संपादकीय
FACEBOOK PRADEEP SHARMA
मुम्बई पुलिस के एक चर्चित और विवादास्पद मुठभेड़ विशेषज्ञ प्रदीप शर्मा को बाम्बे हाईकोर्ट ने एक बेकसूर के कत्ल के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाई है। इस मामले में प्रदीप शर्मा के साथ-साथ अदालत ने 12 अन्य पुलिसवालों को भी उम्रकैद दी है। यह फैसला 2006 में हुए एक कत्ल का है जिसमें छोटा राजन गिरोह के एक गुंडे को प्रदीप शर्मा और उनकी टीम ने मुठभेड़ के नाम पर साजिशन मार गिराया था। उस वक्त मुम्बई में अंडरवल्र्ड के बीच ऐसी लड़ाईयां चलती रहती थीं, और यह चर्चा भी रहती थी कि किस तरह मुम्बई पुलिस के कुछ मुठभेड़ विशेषज्ञ अफसर एक गिरोह के लिए भाड़े पर काम करते हुए दूसरे गिरोह के लोगों को मार गिराते थे। बाद में जब ऐसे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहे जाने वाले अफसर बहुत अधिक चर्चित हो गए, तो उनमें से कई लोग जमीन-जायदाद खाली करवाने का ठेका लेने लगे, और मुम्बई के करोड़पतियों-अरबपतियों से कई और तरह की वसूली-उगाही करने लगे। निचली अदालत ने प्रदीप शर्मा को पूरी तरह छोड़ दिया था, लेकिन हाईकोर्ट की दो महिला जजों की बेंच ने इस जुर्म को पूरी तरह सही पाया, और यह सजा सुनाई है। इस एक फैसले से यह साफ होता है कि किस तरह जब पुलिस को मनमानी करने की आजादी मिलती है तो उसके खतरनाक नतीजे होते हैं।
हमने बात शुरू तो मुम्बई पुलिस से की है लेकिन यह हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में बहुत सी जगहों पर दूसरे हालात में भी देखने मिलता है कि जब सरकारी वर्दी को मानवाधिकार खत्म करने की छूट मिलती है, तो वह किस खतरनाक नौबत तक पहुंच जाती है। हमने कश्मीर, उत्तर-पूर्व, पंजाब जैसे बहुत से आतंक और उग्रवाद प्रभावित इलाकों को देखा है कि वहां पर राज्य की पुलिस या वहां तैनात अर्धसुरक्षा बल किस तरह मनमानी करने लगते हैं, और आतंकग्रस्त इलाकों में हिंसा पर काबू पाने के लिए सरकारी ताकतें अपनी बंदूकों को इस तरह की छूट भी दे देती हैं जिससे किसी तरह हालात पर काबू पाया जा सके। इन सरहदी राज्यों से परे छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी हमने देखा है कि जहां नक्सल प्रभावित बस्तर में पुलिस और दूसरे सुरक्षाबलों की लगातार, लंबी, और बहुत बड़ी मौजूदगी कई किस्म के मानवाधिकार खत्म करती है। दुनिया में जहां कहीं हिंसक और हथियारबंद टकराव लंबा चलता है, उन तमाम जगहों पर सरकारी बंदूकें भी लोगों के बुनियादी हकों को कुचलने की आदी होने लगती हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर में तो हुए एक बड़े सारकेगुड़ा हत्याकांड की 2012 में की न्यायिक जांच से यह भी साबित हुआ है कि वहां मौजूद पुलिस ने 17 बेकसूर और निहत्थे आदिवासियों को बैठकर एक त्यौहार की तैयारी करते हुए घेरा, और मार डाला। पिछली भूपेश सरकार के वक्त यह जांच रिपोर्ट आ गई थी, लेकिन अफसोस यह है कि उसके बाद भी इस रिपोर्ट पर सरकार ने आगे कोई कार्रवाई नहीं की है। न्यायिक जांच रिपोर्ट में यह लिखा गया कि इन 17 लोगों को नक्सली बताने का पुलिस का दवा बिल्कुल फर्जी था। बस्तर में आदिवासियों की मदद करने के लिए काम कर रही कुछ महिला वकीलों ने इस मामले में आदिवासियों की मदद की थी, और अदालत में उनका केस लड़ा था, बाद में न्यायिक जांच की रिपोर्ट आने पर भी सरकार ने आगे कोई कार्रवाई नहीं की।
इसलिए मुम्बई जैसे महानगर से लेकर बस्तर के जंगलों में बसे हुए गांवों तक, जहां कहीं सरकारी वर्दियों को मनमानी की छूट मिलती है, वे कातिल हो जाती हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र में पुलिस और सुरक्षाबलों के ऊपर आने वाली जिम्मेदारी छोटी नहीं रहती है, इसी तरह अदालतों में किसी हथियारबंद आंदोलन के खिलाफ कुछ साबित करना भी आसान नहीं रहता है। लेकिन इतना जरूर रहता है कि अदालत के लंबे और थका देने वाले सिलसिले के बाद इंसाफ की कुछ उम्मीद बनती है। खासकर जिन मामलों में लोगों को सजा होती है, वे सचमुच ही गुनहगार रहने की संभावना रखते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था में कई गुनहगार छूट सकते हैं, लेकिन बेगुनाह के फंसने की गुंजाइश कम रहती है। ऐसे ही अदालती हाल को देखकर देश के बहुत से लोगों को लगता है कि पहली नजर में जो मुजरिम दिख रहे हैं उन लोगों को मुठभेड़ में मार दिया जाना चाहिए। उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में हम इस बात को देख रहे हैं जहां भाजपा के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुलिस बात-बात में मुठभेड़ कर रही है, और उसे मुठभेड़ में मारा जाना बता रही है। लोगों का अंदाज है कि पुलिस बेरहमी से और सोच-समझकर लोगों को मारती है जिसे मुठभेड़ में मौत की तरह दर्ज किया जाता है।
जब लोगों के सामने मुठभेड़-हत्या जैसे आसान और तुरत-फुरत दिए जाने वाले फैसले और सजा का एक विकल्प पेश किया जाता है, तो धीरे-धीरे लोगों को यही तरीका ठीक लगने लगता है। अदालतों में दस-बीस बरस फैसले का इंतजार करने के बजाय लोगों को लगने लगता है कि बुलडोजर लेकर किसी आरोपी के घर-दुकान को तुरंत गिरा देना चाहिए, और आरोपी को भी भागने की कोशिश में बताते हुए मार डालना चाहिए। लोगों के बीच ऐसी आदिम हिंसा दसियों हजार बरस पुरानी है, और लोकतंत्र का बोझ उनकी समझ पर पिछली पौन सदी का ही है। इसलिए पहला मौका मिलते ही लोग फिर पत्थरयुग की सोच पर पहुंचने को आसान समझते हैं। उन्हें लोकतंत्र की लचीली न्याय व्यवस्था पसंद आना तेजी से बंद हो जाता है, और जब तक वे उसके निशाने पर नहीं आ जाते, तब तक वे मुठभेड़-हत्याओं की तारीफ में डूबे रहते हैं।
मुठभेड़-हत्याओं और सुरक्षाबलों की हिंसा, मानवाधिकारों को कुचले जाने के खिलाफ लोगों की जागरूकता और समझ के लिए लोकतंत्र की एक बुनियादी समझ जरूरी है जो कि कुछ मुश्किल बात है। अदालत से दस-बीस बरस बाद सजा होने के बजाय लोगों को यह बेहतर लगता है कि जिस पर शक हो उसे चौराहे पर घेरकर पत्थरों से मार डाला जाए। इस किस्म का तालिबानी इंसाफ लोगों को तब तक सुहाता है जब तक कि वे पत्थरों के निशाने पर न रहें। जिस तरह तालिबानी राज में औरतों और मर्दों को चौराहों पर कोड़े लगाए जाते हैं, हिन्दुस्तान में भी अगर जनमत संग्रह कराया जाए, तो बहुत से लोग इसी किस्म का इंसाफ पसंद करेंगे, क्योंकि इन मामलों में सजा पाने वाली पीठ उनकी अपनी नहीं रहती है। जब पुलिस को हिंसक और गैरकानूनी काम करने की छूट दी जाती है, तो वे महाराष्ट्र के कई चर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की तरह हो जाते हैं। यह सिलसिला लोकतंत्र में बहुत खतरनाक है, और फिल्मों की तरह जब असल जिंदगी में भी जनता मौके पर किए गए ऐसे इंस्टेंट नूडल्स सरीखे इंसाफ की प्रशंसक हो जाती है, तो लोकतंत्र बहुत कमजोर हो जाता है। ऐसी नौबत से बचने की जरूरत है।