संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...मुफ्त की मामूली तकनीक के इस्तेमाल से शहर-प्रबंधन बहुत आसान हो सकता है..
11-Apr-2024 4:33 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  ...मुफ्त की मामूली तकनीक के इस्तेमाल से शहर-प्रबंधन बहुत आसान हो सकता है..

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

हिन्दुस्तानी शहरों में आए दिन, हर धार्मिक त्यौहार, और हर सामाजिक-राजनीतिक आयोजन पर शहर की सडक़ें बंद हो जाना आम बात है। कुछ त्यौहारों पर तो कई-कई दिनों तक यह सिलसिला चलता है, और विसर्जन जैसे कार्यक्रम लगातार दो-तीन दिन तक बिखरे रहते हैं। नतीजा यह होता है कि शहरी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। चूंकि हिन्दुस्तान में धर्म लोगों का मुख्य कारोबार है, इसलिए लोगों को बेरोजगार किया भी नहीं जा सकता। अगर लोगों को सार्वजनिक-धार्मिक प्रदर्शन से अलग किया जाएगा, तो फिर बेरोजगारी कई गुना हो जाएगी। इसलिए जिस किस्म के भी सुधार की बात करनी है, वह धर्म को छुए बिना ही की जा सकती है, कम से कम आज की हमारी यहां की सलाह इसी किस्म की है। 

योरप में आज से कम से कम 25 बरस पहले से रेडियो और टीवी पर ऐसे चैनल मौजूद हैं जो कि किसी शहर की ट्रैफिक, या किसी हाईवे की ट्रैफिक की रिपोर्टिंग करते रहते हैं। कम से कम एक चैनल तो सन् 2000 में हमारा देखा हुआ ऐसा है जिसमें किसी हाईवे के ट्रैफिक जाम को दिखाने के लिए रिपोर्टर और कैमरापर्सन हेलीकॉप्टर से जाकर दर्शकों और श्रोताओं को बताते हैं कि किस हाईवे पर जाम है, और दूसरे वैकल्पिक रास्ते कौन से हैं। हिन्दुस्तान के शहरों को लेकर यही लगता है कि सडक़ों पर गाडिय़ों की भीड़ अंधाधुंध बढ़ चुकी है, गाडिय़ां अंधाधुंध बड़ी भी हो गई हैं, और ऐसे में जब लोग किसी जगह पहुंचकर देखते हैं कि आगे ट्रैफिक बंद है, तो लोगों के वापिस मुडऩे का रास्ता भी नहीं रहता है। कल ही अपने शहर में इस संपादक को दफ्तर से घर, दो किलोमीटर जाने के लिए अलग-अलग ऐसे कई रास्तों से वापिस लौटना पड़ा, और करीब 25 किलोमीटर का चक्कर लगाकर 85 मिनट में यह दो किलोमीटर तय हो पाया। ऐसे में साधारण समझबूझ से भी ट्रैफिक पुलिस इतना कर सकती है कि वॉट्सऐप और टेलीग्राम जैसे लोकप्रिय मैसेंजर पर ब्रॉडकास्ट ग्रुप बना ले, और लोगों से जानकारी पाने के लिए इनसे जुडऩे को कहे। अगर शहर में जगह-जगह ऐसे ट्रैफिक-बंद की जानकारी लोगों को समय रहते मिल जाए, तो लोग धक्के खाने के बजाय सीधे ही लंबे वैकल्पिक और खुले रास्तों से आना-जाना करें, या आना-जाना टाल दें। जो काम 25 बरस पहले योरप रेडियो और टीवी पर कर सकता है, वह काम आज अगर हिन्दुस्तान की पुलिस मुफ्त में मिली हुई मैसेंजर सर्विसों पर नहीं कर सकती, नहीं कर रही, तो इसके पीछे कल्पनाशीलता की कमी है, और काम में उत्साह की कमी है। 

वैसे तो शहरी योजना के एक हिस्से के रूप में इस तरह के मैसेंजर समूह बनाना कब से शुरू हो जाना चाहिए था। अब तो ट्रैफिक पुलिस शहर की उन जगहों के नाम भी लिखकर पोस्ट कर सकती है, उनके गूगल मैप लोकेशन पोस्ट कर सकती है जहां पर ट्रैफिक रोका गया है, या जहां पर किसी वजह से ट्रैफिक जाम है। पुलिस कई घंटे पहले से ऐसे समूहों में जानकारी पोस्ट कर सकती है कि कितने बजे से किन जगहों पर ट्रैफिक बंद हो जाएगा, और वहां की तस्वीर या वहां की लोकेशन मिल जाने से लोग धक्के खाने से बच जाएंगे। कायदे की बात तो यह है कि टैक्स लेने वाली सरकार, और स्थानीय पुलिस को लोगों को परेशानी से बचाने के लिए ऐसा मामूली सा काम खुद ही शुरू करना चाहिए था, लेकिन हमारे जैसे साधारण समझबूझ के लोगों को ऐसा रास्ता सुझाना पड़ रहा है। 

शासन-प्रशासन, और पुलिस अगर अलग-अलग कामों के लिए अलग-अलग वॉट्सऐप और टेलीग्राम चैनल बनाएं, तो आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी जरूरत के मुताबिक इन चैनलों से जुड़ सकता है, और सरकार कभी किसी के लिए खून जुटाने को, तो किसी सडक़ हादसे की हालत में एम्बुलेंस या दूसरी गाडिय़ां बुलवाने को, आग बुझाने में मदद के लिए, या हाथियों की मौजूदगी वाली जगह जाने से रोकने के लिए लोगों को सावधान कर सकती है। संचार के जो आधुनिक और आम साधन हैं, उनका इस्तेमाल पुलिस और प्रशासन, अफसर और नेता, अपने प्रचार के लिए तो सभी कर लेते हैं, लेकिन जनता के काम की जानकारी के लिए इनका बहुत बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है, और वह जरूरी भी है। सडक़ों पर घंटों तक लोग फंसे रहें, इससे जितना डीजल-पेट्रोल बर्बाद होता है, जितना प्रदूषण बढ़ता है, लोगों का वक्त खराब होता है, और लोगों का मानसिक तनाव बढ़ता है। हिन्दुस्तान में ट्रैफिक पुलिस पर काम का बोझ इतना अधिक रहता है कि वह लोगों के मानसिक तनाव की परवाह करने जैसा बारीक काम सोच भी नहीं पाती। हकीकत तो यह है कि निजी गाडिय़ां चलाने वाले बहुत से लोगों में तरह-तरह के तनाव और सेहत की तकलीफें झेलने वाले लोग रहते हैं, और उन्हें इस तरह घंटों तक चारों तरफ दौड़ाना, अनिश्चितता में घेरे रखना, उनके लिए बहुत अधिक तनावपूर्ण हो सकता है। किसी भी जिम्मेदार शासन-प्रशासन को अपने नागरिकों के बुनियादी हक अनदेखे नहीं करने चाहिए। भारत में आज अफसरों की लापरवाही के खिलाफ जनता को किसी तरह की कानूनी राहत नहीं मिल पाती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जिम्मेदार ओहदों पर बैठे हुए अफसर अपने इलाकों में नई टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल से परेशानियां घटाने की कोशिश भी न करें। 

शहरी-प्रबंधन में यह भी होना चाहिए कि जो रास्ते बंद रहने वाले हैं, उनके वैकल्पिक रास्तों पर से तमाम किस्म के स्थाई और अस्थाई कब्जे और सामान हटा दिए जाने चाहिए ताकि वहां बढऩे वाले ट्रैफिक के लिए रास्ता बन सके। हमने आज तक पुलिस या प्रशासन को ऐसा करते नहीं देखा है, और जो सडक़ें घंटों तक ट्रैफिक जाम में फंसी रहती हैं, वहां भी दुकानों के बाहर दूर तक सामान सजे रहते हैं, और अवैध कब्जा रास्ता रोके रहता है। अफसरों को अपने इलाकों पर अपना हक नजर आता है, उन इलाकों को लेकर अपनी जिम्मेदारी नहीं सूझती है। जिस दिन अफसर अपने इलाके के प्रबंधन को अपनी इज्जत से जोडक़र देखेंगे, वे बहुत सी कमियों और खामियों को दूर कर पाएंगे। हमारे सरीखे साधारण समझ के लोग भी यह देख पा रहे हैं कि अफसरों के क्या-क्या न करने का दाम शहर की जनता चुका रही है। यह बात अफसरों की साख के लिए बहुत खराब है।      (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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