संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिल्किस के बलात्कारियों की सजामाफी सुप्रीम कोर्ट से खारिज, असाधारण केस
08-Jan-2024 3:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बिल्किस के बलात्कारियों की सजामाफी सुप्रीम कोर्ट से खारिज, असाधारण केस

देश के एक सबसे चर्चित मामले, गुजरात दंगों के दौरान एक मुस्लिम गर्भवती युवती बिल्किस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने वाले, और उसकी छोटी सी बच्ची सहित परिवार के सात लोगों का कत्ल करने वाले 11 मुजरिमों को गुजरात सरकार ने उम्रकैद से छूट देकर रिहा कर दिया था, उसे सुप्रीम कोर्ट ने आज खारिज कर दिया है। रिहाई का यह फैसला गुजरात की भाजपा सरकार ने केन्द्र सरकार के साथ सहमति से लिया था, और पिछले बरस स्वतंत्रता दिवस पर कई हत्याओं और सामूहिक बलात्कार में उम्रकैद पाए हुए इन 11 लोगों को रिहा कर दिया गया था, जिनका जेल से छूटते ही स्वागत किया गया था, और ये लोग भाजपा के सांसद, विधायक के साथ मंच पर भी दिख रहे थे। बिल्किस बानो और उनके परिवार ने वक्त के पहले सरकार द्वारा की गई इस रिहाई को अदालत में चुनौती दी थी, और अब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार का फैसला खारिज किया है। गुजरात दंगों के दौरान के इस गैंगरेप-हत्याओं के मामले की सुनवाई गुजरात के बाहर करनी पड़ी थी क्योंकि बिल्किस बानो को जान से मारने की धमकी मिल रही थी, और महाराष्ट्र में एक विशेष अदालत ने इन लोगों को उम्रकैद सुनाई थी जिसमें इन मुजरिमों ने बिल्किस की बेटी को भी जमीन पर पटककर मार डाला था। 

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी.वी.नागरत्ना, और जस्टिस उज्जवल भुइयां की बेंच में अगस्त में इसकी सुनवाई चालू हुई थी, और आज इसका फैसला आया है। इस रिहाई को लेकर पूरे देश में लोग हक्का-बक्का थे, और बिल्किस बानो के अलावा भी कई दूसरे लोगों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की थीं। अगर हिन्दुस्तान के इंसाफ के सिलसिले को देखें, तो 2002 से बिल्किस बानो और उसके परिवार पर हुए इस भयानक जुर्म की अदालती लड़ाई लडऩा उसके लिए कभी आसान नहीं रहा, बार-बार उसे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ लगानी पड़ी, और जरा भी कम हौसले वाले इंसान इतने में तो थककर घर बैठ चुके रहते। लेकिन अपने खिलाफ पूरी तरह बागी तेवरों वाली गुजरात की भाजपा सरकार के रूख को झेलते हुए भी बिल्किस बानो की अदालती लड़ाई का यह 20वां बरस चल रहा है, और अपनी उम्र का आधा हिस्सा वह इंसाफ मांगते गुजार चुकी है। पांच महीने की गर्भवती, 21 बरस की बिल्किस अपनी एक बच्ची और परिवार के आधा दर्जन दूसरे लोगों को खोने के बाद भी जिस तरह लगातार इंसाफ मांग रही है, यह अपने आपमें एक असाधारण और ऐतिहासिक हौसले का मामला है, और सुप्रीम कोर्ट को यह भी सोचना चाहिए कि जिन लोगों की जिंदगी का इतना बड़ा हिस्सा इंसाफ मांगते खत्म हो जाता है, उन लोगों को इस लोकतंत्र की तरफ से किसी मुआवजे का हक होना चाहिए, या नहीं? यह मामला इसलिए भी भयानक है कि गुजरात दंगों के वक्त इस गैंगरेप और हत्याओं के बाद राज्य की पुलिस ने इसे दबाने की इतनी कोशिश की थी कि बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, और सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद इसे सीबीआई को दिया गया था, और बाद में इसकी निष्पक्ष सुनवाई के लिए इसे प्रदेश के बाहर महाराष्ट्र ट्रांसफर भी किया गया था।

जजों ने इस फैसले में लिखा है- ‘एक महिला सम्मान की हकदार है, भले ही उसे समाज मेें कितना ही ऊंचा या नीचा क्यों न माना जाए, या वह किसी धर्म को मानती हो, या किसी भी पंथ को मानती हो। क्या महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराधों में छूट दी जा सकती है? ये ऐसे मुद्दे हैं जो उठते हैं। सजा अपराध रोकने के लिए दी जाती है, पीडि़त की तकलीफ की भी चिंता करनी होगी। गुजरात सरकार को रिहाई का फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है, वह दोषियों को कैसे माफ कर सकती है? सुनवाई महाराष्ट्र में हुई है तो रिहाई पर फैसला वहीं की सरकार करेगी।’ सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि उससे मई 2022 में धोखाधड़ी करके, और तथ्यों को छिपाकर ऐसा आदेश हासिल किया गया था कि गुजरात सरकार दोषियों को माफ करने पर विचार कर सकती है। अदालत ने उसे गुमराह करने की तोहमत गुजरात सरकार पर लगाई है। और आज के आदेश में अपने उस पिछले आदेश के खिलाफ यह समझ सामने रखी है कि गुजरात को इन मुजरिमों की उम्रकैद से पहले रिहाई का हक नहीं है। 

हम अदालत के फैसले के शब्दों पर और अधिक जाना नहीं चाहते, लेकिन यह एक भयानक नौबत थी जब आजादी की सालगिरह पर इस तरह के भयानक सामूहिक जुर्म वाले लोगों को वक्त के पहले रिहा किया गया था। गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह हलफनामा दिया था कि इस रिहाई को केन्द्र सरकार की भी मंजूरी मिल चुकी थी। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह भी बताया था कि पुलिस के एसपी, सीबीआई, और मुम्बई की स्पेशल क्राईम ब्रांच, सीबीआई के स्पेशल जज, और ग्रेटर मुम्बई के सत्र न्यायाधीश ने पिछले बरस मार्च में इस रिहाई का विरोध किया था, और सीबीआई ने गोधरा जेल को भी लिखा था कि गंभीर अपराध को देखते हुए इनके साथ कोई रियायत नहीं की जा सकती, और समय पूर्व रिहाई नहीं होनी चाहिए। 

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भारतीय लोकतंत्र में उन लोगों को राहत मिलेगी जो यह देखकर सहम चुके थे कि राज्य (शासन) की ताकत अगर इस मनमानी की हद तक फैली हुई है, तो फिर इसमें सरकार की सहमति से तो हर किस्म के मुजरिम बच सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट को भी इस बात की जिम्मेदारी तय करनी चाहिए कि पिछले बरस गुजरात सरकार ने जब उससे रिहाई के हक का आदेश पा लिया था, तब सरकार ने अदालत को कैसे गुमराह किया था, कौन सी जानकारियां छुपाई थी, या गलत जानकारियां दी थी, और उनके लिए कौन जिम्मेदार था? सुप्रीम कोर्ट को यह आत्ममंथन भी करना चाहिए कि जिस तरह उसने गुमराह होकर, या गलती करके गुजरात को यह अधिकार दे दिया था, उससे आगे बचने का कौन सा तरीका हो सकता है? क्योंकि बिल्किस बानो तो सुप्रीम कोर्ट से गुजरात को मिली अदालत के खिलाफ एक बरस से ज्यादा लड़ती रही, ऐसे कितने लोग हैं जो ऐसा हौसला दिखा सकते हैं, और इतनी तकलीफ उठा सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट को ऐसे भयानक जुर्म के मामले में गुजरात सरकार को पिछले बरस दी गई रियायत की अपनी जिम्मेदारी में हुई चूक के बारे में सोचना चाहिए। और देश की सरकारों को तो अपने अधिकारों को खींचतान कर बेइंसाफी की हद तक ले जाने के मिजाज के बारे में सोचना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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