संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भारतीय लोकतंत्र एकदम से इतनी बुरी तरह फ्लॉप कैसे दिखने लगा है?
22-Mar-2024 4:34 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  भारतीय लोकतंत्र एकदम से इतनी बुरी तरह फ्लॉप कैसे दिखने लगा है?

भारत में पिछले दो-तीन हफ्तों से खासकर सुप्रीम कोर्ट, और चुनाव आयोग, राजभवनों को लेकर जिस तरह की खबरें आ रही हैं, जिस तरह से केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां काम कर रही हैं, जिस तरह से बंगाल जैसे राज्य में वहां की पुलिस काम कर रही है, या जिस तरह छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में पिछली सरकार के कामकाज का ब्यौरा सामने आ रहा है, उन सबसे कुल मिलाकर यह लग रहा है कि भारतीय लोकतंत्र का एक बड़ा हिस्सा फ्लॉप शो साबित हो चुका है। सरकारें अदालतों से लड़ रही हैं, सत्तारूढ़ पार्टियां जगह-जगह मुजरिमों की तरह काम कर रही हैं, और राज्यपाल मानो देश में अंग्रेज सरकार के राजनीतिक एजेंट बनकर रियासतों में काम कर रहे हैं। पिछले दो-चार हफ्तों का सुप्रीम कोर्ट का एकदम से असरदार रूख अगर देखें, तो भारतीय लोकतंत्र में बस वही काम करते दिख रहा है। संसद और विधानसभाओं में सत्तारूढ़ पार्टियों की मनमानी चल रही है, वहां संविधान की कोई जगह नहीं रह गई है, महाराष्ट्र विधानसभा और राजभवन जैसी जगहें सुप्रीम कोर्ट से खुला टकराव ले रही हैं, अभी कल ही सुप्रीम कोर्ट इस बात पर हक्का-बक्का था कि तमिलनाडु के राज्यपाल किस तरह सुप्रीम कोर्ट के हुक्म को मानने से इंकार कर रहे हैं, किस तरह केन्द्र सरकार मीडिया के तथ्यों की जांच के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने के लिए फैक्टचेक यूनिट बना रही थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रोका है, और सुप्रीम कोर्ट ने कल ही इस बात पर भी हैरानी और अफसोस जताया है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में केन्द्र सरकार ने किस तरह दो सौ नामों में से दो घंटे में दो नाम छांट लिए, अदालत ने इसे चुनाव आयुक्त नियुक्ति कमेटी में सदस्य नेता-प्रतिपक्ष के अधिकारों के खिलाफ माना है। 

इन दिनों चर्चित सबसे बड़े मामले को देखें, तो चुनावी बॉंड के नाम पर जितना बड़ा वसूली-उगाही का फर्जीवाड़ा सामने आया है, उसने अगर देश को अब तक हक्का-बक्का नहीं किया है, तो आने वाले दिनों में जब मीडिया और सोशल मीडिया पर इसका साफ-साफ खुलासा होगा, बार-बार होगा, तो जनता को शायद कुछ हद तक यह समझ आएगा कि किस राजनीतिक दल को किस कारोबारी ने किस वजह से, किस तारीख को कितने करोड़ दिए थे।  इस मामले में स्टेट बैंक ने जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के बहुत साफ-साफ फैसले की बार-बार खिल्ली उड़ाई है, उससे लगता है कि देश का सबसे बड़ा सरकारी क्षेत्र का बैंक केन्द्र सरकार के चपरासी की तरह काम कर रहा था, और उसे सुप्रीम कोर्ट को भी उसकी औकात दिखाने में कोई हिचक नहीं हो रही थी। चुनावी बॉंड से जुड़ी हुई जानकारियां बैंक से निकलवाने में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और पूरी की पूरी बेंच मानो बैंक चेयरमैन की बांह मरोड़ते खड़ी थी, फिर भी बैंक टस से मस नहीं हो रहा था। जब यह समझ आया कि आखिरी चेतावनी पर जानकारी उजागर न करने का मतलब जेल जाना होगा, उस दिन बैंक चेयरमैन ने जानकारी दी, और हलफनामा दिया। 

इससे परे अभी कुछ हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट में ही सात जजों की संविधानपीठ ने सर्वसम्मति से यह तय किया कि संसद या विधानसभा के भीतर सवाल पूछने या भाषण देने के लिए बाहर रिश्वत लेने वाले सांसदों और विधायकों पर मुकदमे चलेंगे। इससे सुप्रीम कोर्ट की ही पांच जजों की एक संविधानपीठ का तीन-दो के बहुमत से दिया गया 1998 का वह फैसला खारिज हुआ जिसमें सदन के भीतर के कामकाज के लिए बाहर रिश्वत लेने को भी जुर्म नहीं माना गया था। इसी के आधार पर देश में दर्जनों सांसद और विधायक जेल में रहने के बजाय अब तक मजा कर रहे थे। आगे भी देखना होगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें अपने पसंदीदा मुजरिम नेताओं को बचाने के लिए और कितने रास्ते निकालती हैं, और क्या हम अपने जीते-जी ऐसे रिश्वतखोर सांसद-विधायक जेल जाते देख पाएंगे। इस तरह पिछले कुछ हफ्तों में सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा साफ-साफ जनहिमायती रूख दिखाया है, और सरकार की नाखुशी की परवाह किए बिना लगातार फैसले दिए हैं, जो कि सारे के सारे न्यायसंगत और तर्कसंगत लगते हैं। 

अब सबसे ताजा मामला कल रात दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ईडी द्वारा एक शराब घोटाले के आरोप में गिरफ्तार करने का है। दिल्ली के कुछ दूसरे मंत्री इसी मामले में लंबे समय से जेल में चल रहे हैं, और ऐसा लग रहा है कि ईडी जिस कानून के तहत कार्रवाई करती है, उस कानून में जमानत से रोकना ही सजा है। ईडी के मामलों में सजा तो बहुत ही कम लोगों को होती है, लेकिन अधिकतर लोग महीनों और बरसों तक बिना जमानत पड़े रह जाते हैं, और यही इस कानून के तहत एक ऐसी सजा है जो कि अदालती फैसले के बिना ही हो जाती है। देश भर में यह आम चर्चा है और अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों का निशाना सिर्फ विपक्षी पार्टियों और उनके नेताओं पर रहता है। देश भर में केन्द्र के सत्तारूढ़ गठबंधन के लोगों पर शायद ही कभी कोई कार्रवाई होती है, और लोगों का यह भी कहना है कि विपक्षी पार्टियों में रहते अजीत पवार जैसे जिन लोगों पर कई-कई जुर्म दर्ज हो चुके रहते हैं, वे सत्तारूढ़ गठबंधन में जाते ही खत्म हो जाते हैं। केन्द्र की जांच एजेंसियों को लेकर देश भर में अगर ऐसी साख बन रही है, तो वह भी लोकतंत्र के भीतर एक बहुत बड़ा खतरा है। 

लेकिन हमने पश्चिम बंगाल से लेकर छत्तीसगढ़ तक, बहुत से राज्यों में गैरभाजपा-गैरएनडीए पार्टियों की सरकारों में देखा है कि किस तरह राज्यों की जांच एजेंसियां भी राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों को नापसंद, उनके विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई करती हैं, और जिस तरह इन राज्यों में सत्तारूढ़ नेताओं, और उनको पसंद आला अफसरों के खिलाफ पहले से चल रही गंभीर कार्रवाईयों को भी खत्म कर दिया जाता है। कई राज्य इस तरह राज्यों की जांच एजेंसियों की मनमानी देख रहे हैं। हमने आज की बात की शुरूआत भारतीय लोकतंत्र के एक बड़े हिस्से की नाकामयाबी को लेकर भी की है कि जिन बातों को लेकर मोदी सरकार पर तोहमतें लगातार लगती हैं, अपनी जांच एजेंसियों का ठीक वैसा ही इस्तेमाल कई दूसरी राज्य सरकारें अपने-अपने इलाकों में करती हैं। जिस तरह चुनावी बॉंड को लेकर मोटेतौर पर भाजपा पर वसूली का आरोप लग रहा है, उस तरह की वसूली छोटे पैमाने पर, कम हद तक, टीएमसी, कांग्रेस, और टीआरएस जैसी पार्टियों ने भी की है, और छत्तीसगढ़ तो इस बात की एक बड़ी जलती-सुलगती मिसाल है कि कोई राज्य सरकार किस तरह माफिया अंदाज में उगाही कर सकती है। 

इस तरह अब यह लगता है कि सुप्रीम कोर्ट आज देश में अकेला रह गया है जो कभी चुनाव आयोग पर काबू करता है, तो कभी चुनाव आयुक्त बनाने वाली केन्द्र सरकार पर, कभी वह राजभवनों को पटरी पर लाता है, तो कभी ईडी जैसी जांच एजेंसी को फटकारता है कि वह किस तरह बिना मुकदमे गिरफ्तार लोगों को बिना जमानत जेल में अधिक से अधिक समय तक रखने का काम कर रही है। बहुत सी राज्य सरकारों को भी दूसरे मामलों में सुप्रीम कोर्ट की फटकार पड़ रही है कि वे गलत तरीके से जुर्म दर्ज कर रही हैं, गलत कार्रवाई कर रही हैं। सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय लोकतंत्र ऐसी किसी नौबत के हिसाब से बना है कि यहां पर संसद और विधानसभाओं में अपने रिश्वतखोर सदस्यों को बचाने का काम हो, उनके खिलाफ मुकदमे न चलने दिए जाएं, सरकारें पूरी तरह से नाजायज काम करें, राज्यपाल जो कि संविधान की शपथ दिलाते थकते नहीं हैं, वे संविधान के ठीक खिलाफ काम करें, और खुद न्यायपालिका में सुप्रीम कोर्ट के नीचे के कई हाईकोर्ट बहुत ही खराब फैसले देते रहें। क्या भारतीय लोकतंत्र इस तरह चल सकता है? यह बहुत बड़ा सवाल है, और हर पांच बरस में हो रहे मतदान को ही एक कामयाब लोकतंत्र मान लेना बहुत बड़ी गलती होगी क्योंकि यह मतदान भी दर्जनों किस्म के नाजायज और गैरकानूनी प्रभावों के घेरे में रहता है। भारतीय लोकतंत्र पर एक बार फिर सोच-विचार की जरूरत है कि यह चुइंगगम जैसा  हो गया है जिसे हर ताकतवर दांत तरह-तरह से चबाकर थूक सकते हैं। 

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