संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भ्रष्ट अफसरों को संविदा देने की छूट खत्म करना सरकार का सही फैसला
01-Feb-2024 12:49 PM
	 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भ्रष्ट अफसरों को संविदा देने की छूट खत्म करना सरकार का सही फैसला

छत्तीसगढ़ सरकार ने कल मंत्रिमंडल की एक बैठक में संविदा नियुक्ति के लिए पिछली भूपेश बघेल सरकार के नियमों में किए गए एक बदलाव को पलट दिया। इस बदलाव के चलते 2012 में राज्य सरकार द्वारा बनाए गए संविदा नियमों में फेरबदल करके 2023 में यह संशोधन किया गया था कि किसी अधिकारी के खिलाफ विभागीय जांच के चलते हुए, या अदालत में मुकदमे चलते हुए भी उन्हें संविदा नियुक्ति दी जा सकेगी। इस प्रावधान के बाद भूपेश बघेल सरकार के लिए यह रास्ता खुल गया था कि वह विभागीय जांच झेल रहे, या अदालत में मुकदमे झेल रहे अफसरों को भी रिटायर होने के बाद संविदा नियुक्ति दे सके। और भूपेश सरकार ने ऐसा किया भी था। पिछली सरकार के कुछ सबसे विवादास्पद अफसरों को संविदा नियम-2012 में किए गए बदलाव का फायदा जाहिर तौर पर भ्रष्ट दिखने वाले, विभागीय जांच और अदालती मुकदमे झेलने वाले लोगों को देने के लिए किया गया था, और वही हुआ भी। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की अगुवाई में कल राज्य मंत्रिमंडल ने 2023 के इस संशोधन को खारिज कर दिया, और 2012 के संविदा नियम ज्यों के त्यों लागू करने का फैसला लिया है। 2012 में उस वक्त के मुख्य सचिव रहे सुनिल कुमार ने इन संविदा नियमों को तैयार किया था, जिनमें 2023 में छेडख़ानी करके इसमें भ्रष्ट लोगों की जगह निकाली गई थी। हैरानी की बात यह थी कि भूपेश-मंत्रिमंडल ने जब संविदा नियम में संशोधन किया, तो सरकारी कामकाज के नियमों के खिलाफ इस संशोधन का न तो मंत्रिमंडल में किसी ने विरोध किया था, और न ही कैबिनेट के फैसले की जानकारी मिलने पर राज्यपाल ने ही इसमें कोई आपत्ति लगाई थी। वर्तमान भाजपा सरकार ने इस भ्रष्ट संशोधन को खत्म करके सही फैसला लिया है, और इससे सरकार में ऐसे अफसरों की संविदा नियुक्ति होना थमेगा जो कि पहले ही भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि भूपेश सरकार ने जब ऐसे अफसरों को संविदा पर नियुक्ति दी, तो उसके बाद इनके हाथों और भी ढेरों भ्रष्टाचार हुआ, और शायद भ्रष्टाचार की वह क्षमता ही उनकी काबिलीयत थी। 

कोई भी सरकार जब बहुत ही बदनाम और भ्रष्ट अफसरों को किसी भी तरह से सेवा में रखने पर आमादा रहती है, तो उससे वैसी सरकारों की अपनी नीयत भी उजागर हो जाती है। वैसे तो किसी मंत्रिमंडल में बैठने वाले बाकी अफसरों की भी यह जिम्मेदारी होती है कि सरकार के नियमों के खिलाफ अगर कोई फैसला लिया जा रहा है, तो उसे कैबिनेट की जानकारी में लाए, और मुख्यमंत्री-मंत्रियों को बताए कि ऐसा फेरबदल या संशोधन कानून या नियम के खिलाफ रहेगा। लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक दबदबे की वजह से अफसर भी दबंग नेताओं के सामने मुंह नहीं खोलते, और गलत काम शुरू करने और आगे बढ़ाने का सिलसिला चल निकलता है। आज भूपेश बघेल सरकार के खिलाफ जितने किस्म के मामले अदालतों में गए हैं, या जिनके खिलाफ एफआईआर हुई है, उनको अगर देखें तो यह साफ है कि अखिल भारतीय सेवाओं के बड़े-बड़े अफसर इसमें नेताओं के साथ गिरोहबंदी करके जुर्म कर रहे थे। इनमें ऐसे अफसर भी थे जो कि अपने मामले-मुकदमे के बाद भी संविदा नियुक्ति पर थे, या सबसे अधिक ताकतवर थे। यह देश और दूसरे प्रदेशों की बहुत सी सरकारों के इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है कि जब चुने गए नेताओं के साथ अफसर भागीदारी कर लेते हैं, तभी अदालत तक पहुंचने लायक भ्रष्टाचार हो पाता है। अगर अफसर ही फाइलों पर नियमों का हवाला देकर गलत काम रोकने लग जाएं, तो फिर कोर्ट-कचहरी और जेल के लायक भ्रष्टाचार और जुर्म हो भी नहीं पाएंगे। 

सरकार में गलत कामों की एक गुंजाइश इससे भी निकलती है कि तरह-तरह की जांच और मुकदमों से घिरे हुए अफसरों को भी प्रमोशन देने पर आमादा नेता इसमें कामयाब हो जाते हैं, और इस प्रक्रिया में शामिल अफसर भी सत्ता के दबाव के सामने दंडवत हो जाते हैं। हिन्दुस्तान की नौकरशाही में ऐसी मिसालें कम नहीं हैं कि ईमानदार अफसरों ने सरकार को बड़ी गलतियां करने से रोक ही दिया। लेकिन इसके लिए अफसरों की खुद की साख अच्छी होनी चाहिए, और उनके हाथ कालेधन से रंगे हुए नहीं होने चाहिए। हम इस बात को कई बार उठा चुके हैं कि राज्यों में आने वाली नई सरकारें पिछली सरकारों से दो किस्म के सबक ले सकती हैं, पहला सबक तो यह कि कैसे-कैसे काम न किए जाएं ताकि नई सरकार को भी जेल जाने की जरूरत न पड़े, और दूसरा सबक यह कि पिछली सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के जो रास्ते निकाले गए हैं, उन पर तेज रफ्तार से आगे बढक़र खुद भी कैसे नए फ्लाईओवर बनाए जा सकते हैं। हर सरकार को इन दो में से किसी एक किस्म के सबक को लेने की आजादी रहती है। हर सरकार को यह भी पता रहता है कि पिछली सरकार के किन अफसरों ने कैसे-कैसे गलत काम करके नेताओं की भी कमाई करवाई, और खुद भी पैसा बनाया। कुछ नए नेता ऐसे तजुर्बे का खुद भी इस्तेमाल करने लगते हैं, लेकिन जो समझदार होते हैं, वे यह कसम भी खा सकते हैं कि भ्रष्ट तरीकों से दूर कैसे रहा जाए। 

हमारा मानना है कि सरकार को जांच और मुकदमों में घिरे हुए अफसरों और कर्मचारियों को दुबारा काम पर नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे जनता को बहुत ही खराब सरकार मिलती है। सरकार को खुद भी यह तय करना चाहिए, और अगर राज्यपाल के संवैधानिक अधिकारों में आए, तो उन्हें भी इस मुद्दे को उठाना चाहिए ताकि सरकार संदिग्ध निष्ठा वाले अफसरों की मोहताज न रहे। वैसे भी हमारा मानना है कि संविदा नियुक्ति किसी अधिकारी पर भी एक किस्म का अहसान होती है, और अगर सरकार को संविदा नियुक्ति देनी ही है, तो उसके लिए ऊंची साख और ईमानदार ट्रैक रिकॉर्ड वाले अफसर-कर्मचारी को ही छांटना चाहिए। यह काम उतना मुश्किल भी नहीं रहता, और सरकार के अपने ढांचे में आई गंदगी को धीरे-धीरे करके कम किया जा सकता है, या फिर धीरे-धीरे ढील देकर शासन को पूरा बर्बाद भी किया जा सकता है।

छत्तीसगढ़ सरकार ने पिछली सरकार का यह संशोधन खत्म करके ठीक किया है, और इसका फायदा पाने वाले अफसरों के कामकाज का मूल्यांकन करना चाहिए कि कैसे लोगों को बढ़ावा देकर पिछली सरकार ने कैसे-कैसे काम किए थे। और अगर किसी सरकार का यह मानना है कि उसका काम किसी अफसर के बिना चल ही नहीं सकता है, और उस अफसर के खिलाफ जांच चल रही है, तो यह सरकार के हाथ में रहता है कि जांच को तेजी से पूरा करे, और उसके बाद जांच में बेकसूर निकलने पर उस अफसर को संविदा नियुक्ति दे। लेकिन नजरों का इतना सा पर्दा भी न रखना तो बड़ा ही शर्मनाक है।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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