संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनाव और लोकतंत्र पर नजर डालने पर निराशा
24-Nov-2023 3:52 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनाव और लोकतंत्र पर नजर डालने पर निराशा

photo : facebook

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जहर घोलने के अभी कुछ और दिन बाकी हैं। प्रचार तो चार दिन बाद आखिरी राज्य तेलंगाना में खत्म हो जाएगा, लेकिन मीडिया के मार्फत जहर घोलना तो राज्य की सरहद के बाहर से भी हो सकेगा, होता ही है। लोगों को यह उम्मीद करनी चाहिए, या आशंका रखनी चाहिए कि जब किसी प्रदेश में चुनाव के डेढ़-दो दिन पहले प्रचार खत्म हो जाता है, उस वक्त देश या विदेश में कोई ऐसी घटना हो सकती है, कोई ऐसा शिगूफा छोड़ा जा सकता है कि तमाम खबरें उस तरफ मुड़ जाएं, और मतदान के पहले उस राज्य के लोगों के दिमाग में भी वही बात घूमती रहें। आज देश भर में नफरत और गंदगी का जहर इस बुरी तरह फैलाया जा रहा है कि फिर यह लगने लगा है कि पांच बरस में एक बार पूरे देश में चुनाव एक साथ होने लगते, तो हर कुछ महीनों में किसी न किसी राज्य के चुनाव को लेकर यह गंदगी नहीं बिखरती रहती। आखिर कोई इंसान अपने घर पर अखबारों को बच्चों से कब तक छुपाकर रखे? कहीं न कहीं चुनाव हो रहे हैं, और चुनावों के बीच भी किसी घटना के होने पर, या किसी खास मौके पर जहर फैलाने के लिए मानो एक स्प्रे से कुछ बार छिडक़ाव और कर दिया जाता है। मीडिया अपने मिजाज के मुताबिक नफरती जहर को केक के ऊपर की आइसिंग के ऊपर की चेरी की तरह सबसे ऊपर पेश करता है। अब बहुत से लोग थककर टीवी समाचार चैनलों को देखना कम कर रहे हैं कि उनसे जहर काफी गाढ़ा निकलता है, और कई लोग कई दिनों के अखबारों को भी बच्चों से दूर रखने लगे हैं कि वे स्याही से नहीं, जहर से छपने लगे हैं। 

भारतीय राजनीति में सद्भावना पूरी तरह खत्म हो चुकी है, और नेता और राजनीतिक दल एक-दूसरे के बारे में जो कहते हैं, उसे देखना भी भले इंसानों की मानसिक सेहत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। जिन लोगों ने ड्रैकुला फिल्म देखी होगी वे जानते हैं कि एक अच्छा भला, जेंटलमैन दिखने वाला रईस जब अपनी असली ड्रैकुला शक्ल में आकर किसी शिकार के गले में अपने लंबे हो रहे दांतों को धंसाकर उसका खून पीना शुरू करता है, तो पल भर में उसका किरदार जेंटलमैन से रक्तपिशाच जैसा कैसे हो जाता है। ठीक वैसे ही जो महान बनते हुए नेता चुनिंदा मौकों पर बड़प्पन की बातें करते हुए इतिहास में नाम दर्ज कराने की कोशिश करते हैं, वे चुनावों के मौकों पर पल भर में ड्रैकुला हो जाते हैं, और भारतीय लोकतंत्र के गले में अपने लंबे दांत घुसाकर उसका लहू पीने लगते हैं। यह बात इतनी आम हो गई है कि अब धीरे-धीरे ड्रैकुला बड़ी-बड़ी आमसभाओं में जनता के सामने, दर्जनों वीडियो-कैमरों के बीच मंच पर यह करने लगे हैं, और लोगों की जुबान पर लहू इतना लग चुका है कि वे इस पर वाहवाही करते हुए और-और की मांग करने लगते हैं। 

हर चुनाव पर गंदगी और हिंसा की एक नई सुनामी की गारंटी सी रहती हैं कि वह आएगी, और सार्वजनिक जीवन के रहे-सहे शिष्टाचार को भी बहाकर ले जाएगी। वही चल रहा है। इस सुनामी में अच्छे, भले लोगों के पांव भी इस तरह उखड़ जा रहे हैं कि वे भी ऐसी ही जुबान में बहस करने लगे हैं जिस पर काउंट ड्रैकुला का एकाधिकार होना चाहिए था। अब सवाल यह उठता है कि केन्द्र सरकार के चुनाव विभाग से जब कोई उम्मीद नहीं बचती है, तो फिर किधर देखा जा सकता है? एक चुनाव आयोग नाम की एक संवैधानिक संस्था बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट भी अपने आपको कुछ संवैधानिक जिम्मेदारियों से बरी कर लेता है, और आयोग उन जिम्मेदारियों को चुनिंदा तरीके से छूता है, तो फिर ऐसे में केन्द्र सरकार के चुनाव विभाग के खिलाफ रोजाना तो सुप्रीम कोर्ट जाया नहीं जा सकता। एक संवैधानिक संस्था के सरकारी विभाग में तब्दील हो जाने के खतरे अब आम लोगों को भी साफ-साफ दिखने लगे हैं, ऐसे में लोकतंत्र की रही-सही रीढ़ की हड्डी भी टूटती चल रही है। ऐसी संवैधानिक संस्थाओं का होना खतरनाक होता है जो कि अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को तो पूरी नहीं करतीं, लेकिन संवैधानिक अधिकारों का भरपूर इस्तेमाल करती हैं। जब ऐसे औजार सत्ता के हाथ लग जाते हैं, तो फिर वे हथियार में तब्दील होने में अधिक वक्त नहीं लेते। जिसे एक हथौड़ा या घन होना चाहिए था, उस लोहे ने अपने को एके-47 में ढाल लिया, और अपने को मनोनीत करने वाले हाथों में अपने को दे दिया। टी.एन.शेषन नाम के मुख्य चुनाव आयुक्त ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी के वक्त इस संस्था को जो साख दिलाई थी, वह अब सरकारी औजार और हथियार की शक्ल में तब्दील हो गई है। ऐसे में देश में चुनावों के वक्त तबाह होने वाले लोकतंत्र को बचाने की और कोई गुंजाइश नहीं बचती है। 

कायदे की बात तो यह होती कि चुनाव आयोग प्रेमचंद की एक छोटी सी कहानी पर अमल करता कि बिगाड़ के डर से क्या इंसाफ की बात नहीं करोगे? लेकिन चुनाव आयोग नाम का यह पंच अब परमेश्वर नहीं रह गया, और वह सत्ता का पंच (अंग्रेजी का घूंसा) बन गया है, विपक्ष के चेहरे पर। यही वजह है कि विपक्ष के करेले को नोटिस जारी हो रहे हैं, और सत्ता का सल्फास लोगों के कानों में घुलते चले जा रहा है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में कुछ जुमले राज करते हैं जो कि अखबारों ने फर्जी सुर्खियों की शक्ल में बरसों से चलाए हुए हैं। ये तो पब्लिक है, ये सब जानती है, या जनता का हथौड़ा जब चलता है तो तानाशाही पलट जाती है, ऐसे बहुत से हैडिंग या रिपोर्टिंग के जुमले इस्तेमाल होते हैं, और जनता की सामूहिक समझ को लेकर बड़ी इज्जत गढ़ते हैं। हकीकत तो यह है कि जब चुनाव जीतने के लिए लोकतंत्र से 8वीं पीढ़ी की रिश्तेदारी भी जरूरी नहीं रह जाती, किसी तरह की शराफत भी जरूरी नहीं रह जाती, तो फिर सामूहिक समझ नाम के झांसे पर तरस आता है। यह सिलसिला ऊंचाई से ढलान की ओर लुढक़ते हुए इतनी गहराई तक पहुंच चुका है कि इसे फिर कभी लोकतंत्र की ऊंचाई पर ले जाया जा सकेगा इसकी उम्मीद बड़ी कम लगती है। लेकिन यह बात तो अपनी जगह सच है ही कि जनता को वही, और वैसी ही सरकार मिलती है जिसकी वह हकदार होती है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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