संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देह औरत की, मर्जी मर्द की, यह सिलसिला कब तक?
26-Nov-2023 3:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देह औरत की, मर्जी मर्द की, यह सिलसिला कब तक?

बीबीसी में अभी दुनिया की सौ प्रमुख महिलाओं की एक फेहरिस्त जारी की है जिसमें उसने अलग-अलग वजहों से उन्हें छांटना बताया गया है। उनमें से एक इराक से अमरीका पहुंचकर वहां बसी हुई, और अब सौंदर्य प्रसाधन उद्योग की एक जानी-मानी नाम बन चुकी हुडा काटन भी हैं, जिनके कॉस्मेटिक की बड़ी शोहरत है। अभी उन्होंने सौ प्रेरणादायी और असरदार महिलाओं की लिस्ट में शामिल होने के बाद सौंदर्य प्रसाधन उद्योग और सोशल मीडिया, दोनों की कड़ी आलोचना की है, और कहा है कि उन्हें कई बार यह लगता है कि कॉस्मेटिक इंडस्ट्री लिंगभेदी है, और यहां कई बार महिलाओं को वस्तुओं की तरह पेश किया जाता है। इस इंडस्ट्री और लोगों की सोच की वजह से महिलाओं को सिर्फ उनके रूप-रंग से आंका जाता है। जब किसी के रूप-रंग से उनके बारे में सामूहिक धारणा बना ली जाती है, तो फिर यह उन महिलाओं के लिए दिल तोडऩे वाली बात हो सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि जब उन्होंने यह कारोबार शुरू किया तो लोग बैठकों में उनसे बात करने के बजाय उनके पति से बात करते थे, उन्हें महिला होने की वजह से गंभीरता से नहीं लिया जाता था। इसके अलावा उनका यह भी तजुर्बा रहा कि कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में गोरे लोगों से परे बाकी रंगों के लोगों की परवाह नहीं रहती थी। उनका यह भी कहना है कि समाज महिलाओं को लेकर हमेशा ही सख्त रहा है, लेकिन अब तो सोशल मीडिया ने उन पैमानों को और कड़ा कर दिया है, और उन्हें खुद यह लगता है कि वे कभी भी पर्याप्त सुंदर नहीं हो सकतीं। उनका कहना है कि लोग महिलाओं से उनके नाखूनों से लेकर बाल और चमड़ी के रंग तक कुछ खास पैमानों पर परफेक्ट देखना चाहते हैं।

उनकी ये बातें इसलिए दिलचस्प हैं कि क्योंकि उनकी रोजी-रोटी और कमाई इसी कारोबार से चल रही है। फिर भी अगर वे ऐसा कह पा रही हैं तो उसकी एक वजह शायद यह होगी कि वे अपनी ग्राहक महिलाओं के बीच थोड़े से कॉस्मेटिक और बहुत सा आत्मविश्वास बेचना चाहती हैं। उनके तमाम कॉस्मेटिक के इस्तेमाल के बावजूद हर लडक़ी या महिला को समाज के प्रचलित पैमानों पर खूबसूरत साबित नहीं हो सकतीं, इसलिए कहीं न कहीं सौंदर्य प्रसाधनों की सीमा खत्म होनी चाहिए, और रूप-रंग से परे के आत्मविश्वास की सीमा शुरू होनी चाहिए। हम इस अखबार में, और अपने सोशल मीडिया पर लगातार इस बात को लिखते हैं कि सौंदर्य और फैशन के मर्दों के बनाए हुए पैमानों ने महिलाओं की उत्पादकता को बहुत सीमित कर रखा है, और उनके आत्मविश्वास को कुचलकर रखा है। दरअसल जब समाज किसी महिला के अपने बस के बाहर के उसके रूप-रंग को खूबसूरती के तथाकथित पैमानों पर खरा साबित करने का बोझ उसी महिला पर डाल देता है, तो उसका एक असर अनगिनत महिलाओं के आत्मविश्वास को तोड़ देना होता है। दूसरी तरफ बहुत थोड़ी सी गिनती में जो महिलाएं हर नजरिए से खूबसूरत रूप-रंग वाली मानी जाती हैं, उन्हें अपनी असल क्षमताओं और संभावनाओं से बहुत अधिक महत्व भी मिलता है, और यह बात समाज में एक अलग किस्म की रूप-रंग-आधारित गैरबराबरी कायम करती है। 

सौंदर्य प्रसाधन, फैशन, और फिटनेस के कारोबार लोगों में एक हीनभावना पैदा करके ही चलते हैं। लोगों को उनकी सहूलियत के मुकाबले मौजूदा नई फैशन के कपड़े और दीगर सामान इस्तेमाल करने की मजबूरी लगती है क्योंकि उसके बिना वे पर्याप्त फैशनेबुल नहीं माने जाएंगे। लड़कियों पर बार्बी डॉल की तरह का छरहरा बदन बनाए रखने का एक मानसिक दबाव हमेशा बने रहता है, और कई जगहों पर यह बात मान ली जाती है कि जिनका बदन भरा हुआ है, या जो लड़कियां चश्मा लगाती हैं, उन्हें आसानी से साथी नहीं मिलते। मतलब यह हुआ कि उनका दिल-दिमाग, उनकी बाकी किस्म की क्षमताएं धरी रह जाती हैं, और उनका मूल्यांकन सिर्फ रूप-रंग, और कद-काठी के आधार पर तय होने लगता है। हालत यह है कि लड़कियों की हड्डियों को चोट पहुंचाने की हद तक ऊंची एडिय़ों के सैंडिल पहनना उनकी मजबूरी हो जाती है क्योंकि न सिर्फ समाज में, बल्कि अब तो बहुत से देशों की बहुत सी कंपनियों में भी लड़कियों को ऊंची एड़ी पहनना जरूरी कर दिया गया है। ऊंची एड़ी, खुले टखने, और इस किस्म के कई दूसरे पैमानों को लड़कियों पर ही लादा जाता है। 

ये तमाम बातें पुरूषप्रधान समाजों की साजिश का हिस्सा हैं जिनमें एक वक्त महिलाओं को घुंघरू वाले गहने पहनाए जाते थे ताकि उनकी आवाजाही पर नजर रखे बिना भी कानों से उसकी खबर हो सके। बहुत से मुस्लिम देशों में बुर्का प्रथा लागू करके, और हिन्दुस्तान के राजस्थान या हरियाणा जैसे प्रदेशों में हिन्दू समाज में भी महिलाओं के लिए घूंघट निकालना जरूरी था ताकि कोई उनका चेहरा न देख ले। दूसरी तरफ भारत के केरल की उस प्रथा के खिलाफ हम कई बार लिख चुके हैं जिसके तहत एक वक्त एक राज में दलित महिलाओं को सीना ढांकने की मनाही थी, और कोई कपड़ा पहनने के लिए उन्हें टैक्स देना पड़ता था। महिला का बदन चाहे किसी पौराणिक कहानी में जुएं में दांव पर लगाया जाता रहा हो, कहीं किसी पारिवारिक दुश्मनी को निकालने के लिए महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाते रहे हों, तमाम चीजें महिलाओं के बदन पर ही केन्द्रित रहते आई है। सजावट की उम्मीद उसी से, और बदले की आग से जलाना भी उसी को। समाज की सोच की हालत यह है कि अगर किसी लडक़ी या महिला से बलात्कार होता है तो उसके लिए प्रचलित भाषा यही है कि उसकी इज्जत लुट गई। मानो बलात्कारी की इज्जत किसी भी तरह से कम नहीं हो सकती, और उसके हिंसक हमले की शिकार महिला की देह भी जख्म पाती है, और उसी की इज्जत भी लुटती है। यह सब इसलिए कि औरत को महज एक देह मान लिया गया है, और उसकी देह को चाहे मर्द जख्मी करे, उसी देह के जख्म को उसकी बेइज्जती करार दिया जाता है। 

आज की यह चर्चा चाहे फैशन उद्योग की एक कारोबारी महिला की बातों से ही क्यों न शुरू हुई हो, यह बहस पहले से चली आ रही है, और आगे भी जारी रहना चाहिए कि देह के रखरखाव, रूप-रंग, कद-काठी, और फैशन के तमाम पैमाने बनाने का हक मर्द का, और ढोने का जिम्मा औरत का क्यों होना चाहिए? यह सिलसिला लैंगिक असमानता का है, हिंसक है, और बुनियादी मानवाधिकार के खिलाफ है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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