संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...पांव धोने का पोप के पाखंड से किसका भला?
30-Mar-2024 4:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : ...पांव धोने का पोप के  पाखंड से किसका भला?

दुनिया के रोमन कैथोलिक समुदाय के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप फ्रांसिस ने अभी वेटिकन के मुख्यालय वाले रोम की एक जेल में एक धार्मिक समारोह में 12 महिला कैदियों के पैर धोए, और चूमे। खबरों में कहा गया है कि ये महिलाएं पोप के इस काम से रो पड़ीं। हर बरस आज के दिन इस धार्मिक समारोह से ईसा मसीह द्वारा अपने 12 शिष्यों के पैर धोने की बाइबिल की कहानी को याद किया जाता है, और इसके बाद ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया था। उसी की याद में पोप हर बरस बीते कल के दिन इस तरह लोगों के पैर धोते हैं। पोप ने इस मौके पर कहा कि इस समारोह का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसमें ईसा मसीह ने अपने आपको औरों से नीचे दिखाया और साबित किया था, और सेवा की राह दिखाई थी। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में भी हिन्दू धर्म के कई लोग इस तरह पैर धोने का काम करते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कई सफाई कर्मचारियों के पैर धोते दिखाए जाते हैं, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में हिन्दुत्ववादी नेता जब ईसाई बने हुए आदिवासियों को हिन्दू बनाते हैं तो पैर धोकर उनकी ऑपरेशन ‘घर वापिसी’ करवाई जाती है। हिन्दू धर्म की कई परंपराओं में लोगों के पैर धोने का रिवाज है, और कहीं दामाद के, तो कहीं लडक़ी के ससुर के पैर धुलते दिखते हैं। 

पैर धोने का एक महत्व यह दिखता है कि आमतौर पर लोगों के पैर उनके बदन के बाकी हिस्सों के मुकाबले कुछ गंदे रहते हैं, और अपने हाथों से जब कोई दूसरों के पैर धोते हैं, तो इसे एक किस्म का सम्मान देना माना जाता है। अब सवाल यह उठता है कि पैर धोने के इस दिखावे से किसको क्या हासिल होता है? क्या प्रधानमंत्री के हाथों पैर धुल जाने से सफाईकर्मियों की गटर और नाली में मौतें कम हो गई हैं? क्या ऐसे समारोह के बाद लोगों ने सफाई कर्मचारियों से भेदभाव बंद कर दिया? दुनिया में शायद ही कोई ऐसे धर्म होंगे जो कि जाति, आर्थिक संपन्नता, शिक्षित-अशिक्षित, औरत-मर्द का फर्क न करते हों। पोप जिस ईसाई धर्म के मुखिया हैं वह पश्चिम के विकसित लोकतंत्रों का सबसे प्रमुख धर्म है, लेकिन लोकतंत्र इस धर्म को छू भी नहीं गया है। कोई महिला पोप नहीं बन सकती, ऊपर से लेकर नीचे तक महिलाएं इस धर्म के ढांचे में कभी पुरूष की बराबरी नहीं कर सकतीं। यह धर्म दुनिया में सबसे बड़ी बेइंसाफी पर आंखें मूंदे रहता है, और जंगखोर देशों को कोई नसीहत नहीं देता। यह यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस को हमले से नहीं रोकता, बल्कि अभी पोप ने एक सार्वजनिक बयान देकर फौजी हमले से जख्मी यूक्रेन को यह नसीहत दी है कि वह रूसी हमले पर जवाबी कार्रवाई बंद करे, और रूस के साथ समझौता करे। यह कुछ उसी किस्म की बात है कि मुम्बई के किसी कारोबारी को पोप सलाह दें कि वे दाऊद इब्राहिम के खिलाफ करवाई गई रिपोर्ट वापिस ले, और दाऊद को हफ्ता देना शुरू करे। इस पोप ने ईसाई देश अमरीका को नहीं रोका कि वह इजराइल को जो हथियार दे रहा है उससे बेकसूर और तकरीबन निहत्थे फिलीस्तीनी मारे जा रहे हैं। दुनिया में जहां-जहां बड़ी बेइंसाफी में ईसाई देश हमलावर होते हैं, वहां पोप का मुंह नहीं खुलता। और तो और दुनिया भर के अपने चर्चों में पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण को देखते हुए भी एक के बाद दूसरे पोप इसकी अनदेखी करते रहे। धर्म का मूल चरित्र शोषण का रहता है, और शायद ही कोई धर्म इससे परे रहता हो।

हमारा यह मानना है कि धर्म जिन लोगों के पांव धोने का दिखावा करता है, वह सिर्फ उन्हें धोखा देता है। अगर धर्म इस पाखंड के बजाय सामाजिक न्याय की बात करे, तो शोषित और दबे-कुचले लोग, अपने गंदे पैरों सहित अधिक खुश और सुखी रह सकते हैं। लेकिन सामाजिक न्याय बहुत मुश्किल काम होगा, और ईसाई धर्म मानने वाले लोग भी पोप की बात सुनकर फौजी हमले बंद नहीं करेंगे, इसलिए पोप भी वैसी कोई नसीहत देकर अपनी जुबान खराब नहीं करते। दूसरे धर्मों का भी यही हाल है। अलग-अलग कई किस्म के धर्मस्थानों में जिस तरह आतंकी पलते हैं, जिस तरह पुजारी बलात्कार करते हैं, महिलाओं को देवदासी बनाकर उनसे देह का धंधा करवाया जाता है, इन सबको देखें तो साफ दिखता है कि न तो किसी ईश्वर, और न ही उसके किसी एजेंट को हिंसा या शोषण से परहेज है। जिस ईश्वर को सर्वत्र, सर्वज्ञ, और सर्वशक्तिमान माना जाता है, उसकी आंखों के सामने बच्चों से बलात्कार होते हैं, और कण-कण में मौजूद ईश्वर उसे देखते रहते हैं। जिसे सर्वशक्तिमान मानकर लोग पूजा-उपासना करते हैं, उसकी शक्ति अपने बलात्कारी भक्तों को रोक नहीं पाती, और न ही बेकसूर बच्चों को बचा पाती है। धर्म का पूरा ढकोसला इसी तरह का है, और किस्से-कहानियों में ईश्वरों की जो अपार शक्ति बताई जाती है, वह असल जिंदगी में सबसे भयानक किस्म की हिंसा को रोकने के काम नहीं आती, और न ही वह दुनिया के खरबपतियों को इतनी समझ दे पाती कि वे दुनिया में भूख से मरते हुए लोगों की मदद करें। 

इसलिए चाहे जिस किस्म के रीति-रिवाज के लिए किसी धर्म के लोग जब गरीबों के पांव धोते हैं, पांव चूमते हैं, तो वे उन गरीबों को बेहतर इंसान साबित करने के बजाय अपने आपको अधिक महान इंसान साबित करने में लगे रहते हैं। लोगों को इस धार्मिक पाखंड को समझना चाहिए क्योंकि यह लोगों के शोषण का एक और जरिया रहता है। अधिक विनम्रता, और ओढ़ी हुई महानता शोषकों को और अधिक ताकत दिलाने के लिए इस्तेमाल होती हैं। जब दुनिया के सबसे जलते-सुलगते मुद्दों पर धर्मगुरूओं का मुंह न हिटलर के वक्त खुला, न अमरीका के खिलाफ कभी खुला, और न इजराइल के खिलाफ, वे धर्मगुरू अपने-अपने साम्राज्य में अन्याय और असमानता के शिकार लोगों के पांव धोने का प्रतीकात्मक काम करके शोषण के जाल को मजबूत ही करते हैं। इनकी इस अतिरिक्त विनम्रता में एक हिंसा छुपी होती है, और इस साजिश को समझने की जरूरत है। अगर धर्म ने इंसानों को बराबरा बनाने का काम किया होता, तो आज ताकतवर को कमजोर के पांव धोने का दिखावा नहीं करना पड़ा होता।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)       

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