संपादकीय
कर्नाटक में दुकानों के अंग्रेजी बोर्ड के खिलाफ एक आंदोलन शुरू हुआ है जिसमें कहा जा रहा है कि नाम कन्नड़ में लिखे जाएं। दक्षिण भारत में तमिलनाडु में भी इस किस्म का एक आंदोलन पहले छिड़ चुका है जिसमें हिन्दी के खिलाफ उग्र भावनाएं सामने आती थीं, लेकिन कर्नाटक तो देश में अंतरराष्ट्रीय कारोबार का एक शहर है जहां बड़ी-बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियां बसी हुई हैं, और देश और दुनिया से लोगों का यहां आना-जाना लगे रहता है। कर्नाटक कारोबारियों के अलावा दूसरे प्रदेशों से आने वाले लाखों छात्र-छात्राओं का ठिकाना भी है, और हर बरस शायद दसियों लाख पर्यटक कर्नाटक पहुंचते होंगे। खुद दक्षिण भारत में हर राज्य की अपनी एक मजबूत क्षेत्रीय भाषा है, उसकी अपनी लिपि है, और दक्षिण भारत के राज्य भी एक-दूसरे की भाषा में काम नहीं करते हैं। ऐसे में कर्नाटक जैसे एक विकसित प्रदेश, और बाहरी लोगों की आवाजाही के केन्द्र में अगर ऐसा भाषा विवाद शुरू हो रहा है जिससे स्थानीय कन्नड़ भाषियों का कोई नफा नहीं दिख रहा, बल्कि प्रदेश की अर्थव्यवस्था का इससे नुकसान भी हो सकता है, तो इस बारे में कर्नाटक का भला चाहने वाले लोगों को सोचना चाहिए।
यह आंदोलन अभी राजधानी बेंगलुरू से शुरू हुआ है, लेकिन प्रदेश में भाषाई क्षेत्रवाद का एक पुराना इतिहास रहा है। जो राज्य कामयाब और संपन्न रहते हैं, वे अपनी भाषा में काम करने की क्षमता भी विकसित कर लेते हैं, और स्थानीय कारोबार में उसका भरपूर इस्तेमाल भी होता है। कर्नाटक का एक इतिहास बताता है कि यहां अंग्रेजी से पहले हिन्दी, तमिल, उर्दू, और संस्कृत जैसी भाषाओं का भी विरोध होते रहा है, और बेंगलुरू मेट्रो से हिन्दी हटाने का आंदोलन भी हो चुका है। हालत यह है कि जिस अंग्रेजी भाषा से कर्नाटक के लाखों बेहतर रोजगार जुड़े हुए हैं, उस भाषा का भी स्थानीय कन्नड़वादी विरोध कर रहे हैं।
देश में जहां कहीं भी उग्र क्षेत्रवाद होता है, वह उस इलाके की विकास की संभावनाओं को घटा देता है। और कई मामलों में ऐसे उग्र क्षेत्रवाद से राजनीतिक दलों को चुनावी फायदा मिलता है, लेकिन कहीं-कहीं पर नुकसान भी मिलता है। अभी छत्तीसगढ़ में निपटे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी शिकस्त के विश्लेषण में बहुत से लोगों का यह भी अंदाज है कि पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सरकार के स्तर पर जितना घनघोर छत्तीसगढ़वाद खड़ा किया था, वह सांस्कृतिक रूप से छत्तीसगढ़ के सिर्फ मैदानी इलाकों की संस्कृति थी, और राज्य के दक्षिण और उत्तर के आदिवासी इलाकों को वह छू भी नहीं गई, जहां कांग्रेस की करारी शिकस्त हुई। जिन मैदानी इलाकों में यह छत्तीसगढ़ी संस्कृति थी, वहां भी यह संस्कृति जिन जातियों पर केन्द्रित थी, उससे परे के लोग कांग्रेस से बिदक गए, और चुनाव में उसका नुकसान हुआ। यह सिर्फ लोगों का विश्लेषण है, क्योंकि वोट डालते हुए मतदाता की क्या सोच रहती है, उसका तो कोई रिकॉर्ड दर्ज होता नहीं है।
कर्नाटक में कन्नड़ भाषा पढ़ाई से लेकर सरकारी और अदालती कामकाज तक एक मजबूत औजार है, और इन जगहों पर कन्नड़ के खिलाफ कोई कुछ सोच भी नहीं सकते। दूसरी तरफ सडक़ों और दीवारों के बोर्ड, मेट्रो स्टेशनों के नाम, इन सबका इस्तेमाल स्थानीय लोगों से परे बाहर से आए हुए, या आने-जाने वाले गैरकन्नड़भाषी लोग भी करते हैं, और यहां पर अंग्रेजी का विरोध इस प्रदेश के ही व्यापक और दीर्घकालीन हितों के खिलाफ जा सकता है। लोगों को यह भी समझना चाहिए कि धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता की तरह राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद अपनी आक्रामकता को भी बढ़ाते चलते हैं, और नए-नए निशाने भी ढूंढते रहते हैं। हिंसा की भूख लगातार बढ़ती रहती है, और उसे नए-नए मुद्दों की तलाश रहती है। यह बात हम उन तमाम देशों में देखते हैं जहां पर धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता का बोलबाला रहता है। जब कभी लोकतंत्र की व्यापक समझ, और किसी देश-प्रदेश या समाज की व्यापक बेहतरी की सोच पर कोई वाद हावी हो जाता है, तो फिर संभावनाएं धरी रह जाती हैं, और आशंकाएं मंडराने लगती हैं। 21वीं सदी में पहुंचने के बाद अगर कर्नाटक जैसे विकसित, कामयाब, और संपन्न राज्य में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय आवाजाही की जरूरतों को अनदेखा करते हुए अगर सार्वजनिक जगहों पर बोर्ड और नाम कन्नड़ में करने की एक जिद और धुन लोगों पर सवार हुई है, तो यह अलोकतांत्रिक और आक्रामक क्षेत्रवाद है, और इसका नुकसान सबसे अधिक उसी क्षेत्र को होगा। दुनिया में वही देश सबसे अधिक विकास करते हैं, जो कि दुनिया भर की संस्कृतियों के साथ अलग-अलग देशों से आए हुए लोगों का स्वागत करते हैं, धर्म और नस्ल को बराबरी का दर्जा देते हैं, तमाम लोगों को बराबरी की संभावनाएं देते हैं। अमरीका इसकी एक बेहतरीन मिसाल है जिसे एक ऐसा मेल्टिंग-पॉट कहा जाता है जिसमें अलग-अलग देशों और संस्कृतियों से आई हुई धातुएं पिघलकर एक मिश्रित धातु बन जाती हैं, और देश को एक असाधारण विकास मुहैया कराती हैं।
दक्षिण भारत के अलग-अलग राज्यों में समय-समय पर उठने वाले क्षेत्रीय मुद्दों के पीछे भारत में उत्तर और दक्षिण के बीच का एक अघोषित विभाजन भी है, और दक्षिण को हमेशा यह लगता है कि केन्द्र सरकार उससे जो टैक्स वसूलती है, उसे पिछड़े राज्यों को देने के नाम पर उत्तर के राज्यों को अनुपातहीन तरीके से दिया जाता है। मतलब यह कि दक्षिण मेहनत करके कमाई करता है, और उस पर जो केन्द्रीय टैक्स दिया जाता है, उसका इस्तेमाल केन्द्र सरकार दूसरे पिछड़े राज्यों को बराबरी पर लाने के लिए करती है। अब अगले कुछ बरसों में देश में संसदीय सीटों का जो डी-लिमिटेशन होना है, उसमें भी आज दक्षिण को आशंका है कि उसकी सीटें घट सकती हैं, क्योंकि उसने अपनी आबादी काबू में रखी है, और दूसरी तरफ उत्तर के लापरवाह राज्यों की सीटें बढ़ सकती हैं, क्योंकि वहां पर आबादी अंधाधुंध बढ़ी है। ऐसी भावनाओं को लेकर हिन्दी का विरोध तो दक्षिण भारत में होते रहता था, लेकिन कर्नाटक सरीखे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संबंधों वाले राज्य में सार्वजनिक जगहों पर नामों में अंग्रेजी का विरोध पूरी तरह उग्र क्षेत्रवाद का नतीजा है, जो कि अलग-अलग कई किस्म की शक्लों में देश में खड़ा हो सकता है। देश को एक रखना एक बड़ी जिम्मेदारी रहती है, आज कर्नाटक को बाकी देश के साथ बनाए रखना, पता नहीं कौन कर पाएंगे।