संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सुरंग से निकले तो हैं मजदूर, एक सबक भी साथ निकला
29-Nov-2023 4:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सुरंग से निकले तो हैं मजदूर, एक सबक भी साथ निकला

उत्तराखंड में सुरंग में फंसे हुए मजदूरों का जिंदा निकल पाना एक करिश्मे जैसा था। उनके साथ धंसी हुई, और धसक रही सुरंग के कई किस्म के और खतरे हो सकते थे। हिमालय पर्वतमाला की बहुत नाजुक और कमजोर पहाडिय़ों पर तरह-तरह के दुस्साहसी सरकारी और कारोबारी प्रयोग किए जा रहे हैं, जिनमें अरबों रूपए का खेल हो रहा होगा। ऐसी बहुत सी सुरंगें बन रही हैं, और अब ऐसे पहले बड़े हादसे के बाद सवाल यह उठ रहा है कि कई किलोमीटर की बन रही इस सुरंग से किसी हादसे की हालत में निकलने की कोई भी तैयारी क्यों नहीं रखी गई थी। तैयारी तो दूर इसका इंतजाम भी नहीं था। लेकिन भीतर जो 41 मजदूर कैद थे, उन्होंने शायद जिंदगी भर ईमानदार का पसीना बहाकर जिंदगी चलाई थी, और कुदरत ने उन्हें वह जिंदगी वापिस कर दी, वे इतने विकराल खतरे के बीच से भी निकलकर आ गए। 

जब दुनिया भर की बड़ी-बड़ी मशीनों ने, और दुनिया भर से आए विशेषज्ञों ने एक किस्म से हाथ खड़े कर दिए, और प्रयोग की तरह कई जगह छेद किए जा रहे थे जिनका बड़ा खतरा भी था, तो वैसे में हिन्दुस्तान में गैरकानूनी करार दी जा चुकी ‘रैट-होल माइनिंग तकनीक’ का इस्तेमाल किया गया, और चूहों के बिल की तरह जमीन में हाथों के औजारों से सुरंग खोदते हुए पेशेवर मजदूर भीतर फंसे 41 मजदूरों तक पहुंचे, और उन्हें लेकर बाहर आए। 17 दिनों से मशीनों ने जो काम पूरा नहीं किया था, उसका आखिरी एक बड़ा हिस्सा छेनी-हथौड़ी से काम कर रहे इन मजदूरों ने कर दिखाया। ये मजदूर दिल्ली में बड़ी नालियों और गटर के पाईप साफ करने वाली कंपनी में काम करते हैं, और वहां से आए लोगों में मुन्ना कुरैशी भी थे जो कि सबसे पहले मजदूरों तक पहुंचे, और उन्हें हौसला देकर बाहर निकालना शुरू किया। उनके अलावा ऐसे ही चूहे के बिल की खुदाई के एक और जानकार फिरोज भी थे, और उन्हें भी फंसे हुए मजदूरों ने खूब दुआएं दीं। मौके पर बहुत से और अफसरों के साथ-साथ इस अभियान की इंचार्ज एजेंसी, एनडीआरएफ के एक मेम्बर, रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल सैय्यद अता हसनैन भी वहां तैनात थे, और उन्होंने बताया कि 24 घंटे से भी कम समय में रैट होल माइनर्स ने 10 मीटर सुरंग बना दी, और फंसे हुए मजदूरों तक पहुंच गए। इन कुछ नामों का जिक्र हम इसलिए कर रहे हैं कि वहां मिट्टी और मलबे से लथपथ, हेलमेट पहने लोगों की पोशाक से शायद उनके धर्म का पता न चल सका हो। मीडिया के काफी लोग चूंकि नामों को लिखने से बच रहे हैं इसलिए कुछ नामों का जिक्र जरूरी है ताकि अगली बार जब देश के कुछ लोगों की हसरत देश के एक तबके को पाकिस्तान भेजने की हो, तो वे इस बात को याद रखें कि पाकिस्तान से तो मुन्ना कुरैशी और फिरोज मजदूरों की जान बचाने यहां आ नहीं सकते थे। इसलिए किसी और वजह से न सही, कम से कम आड़े वक्त पर महानगरों के नाले-गटर साफ करने के लिए, सुरंगों में फंसे मजदूरों को निकालने के लिए तो ऐसे लोगों को यहां रखा जाए। अभी हम नाम देख रहे हैं, तो इन 41 मजदूरों में सिर्फ एक, सबाह अहमद ही मुस्लिम दिख रहा है, बाकी सारे के सारे मजदूर गैरमुस्लिम दिख रहे हैं। इनमें से कुछ तो महादेव, गणपति, राममिलन, रामसुंदर, भगवान, रामप्रसाद भी थे। मजदूरों की पोशाक से न सही उनके नाम से ही कुछ तो समझ पड़ता है। तकरीबन सारे के सारे, 40 मजदूर हिन्दू ही दिखते हैं। सोशल मीडिया पर कुछ और लोगों ने चूहे के बिल की तरह की सुरंग खोदकर लोगों को बचाने वाले मजदूरों में मोहम्मद नसीम, वकील, मुन्ना, फिरोज, मोनू, इरशाद, अंकुर, राशिद, जतिन, नासीर, सौरव, और देवेन्द्र के नाम लिखे हैं। इनके कपड़ों से कीचड़ मिट्टी धुल जाए तो फिर इन्हें अलग-अलग करने की कोशिश आगे बढ़ाई जा सकती है। 

देश में लोगों को अलग-अलग बांटने की कोशिशें आम लोग ही नाकाम कर सकते हैं, अगर वे नफरत के जहर के असर से बर्बाद न हो चुके हों। कहीं क्रिकेट के मैदान पर, तो कहीं बेदिमागी से बनाई जा रही सरकारी सुरंगों के बीच, जिस तरह लोग उनके मजहब के कपड़ों की उड़ाई गई खिल्ली को अनदेखा करके देश के लिए लगे हुए हैं, वह फख्र की बात है। कायदे से तो जब किसी पूरे तबके को रात-दिन धिक्कारा जा रहा हो, नफरत का सामान बना दिया गया हो, तब यह नौबत फिक्र की होनी चाहिए थी, लेकिन घटिया नेताओं के बावजूद बेहतर इंसान बने हुए आम लोग हैं कि वे फिक्र की नौबत को फख्र में तब्दील करते हैं। जिस अंदाज में सुरंग का आखिरी का दस मीटर का यह हिस्सा एक दिन में इन मजदूरों ने हाथों से बना दिया, उसने नफरत के साथ-साथ मशीनों को भी एक चुनौती दी है कि इंसान की जरूरत अभी तक पूरी खत्म नहीं हुई है, और कई ऐसी नौबतें आएंगी जहां पर मशीनें इंसानों के मुकाबले कुछ फीकी और कमजोर भी साबित हो सकती हैं। फंसे हुए मजदूरों और बाहर काम कर रहे मजदूरों ने आज एक सवाल भी खड़ा किया है कि हिमालय पर्वतमाला के इस सबसे ही नाजुक, भूकम्प और भूस्खलन के खतरे वाले इलाके में बनाई जा रही ऐसी सुरंगों से हिफाजत कैसे की जा सकेगी? 

यह एक मौका है जब देश को धरती से दुस्साहस खिलवाड़ की कोशिशों को रोककर एक बार फिर दुनिया के जानकार लोगों से राय लेनी चाहिए। न सिर्फ सुरंगों के मामले में, बल्कि पहाड़ों पर बांधों के बारे में, पहाड़ी इलाकों में अंधाधुंध चौड़ी सडक़ें बनाकर ट्रैफिक को अंधाधुंध बढ़ाने के मामले में, ऐसे कई मामलों में सरकारों को अपने फैसलों पर फिर से गौर करना चाहिए। इस बार तो ये मजदूर बच गए हैं, लेकिन हर बार इन इलाकों के ऐसे हादसों में सब लोग शायद न बच पाएं। इंसानों को धरती को समझने की रफ्तार से सौ गुना अधिक रफ्तार से इसके साथ एक दुस्साहसी छेडख़ानी करना बंद करना चाहिए। हर इलाका हर किस्म के विकास के लायक नहीं होता है। इसलिए इस किस्म की जो बाकी सुरंगें बन रही हैं, उनके बारे में सरकारी असर के बाहर के अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से राय लेनी चाहिए। और इसके साथ-साथ देश में पोशाकों से लोगों को पहचानना बंद भी करना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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