संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनाव आचार संहिता को जरूरत जितना सीमित करें
04-Apr-2024 3:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  चुनाव आचार संहिता को जरूरत जितना सीमित करें

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

छत्तीसगढ़ में कुछ बहुत खराब हो चुकी सडक़ों को दुबारा बनाने के लिए टेंडर जारी नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि चुनाव आचार संहिता चल रही है। इस पर राज्य के हाईकोर्ट ने जनहित में ये टेंडर जारी करने का आदेश दिया है, और कहा है कि ऐसे अदालती आदेश पर आचार संहिता लागू नहीं होती। यह बात कुछ चुनिंदा सडक़ों को लेकर जरूर हुई है, लेकिन सरकार और जनता से जुड़े हुए बहुत से ऐसे मामले रहते हैं जो कि जरूरी रहते हैं, लेकिन आचार संहिता का हवाला देकर उनका शुरू होना टलते रहता है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में विधानसभा चुनाव के छह महीने के भीतर लोकसभा चुनाव होते हैं, और पहले दो महीने, और बाद में ढाई महीने आचार संहिता लगी रहती है, और जनता परेशान होते रहती है। 

हमारा ख्याल है कि चुनाव आचार संहिता लगने के बाद सरकार नई घोषणाएं न करे, वहां तक तो ठीक है, लेकिन पहले से मंजूर किए जा चुके कामों के लिए बजट प्रावधान भी है, लेकिन ढाई महीने तक उसका टेंडर नहीं हो सकता, यह देश की पूरी क्षमता को कमजोर करना भी है। निर्माण कार्य करने वाले जो निजी ठेकेदार रहते हैं, उनका भी अपना एक ढांचा रहता है, और अगर काम इस तरह लंबे समय तक रूक जाते हैं, तो बिना उत्पादकता के भी उन्हें अपने साधनों पर खर्च करना पड़ता है। यह बात देश की आर्थिक उत्पादकता के खिलाफ है। दूसरी तरफ काम बंद होने से मजदूरों पर भी फर्क पड़ता है, और वे बेरोजगार हो जाते हैं। इसलिए चुनाव आयोग को केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ मिलकर आचार संहिता की रोक-टोक को कम से कम करने का जरिया निकालना चाहिए जिससे देश की आर्थिक गतिविधियां प्रभावित न हों, और जनहित के काम न रूकें। 

दूसरी तरफ यह भी लगता है कि चुनाव आचार संहिता के नाम पर अफसर कुछ महीने नेताओं की मर्जी से परे भी कुछ अलोकप्रिय काम कर पाते हैं, और यह हैरानी होती है कि ऐसे कामों के लिए आचार संहिता की कोई जरूरत क्यों होनी चाहिए? सडक़ों पर बेतरतीब लगे गैरकानूनी होर्डिंग हटाने के लिए म्युनिसिपल और पुलिस प्रशासन को आचार संहिता की क्या जरूरत होनी चाहिए? इसी तरह गलत-सलत बनीं नंबर प्लेटों को जब्त करने के लिए आचार संहिता की जरूरत क्यों पडऩी चाहिए? गाडिय़ों के शीशों पर से काली फिल्म निकलवाने के लिए, सायरन या हूटर हटवाने के लिए चुनाव आना क्यों जरूरी होना चाहिए? लेकिन सरकारी विभाग अपने नियमित कामकाज को भी चुनाव आयोग के डंडे से ही क्यों करवा पाते हैं? जबकि इसके लिए उन्हें अलग से किसी अधिकार की जरूरत नहीं रहती। ऐसा लगता है कि आचार संहिता लागू रहने के दौरान, नेताओं की राजनीतिक दखल कुछ घटती है, और पुलिस-प्रशासन को थोड़ी सी हिम्मत मिलती है। यह सिलसिला अलोकतांत्रिक है, और खत्म होना चाहिए। कानून पर अमल के लिए नेताओं का दबदबा, और दखल खत्म होना तो हर वक्त के लिए रहना चाहिए, सिर्फ चुनाव के वक्त क्यों? 

हम फिर से अपनी उसी बात पर लौटते हैं, चुनाव आयोग को हर प्रदेश में सरकार के साथ बैठकर यह सोच-विचार करना चाहिए कि आचार संहिता के प्रावधान किस-किस तरह ढीले किए जा सकते हैं। जिन बातों से चुनाव प्रभावित न होते हों, वैसी बातों को छूट देने के तरीके अभी से सोचने चाहिए ताकि अगले चुनाव तक सरकारों के सामने भी यह साफ रहे कि उनके कौन से कामकाज पर चुनाव से फर्क नहीं पड़ेगा। वैसे भी सरकारी कामकाज चुनाव के दौरान इसलिए ठप्प हो जाते हैं क्योंकि शासन-प्रशासन चुनावी तैयारियों को सबसे अधिक प्राथमिकता देते हैं, और बाकी काम चुनाव के बाद के लिए टाल दिए जाते हैं। चुनाव आयोग को यहां भी किफायत बरतनी चाहिए कि उसे मिले हुए तकरीबन असीमित अधिकारों का जरूरत से अधिक इस्तेमाल न हो ऐसे असाधारण अधिकारों की वजह से कई बार अधिकारी खुद होकर ही बहुत सा काम रोक देते हैं, और बहुत सी जनता चुनावी तैयारी के नाम पर रोज के कामकाज से अलग कर देते हैं। इस बार के लोकसभा चुनाव चुनाव आयोग ने करीब ढाई महीने तक खींच दिए हैं। इसके पहले देश में शायद इतना लंबा चुनाव कार्यक्रम और कभी नहीं था। इसे भी सीमित करने के बारे में सोचना चाहिए ताकि आचार संहिता के दिन कम से कम रहें। कुछ लोगों का यह कहना है कि यह सत्तारूढ़ पार्टी को फायदा देने का एक तरीका रहता है कि उसके बड़े नेता इतने लंबे समय तक प्रचार कर सकें, और जितने दिन अलग-अलग जगहों पर मतदान के पहले चुनाव प्रचार बंद रहता है, उन दिनों पर भी बड़े नेता टीवी के मार्फत लोगों तक पहुंच सकें। इस हिसाब से भी बहुत लंबा चुनाव कार्यक्रम ठीक नहीं रहता है। देश की आम गतिविधियां चुनाव कार्यक्रम की वजह से सरकारी दफ्तरों में फंसने लगती हैं। 

अभी तक चुनाव आयोग की लागू की गई आचार संहिता से रूकने वाले कामों के खिलाफ सरकारें सुप्रीम कोर्ट तक नहीं गई हैं, इसलिए ऐसे प्रतिबंध बेरोकटोक जारी हैं। ज्यादा अच्छा यही होगा कि चुनाव आयोग खुद अपनी ताकत के तर्कसंगत और न्यायसंगत इस्तेमाल तक सीमित रहे, और अपनी जरूरतों को कम करने, प्रतिबंधों को घटाने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों से बात भी करे। चुनाव प्रक्रिया का कामयाबी से निपट जाना ही जरूरी नहीं है, उसका कम से कम बाधा बनना भी जरूरी है, और देश की उत्पादकता आयोग की वजह से कम न हो, इसकी तैयारी भी करनी चाहिए।       (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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