संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धार्मिक एकजुटता और ताकत की सामाजिक उपयोगिता भी जरूरी है
22-Jan-2024 4:29 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  धार्मिक एकजुटता और  ताकत की सामाजिक उपयोगिता भी जरूरी है

अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के मौके पर पिछले कई दिनों से देश के बहुत से हिस्सों में जो अभूतपूर्व और असाधारण उत्साह बहुसंख्यक हिन्दू तबके में देखने मिल रहा है, उससे एक यह संभावना भी बनती है कि धर्म के नाम पर इतने लोग एकजुट हो सकते हैं। अब सवाल यह है कि धार्मिक आस्था जो आस्थावान लोगों का खुद का भला कर सकती है, लेकिन उससे देश और समाज का भी कुछ भला किया जा सकता है? आज भारत से बहुत से धर्मों के लोग अपने त्यौहारों के मौकों पर सडक़ किनारे भंडारे लगा लेते हैं, जिन पर आते-जाते लोग रूककर छककर खा लेते हैं। कई त्यौहार ऐसे भी रहते हैं जिन पर इतने अधिक भंडारे लगते हैं कि लोगों को कई जगहों पर रूककर खाना पड़ता है। लेकिन क्या उससे सचमुच ही किसी गरीब का कुछ भला होता है? जो भूख मिटती है, क्या वह किसी गरीब की भूख रहती है, या फिर मोटरसाइकिलों को रोक-रोककर लोग खाने में जुट जाते हैं। धर्म में लोगों को जोडऩे की, और दान-धर्म के नाम पर लोगों की जेब से पैसे निकलवाने की भी अपार ताकत है, लेकिन इस ताकत का इस्तेमाल किस काम में किया जाता है, यह देखने की बात है। 

आज सडक़ों पर हो रहे आयोजनों से लेकर अखबारों के इश्तहारों तक लोगों का उत्साह देखते ही बन रहा है। चारों तरफ राम जन्म भूमि और रामलला के पोस्टर लगे हैं, झंडे फहरा रहे हैं, और लोग अपनी गाडिय़ों पर ऐसे झंडे लगाकर चारों तरफ घूम रहे हैं। लेकिन उत्सव से परे इसकी कोई उपयोगिता समाज के लिए नहीं है। लेकिन ऐसी संभावना तो है ही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के मंदिरों की साफ-सफाई का आव्हान किया, तो चारों तरफ मंदिर साफ होते दिखने लगे। लेकिन जब किसी ईश्वर की पूजा-आराधना की बात उठती है, तो महज मंदिर-मस्जिद जैसी जगहें ही ईश्वर से जुड़ी नहीं रहतीं, जिन लोगों को ईश्वर पर आस्था है, वे तो यही मानते हैं कि पूरी दुनिया ईश्वर की बनाई हुई है, और ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। ऐसे में सिर्फ पूजास्थल की सफाई क्यों हो? और दूसरी सार्वजनिक जगहों की भी सफाई हो सकती है, और होनी चाहिए। आज जितने लोग धार्मिक उत्सव के लिए समय निकालकर उस पर समर्पित हैं, उनके पास ऐसा वक्त निकलने की गुंजाइश तो है ही। अब सवाल यह है कि मोदी सरीखे असर वाले कोई नेता, या दूसरे धार्मिक लोग भक्तों के ऐसे रेले को समाजसेवा के जरूरी काम की तरफ किस तरह मोड़ सकते हैं? 

हमने कई धर्मों के लोगों को धर्म के नाम पर एकजुट होते, और फिर नेक काम करते भी देखा है। सिक्खों के संगठन दुनिया में कहीं भी कोई मुसीबत आने पर लोगों की मदद को सबसे आगे रहते हैं, और इसमें बहुत कम ऐसे मौके रहते हैं जब सिक्ख खतरे में पड़े हों, आमतौर पर सिक्ख संगठनों की मदद दूसरे धर्मों के लोगों को ही पहुंचती है। दक्षिण भारत में तिरुपति जैसे मंदिर है जहां पर भक्तों को दर्शन तेजी से करने के लिए कुछ अधिक भुगतान करना पड़ता है, लेकिन मंदिर ट्रस्ट ऐसी कमाई का इस्तेमाल अस्पताल और कॉलेज बनाने और चलाने में करता है। कुछ और धर्मों में भी लोग दान करते हैं, लेकिन उनका दान अपने ही धर्म के लोगों तक सीमित रहता है। हम रामभक्तों की अपार भीड़ की ताकत को समाज की व्यापक जरूरत के लिए इस्तेमाल करने की संभावनाओं पर देखना चाहते हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में धर्म एक हकीकत है, और उसके नाम पर होने वाली एकजुटता में बड़ी ताकत हो सकती है। कभी यह ताकत किसी दूसरे धर्म के खिलाफ होती है, तो कभी अपने ही लोगों के बीच कट्टरता को बढ़ाने में काम आती है। ऐसी खामियों से परे कई धार्मिक संगठनों को क्षेत्रीय विकास में बड़ी भागीदारी भी करते देखा गया है। दक्षिण में सत्य सांई बाबा का संगठन कई इलाकों में ग्रामीण विकास और पानी की सप्लाई जैसा काम करता था, और पूरी तरह मुफ्त में बच्चों की हार्ट सर्जरी के अस्पताल भी यह धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन चलाता है।

हमारा ख्याल है कि हिन्दुओं के बीच जिन लोगों का असर है, उन्हें देश के दसियों करोड़ आस्थावान लोगों को साथ लेकर समाज की कुछ जरूरतों को पूरा करने का बीड़ा उठाना चाहिए। किसी भी धर्म का सम्मान उसके ईश्वर से नहीं बढ़ता, बल्कि इससे बढ़ता है कि उसे मानने वाले लोग कैसे हैं, और वे क्या करते हैं। धार्मिक ग्रंथ तो अपनी जगह रखे रह जाते हैं, लेकिन उनके नाम पर लोग कैसा काम करते हैं इससे उस धर्म और उसके ईश्वर का सम्मान तय होता है। इसलिए भी हर धर्म के लोगों को यह देखना चाहिए कि वे धर्मों की आम नसीहत के तहत जरूरतमंद लोगों का क्या भला कर सकते हैं? बहुत से धर्म लोगों को त्याग सिखाते हैं, जरूरतमंदों के लिए दान देना सिखाते हैं, लेकिन अधिकतर धर्मों के अतिसंपन्न लोग त्याग की यह सोच गरीबों में तो भरते हैं, खुद उस पर अमल नहीं करते। इसलिए जिस धर्म के लोगों पर जिन लोगों का असर हो, उन्हें ऐसे आस्थावानों को समाजसेवा के काम में जोडऩा चाहिए, क्योंकि आस्था और उपासना तो साथ-साथ चल ही सकते हैं। 

हम जानते हैं कि इस बात को कहना आसान है, और करना मुश्किल है, लेकिन इसकी छोटी सी मिसाल का जिक्र हम पहले भी कभी कर चुके हैं कि श्रीलंका में बौद्ध धर्म के असर से लोगों के बीच त्याग की जो भावना आई है, उसके चलते श्रीलंका नेत्रदान के मामले में दुनिया में सबसे आगे है, और वहां घरेलू जरूरतों के पूरा होने के बाद दुनिया के बाकी देशों को भी श्रीलंका से निकली आंखें काम आती हैं। भारत में भी धर्म के सामाजिक योगदान की कोशिश करनी चाहिए। इस देश में बहुत से मोर्चों पर त्यागियों और दानदाताओं की जरूरत है, और शायद धर्म के नाम पर उनकी जेब से आसानी से कुछ निकाला जा सके। 
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