संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सार्वजनिक जगहों पर मनमानी अराजकता के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट..
21-Nov-2023 3:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सार्वजनिक जगहों पर  मनमानी अराजकता के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट..

सुप्रीम कोर्ट में अभी एक दिलचस्प मामला सामने आया जिसमें एक याचिका लगाई गई थी कि हाईवे पर जो लोग पैदल टहलने जाते हैं, उनकी सुरक्षा का इंतजाम ठीक से करना चाहिए। अदालत ने इसमें एकदम ही आलोचनात्मक रवैया अपनाते हुए यह साफ कर दिया कि लोगों को राजमार्ग पर घूमना नहीं चाहिए। यह मामला गुजरात हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील का था जिसमें हाईकोर्ट ने कहा था कि हाईवे पर पैदल चलने वालों की हिफाजत पर वह सरकार को कोई आदेश नहीं दे सकता, और लोगों को केन्द्र सरकार के राजमार्ग मंत्रालय से संपर्क करना चाहिए। हाईकोर्ट के खिलाफ याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो सुप्रीम कोर्ट ने वकील से सवाल किया कि पैदल लोग हाईवे पर कैसे आते हैं? जजों ने यह भी कहा कि ये सडक़ हादसे तब तक होते रहेंगे जब तक पैदल चलने वाले लोग उन जगहों पर मिलेंगे जहां उन्हें नहीं होना चाहिए। अदालत ने कहा कि हाईवे का मतलब यही होता है कि वह साधारण रास्ते से अलग है, और लोगों को वहां नहीं घूमना चाहिए। अदालत ने कहा कि अगर लोग ऐसे नियम तोड़ते हैं तो अदालत कैसे कह सकती है कि वे नियम तोड़ सकते हैं। दो जजों की बेंच ने कहा कि दुनिया में कहीं भी लोग हाईवे पर ऐसे पैदल नहीं घूमते। जजों का रूख था कि यह पूरी तर्कहीन पिटीशन है, और इसे जुर्माने के साथ खारिज करना चाहिए था। अदालत ने वकील को याद दिलाया कि अभी इस पर जुर्माना लगा नहीं है। 

हम इस मामले को एक नमूना मानकर हिन्दुस्तान के लोगों की सोच और यहां की जिंदगी में रग-रग में बसी हुई अराजकता की बात करना चाहते हैं। लोग ट्रैफिक के नियम मानना नहीं चाहते, जबकि उनकी अराजकता से दूसरों की जिंदगी खतरे में पड़ती है। वे अगर सिर्फ अपनी जिंदगी किसी निजी जगह पर खतरे में डालें, तो आत्महत्या की कोशिश अब अपराध नहीं रह गई है, उनकी खुदकुशी की हसरत हो तो वो किसी निजी जगह पर इसे पूरा करें, लेकिन सार्वजनिक जगहों पर, ट्रैफिक की जगहों पर दूसरों की जिंदगी को खतरे में डालने का हक किसी को भी नहीं है। इसलिए गुजरात हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के इस रूख से हम सहमत हैं। अदालत की यह बात भी सही है कि दुनिया में कहीं भी लोगों को इस तरह की छूट नहीं मिलती है कि वे हाईवे पर पैदल चलें। अब हिन्दुस्तान के साथ एक दिक्कत यह आ सकती है कि यहां कई किस्म की तीर्थयात्राओं में लोग पैदल चलते हैं, और यह सवाल उठ सकता है कि ऐसे लोगों का क्या होगा? लेकिन दूसरा सवाल यह भी उठता है कि जब जानवरों को बचाते हुए गाडिय़ां पैदल लोगों को कुचल देती हैं, तो पैदल लोगों को बचाते हुए गाडिय़ों के और भी किस्म के एक्सीडेंट हो सकते हैं। यह बात भी पूरी तरह साफ है कि हिन्दुस्तान में धर्म के नाम पर, या राजनीतिक प्रदर्शन के नाम पर, किसी और किस्म के हिंसक आंदोलन के तहत सडक़ों पर कई तरह के उत्पात होते हैं, और इनमें बहुत सी मौतें भी होती हैं। इसलिए जहां सार्वजनिक सुरक्षा की बात आती है, वहां पर निजी या किसी गिरोहबंदी की अराजकता को खत्म किया ही जाना चाहिए। 

कल के दिन अगर लोग ट्रेन की पटरियों पर पखाना करने को अपना हक मान लेंगे, और ट्रेन से कटने पर मुआवजा मांगेंगे, तो क्या उस मांग को सही माना जाए? जो लोग सडक़ों के डिवाइडर फलांगकर आर-पार आते-जाते हैं, वे किस तरह की सुरक्षा के हकदार बनाए जा सकते हैं? न सिर्फ लोकतंत्र में बल्कि किसी भी तरह के तंत्र में सार्वजनिक सहूलियतें कहीं न कहीं निजी मनमानी को काबू करके ही दी जा सकती हैं। कल को लोग ट्रेन और बसों में थूकने या मूतने को लेकर अदालत तक दौड़ लगाएं, और यह साबित करने की कोशिश करें कि उनके लिए उस पल यह बात उसी जगह जरूरी थी, तो फिर बाकी लोगों के हक का क्या होगा? क्या बाकी लोग किसी की पीक या पेशाब पर बैठकर सफर करेंगे? सुप्रीम कोर्ट को इस पिटीशन पर जुर्माना लगाना ही था क्योंकि यह नियमोंं को तोडऩे और अराजकता को बढ़ाने की नीयत रखती है। इसमें किसी की जिंदगी में आ रही दिक्कत को कम करने की कोशिश नहीं थी। 

भारत वैसे भी सार्वजनिक जगहों पर निजी लोगों के हक को दूसरों के प्रति जिम्मेदारी से अलग करके चलने वाला देश है। यहां पर अपने हक का दावा किसी भी दूसरे के हक के ऊपर रखा जाता है, और सार्वजनिक जीवन की तमीज यहां लोगों को छू भी नहीं गई है। यह देश बहुत ही असभ्य समाज है, और लोगों का हर तरफ थूकना, हर कोने पर मूतना इस देश को बाकी दुनिया के सभ्य देशों के मुकाबले बहुत ही कमजोर ठहराता है। हिन्दुस्तानियों में सामूहिक और सार्वजनिक जिम्मेदारी की भावना छू भी नहीं गई है। लोग सडक़ों सहित तमाम किस्म की सार्वजनिक जगहों का पूरी तरह नाजायज इस्तेमाल करने को अपना हक मानते हैं, और प्रदेशों में शासन या शहर-कस्बे में प्रशासन की भी इतनी हिम्मत नहीं पड़ती कि ऐसे आदतन अराजक लोगों पर कोई कार्रवाई की जा सके। आज सिर और कंधे के बीच मोबाइल दबाए हुए तिरछे सिर सहित दुपहिया चलाने वाले लोग खतरा बने रहते हैं, लेकिन उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं होती। यह सारा सिलसिला खत्म किया जाना चाहिए। और हिन्दुस्तानी लोग जब दुनिया के सभ्य देशों में जाते हैं तो वहां महंगा जुर्माना देते ही एकदम से तमीज वाले बन जाते हैं। हिन्दुस्तान में भी जुर्माना इतना बढ़ाना चाहिए कि उसे पटा देने का आज का अहंकार खत्म किया जाना चाहिए। और चूंकि सुप्रीम कोर्ट हर छोटी-छोटी बात में फैसले नहीं दे सकता, इसलिए सरकार और समाज को ही जिम्मेदारी दिखानी चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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