संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सूखा बेंगलुरू बाकी देश के लिए खतरे की घंटी..
13-Mar-2024 4:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सूखा बेंगलुरू बाकी देश के लिए खतरे की घंटी..

हिन्दुस्तान की कम्प्यूटर राजधानी कहे जाने वाले देश के तीसरे सबसे अधिक आबादी के शहर बेंगलुरू का बिना पानी हाल-बेहाल है। लोग शहर छोड़ रहे हैं, और कंपनियों में कह रहे हैं कि उन्हें दूसरे शहर से काम करने दिया जाए। राज्य के मुख्यमंत्री सोशल मीडिया पर आईटी कंपनियों से अपील कर रहे हैं कि वे वर्क फ्रॉम होम अनिवार्य कर दें, ताकि लोग दूसरे शहरों से काम कर सकें। पानी की कमी से समाज में टैंकर खरीदने की ताकत रखने वाले और उतनी राजनीतिक पहुंच वाले लोगों के आसपास के कमजोर लोगों से रिश्ते खराब हो रहे हैं। इमारतों ने वहां रहने वाले बाशिंदों के लिए पानी में भारी कटौती कर दी है, और चारों तरफ पानी को किसी भी तरह बचाने की बात हो रही है। शहर में 16 हजार ट्यूबवेल हैं, जिनमें से 7 हजार सूखे हैं। यह शहर जो कि देश में एक सबसे महंगे, कम्प्यूटर-कारोबार का केन्द्र है, आज रात-रात जागकर पानी भरने वाले लोगों की जगह हो गया है। कोई शहर कितनी जल्दी दीवालिया हो सकता है, आज का बेंगलुरू इसकी एक बड़ी मिसाल है, और बाकी हिन्दुस्तान, या कि बाकी दुनिया के लिए एक सबक भी है। 

हम कुछ अरसा पहले ही यह बात उठा चुके हैं कि हिन्दुस्तान में किस तरह जमीन में गहरे ट्यूबवेल खोदकर बहुत ताकतवर पम्प लगाकर लोग अंधाधुंध पानी उलीचते रहते हैं, और यह पूरा सिलसिला पूरी तरह बेकाबू है। हम अपने आसपास यह भी देखते हैं कि किस तरह लोग आज भी कारें धोने में पानी बर्बाद कर रहे हैं, और ताकतवर पम्प लगाकर उससे मकान-दुकान के सामने की फर्श-सडक़ भी धोई जाती है। लोग बड़े-बड़े लॉन लगाते हैं, और उस घास को धान की फसल की तरह सींचते हैं। लोग छतों पर गार्डन लगाते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे गर्म देश में छतों पर पौधों को जिंदा रखने के लिए पैसे वाले लोग टैंकरों से भी पानी बुलवाते हैं। हरियाली के नाम पर आबादी का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह के पेड़-पौधे लगाता है, लॉन लगाता है, उसमें से अधिकतर पानी की खपत वाले रहते हैं। कुल मिलाकर मतलब यह है कि आज जिनके हाथ पानी लग गया है, वे उसे बाकी तमाम जिंदगी की सहूलियत गिनकर चल रहे हैं, उनकी सेहत पर इससे भी फर्क नहीं पड़ रहा कि हर बरस जलस्तर नीचे जा रहा है। शहरी-संपन्न तबका पानी की अपनी रोज की बेकाबू खपत की तरफ ध्यान भी नहीं देता है क्योंकि उसके पम्प जमीन को खाली करने की ताकत रखते हैं। 

हिन्दुस्तान में पानी की बर्बादी को रोकने का एक तरीका हमें यह दिखता है कि हर ट्यूबवेल पर मीटर लगाया जाए ताकि कितना पानी निकाला जा रहा है, उस पर टैक्स लिया जा सके। जब लोग टैक्स देते हैं तो अधिकतर लोग फिजूलखर्ची बंद कर देते हैं। एक बहुत छोटा सा अतिसंपन्न तबका ऐसा जरूर हो सकता है जो कि इसके बाद भी पानी की फिजूलखर्ची को अपनी शान-शौकत माने, लेकिन वह खपत बहुत बड़ी नहीं होगी। देश में गाडिय़ों को धोने पर तुरंत रोक लगनी चाहिए, और म्युनिसिपलों को भी बिजली के बिल की तरह अधिक पानी-खपत वाले लोगों पर भुगतान का रेट बढ़ाते चलना चाहिए। नागपुर जैसे कुछ शहरों में जहां पर निजी कंपनी के साथ मिलकर सरकार या म्युनिसिपल ने पानी पर टैक्स लगाया है, वहां पानी की खपत एकदम से कम हो गई है। और सवाल सिर्फ सरकार या म्युनिसिपल की कमाई का नहीं है, सवाल पानी की किफायत की आदत का भी है जो कि पानी पर टैक्स लगे बिना सुधरने वाली नहीं है। 

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दूसरी बात यह कि शहरों में नए मकानों और इमारतों पर अंडरग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग की जो शर्त लगाई जाती है, वह अधिकतर जगहों पर कागजी भर रहती है, और उस पर अमल नहीं होता। इस पर एक ईमानदार कड़ाई बरतने के साथ-साथ हर शहर को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक अंडरग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग का इंतजाम करना चाहिए। शहरों से परे भी बारिश में जिन नदियों में बाढ़ आती है, उनके कैचमेंट एरिया में बहुत बड़े-बड़े तालाब खोदने चाहिए ताकि ओवरफ्लो बह रही नदियों का पानी उनमें भर सके, और फिर धीरे-धीरे जमीन के भीतर जलस्तर को बढ़ाने के काम आ सके। आज एक दिक्कत यह भी है कि तालाब बनाने की सारी योजनाएं मजदूरों को रोजगार देने के हिसाब से चलती हैं, और जमीन की जरूरत के हिसाब से ग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग के तालाब नहीं बनाए जाते जिन्हें कि मशीनें लगाकर भी बनाना चाहिए। इन तालाबों को ग्रामीणों की निस्तारी के या खेतों की सिंचाई के हिसाब से ही नहीं बनाना चाहिए बल्कि नदियों की बाढ़ घटाने के हिसाब से भी बनाना चाहिए। 

पानी की यह कमी पूरी तरह इंसानों की पैदा की हुई है। लोगों ने शहरी जिंदगी ऐसी बना ली है कि चौथाई लीटर पेशाब बहाने के लिए भी मूत्रालय में पांच लीटर पानी फ्लश किया जाता है। यह तो कुदरत ने ही बेंगलुरू जैसे एक बड़े शहर को मॉडल बनाकर अपने तेवर दिखा दिए हैं, और बाकी शहरों के सम्हल जाने की एक संभावना खड़ी की है। केन्द्र सरकार से लेकर म्युनिसिपल और पंचायतों तक हर किसी को पानी को लेकर जाग जाना चाहिए, वरना जिस तरह कर्नाटक सरकार को आज अपनी राजधानी से लोगों की आबादी घटाने की फिक्र करनी पड़ रही है, वह नौबत किसी भी शहर की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह चौपट कर देगी। और अभी तो गर्मी के मौसम का पहले महीने, मार्च का पहला पखवाड़ा ही चल रहा है, अभी तो बारिश आने में करीब तीन महीने बाकी हैं, और तब तक जिंदगी कैसी रह जाएगी, इसका अंदाज भी लगाना मुश्किल है। 

अभी तो हम सिर्फ पानी की खपत करने वाले इंसानों से जुड़ी बातें कर रहे हैं। अभी मौसम के बदलाव की वजह से बर्फ से लदी पहाडिय़ों पर पडऩे वाले फर्क, और नदियों के बहाव को मोडऩे की योजनाओं की व्यापक चर्चा नहीं कर रहे हैं। ऐसी चर्चा स्थानीय संस्थाओं के काबू के बाहर की होगी। इसलिए पहले तो स्थानीय निर्वाचित संस्थाएं और उनके नागरिक-निवासी क्या कर सकते हैं, इसी की फिक्र तुरंत होना चाहिए। हमारे हिसाब से पानी की मीटरिंग सबसे पहला कदम हो सकता है, और यह प्राकृतिक साधन का एक समानतावादी इस्तेमाल भी होगा। देखें कि सरकारें जनता पर जरा सा भी अनुशासन लादने का हौसला दिखा सकती हैं या नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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