुलवा लिया। इस खबर को पढक़र सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने बड़ी कड़ाई से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के तमाम जजों को चिट्ठी लिखी कि जजों को प्रोटोकॉल के शिष्टाचार के तहत मिलने वाली सहूलियतों को अपना हक नहीं मान लेना चाहिए, और इनका इस तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए कि दूसरों को दिक्कत हो, और न्यायपालिका के लिए जनता के मन में हिकारत पैदा हो। मुख्य न्यायाधीश ने यह भी लिखा कि शिष्टाचार के तहत मिलने वाली सहूलियतों को विशेषाधिकार मानकर उनके हक का दावा करना उन्हें समाज से अलग कर देता है, या एक अलग किस्म की सत्ता का प्रतीक बना देता है।
हम हमेशा यह लिखते आए हैं कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजों को किसी राज्य में सडक़ के रास्ते आने-जाने पर पुलिस वहां खास इंतजाम करती है, और जज की कार के आगे पायलट गाड़ी चलती है, आगे के थानों को खबर की जाती है, और आम जनता को सडक़ से किनारे किया जाता है, ताकि जज बिना बाधा के रफ्तार से निकल सकें। यह सिलसिला बहुत भयानक रहता है। सत्ता का अश्लील और हिंसक प्रदर्शन करने वाले जज तो कई बार, या अक्सर ही ऐसा करते हैं, लेकिन जजों को ऐसे शक्ति-प्रदर्शन या अहंकार-प्रदर्शन से बचना चाहिए। वे रास्ते का आधा-एक घंटा बचाकर न तो किसी को फांसी देने जा रहे हैं, और न ही किसी की फांसी रोकने। ऐसे में आम जनता के मन में हीनभावना और हिकारत दोनों साथ-साथ पैदा करते हुए जज भला क्या हासिल करते होंगे? हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ को कुछ महीने पहले की अपनी चिट्ठी का और विस्तार करना चाहिए, और जजों की सामंती सोच, या वकीलों के चापलूसी के अंदाज को खत्म करना चाहिए। अब आजादी मिले भी पौन सदी हो चुकी है, और इस लोकतंत्र को अंग्रेजों के छोड़े पखाने का टोकरा सिर पर नहीं ढोना चाहिए। वैसे भी भारत में सिर पर पखाना ढोना जुर्म करार दिया जा चुका है।