संपादकीय
दो अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने स्विटजरलैंड की एक कंपनी, नेस्ले, के भारत में बेचे जा रहे बच्चों के दो उत्पादों में शक्कर की मात्रा अधिक पाई है। खुद स्विटजरलैंड में इस कंपनी के सेरेलॅक और दूध पावडर बिना शक्कर के बेचे जा रहे हैं। इन दो संस्थानों ने एशिया, अफ्रीका, और लैटिन अमरीका में इस कंपनी के प्रोडक्ट बाजार से लिए और बेल्जियम की एक प्रयोगशाला में उनका परीक्षण करवाया। नेस्ले कम कमाई वाले, गरीबी वाले देशों के बच्चों में उन चीजों से मीठे के स्वाद की लत पैदा करता है। इससे मोटापे की बीमारी का खतरा रहता है। छोटे बच्चों के लिए सामानों में शक्कर नहीं रहनी चाहिए, और 2022 से संयुक्त राष्ट्र संघ की एक एजेंसी छोटे बच्चों के इस्तेमाल के सामानों में शक्कर पर प्रतिबंध की मांग कर रहा है। यह तो दो अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने यह जांच-पड़ताल की तो यह गड़बड़ी समझ आई। वरना यह कंपनी छोटे बच्चों के खाद्य पदार्थों के बाजार में खासा हिस्सा रखती है, और भारत जैसे कमजोर सरकारी इंतजाम वाले देश में देसी-विदेशी कंपनियां मनमानी करती हैं, और उन पर कोई रोक-टोक नहीं रहती।
पूरा का पूरा बाजार बच्चों के स्वाद को बिगाडऩे, उन्हें चीजों की लत लगाने का तो है ही, और बच्चों को आकर्षित करने के लिए इश्तहारों ने भी बच्चों का ऐसा इस्तेमाल किया जाता है जो कि किसी विकसित देश में नहीं किया जा सकता। कहने के लिए हिन्दुस्तान अपने आपको विकसित देश कहता है, लेकिन हकीकत यह है कि अपने नागरिकों के लिए जितने ग्राहक-हक का ख्याल उसे रखना चाहिए, उसका कोई ठिकाना ही नहीं है, बल्कि सरकार पूरी तरह से कारोबारियों के नाजायज हक की फिक्र में लगी दिखती है। भारत में उपभोक्ता सुरक्षा कानून जरूर बना हुआ है, लेकिन उस पर अमल का हाल यह है कि देसी त्यौहारों पर मिठाइयां और दूसरे सामानों के नमूने बाजार से लिए जाते हैं, और फिर उनकी प्रयोगशाला की रिपोर्ट आने पर एक-एक साल लग जाता है। नतीजा यह होता है कि बाजार में आए हुए सभी सामान जब खत्म हो जाते हैं तब उनमें से कुछ सामानों को लेकर सरकार की कार्रवाई होती है, जो कि घटिया, या मिलावटी सामान खा-पी लेने के महीनों बाद शुरू होती है।
कोई भी देश अपने आपको सिर्फ विकसित कह दे, उससे वह विकसित नहीं हो जाता। वहां पर जनता के हक का सरकार कितना ख्याल रखती है, सबसे कमजोर तबके के बुनियादी हकों की कितनी फिक्र होती है, और खासकर बच्चों के सामान, और खानपान को लेकर सरकार कितनी कड़ाई बरतती है, इससे साबित होता है कि देश कितना विकसित है। भारत में अभी पता चलता है कि पीढिय़ों से यहां इस्तेमाल हो रहे कपड़े और दीवार रंगने के रंग बच्चों के खानपान के रूई जैसे दिखने वाले, और बुड्ढी के बाल कहे जाने वाले सामानों में इस्तेमाल हो रहे हैं जिनसे कैंसर का खतरा अभी घोषित किया गया है।
देश की सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में बार-बार यह बताया है कि किस तरह भारतीय बाजार में खानपान के जो सामान है, उनमें नमक, शक्कर, और फैट किस तरह स्वीकृत सीमा से बहुत अधिक रहते हैं, और किस तरह बाजार के पैकेट और डिब्बाबंद सामानों के पोषण तत्वों की जानकारी देते हुए चीजों को छुपाकर लिखा जाता है, या नहीं लिखा जाता है। ऐसी बहुत सी रिपोर्ट बतलाती हैं कि खाने-पीने के सामानों पर जो चेतावनी यही कंपनियां विकसित देशों में अपने पैकेट पर लिखती हैं, उन्हें हिन्दुस्तान में नहीं लिखतीं। मतलब साफ है कि अगर सरकार किसी नियम को लागू करने में कमजोर है, या नियम बने ही नहीं हैं, तो बड़ी कंपनियां जनता की सेहत के लिए किसी भी तरह से जवाबदेह नहीं रहती, और बाजार में ग्राहक से खतरों को छुपाकर, गलत तरीके से इश्तहार करके, उन्हें सामान बेचने और खिलाने-पिलाने तक उसकी दिलचस्पी रहती है। बाजार की हालत देखें तो यह समझ पड़ता है कि खानपान का बाजार, सेहत और इलाज के बाजार को ग्राहक सप्लाई करता है। हम इस बात को सोशल मीडिया पर और इस जगह बार-बार लिखते हैं कि लोगों को बाजार के बने हुए डिब्बाबंद या पैकेटबंद प्रोसेस्ड फूड का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। लोग अपने घर आने वाले मेहमानों के लिए ऐसे सामान लाकर रख देते हैं क्योंकि इन्हें परोसना आसान रहता है, लेकिन मेहमानों के साथ-साथ घर के बच्चों की लत भी पड़ जाती है, और घर में मौजूद ऐसे पैकेट छुपाना मुमकिन नहीं हो पाता। नतीजा यह होता है कि भारत में पैसेवालों के बच्चों से परे भी, मजदूरों के बच्चों के बीच भी पैकेटबंद प्रोसेस्ड फूड का चलन बढ़ रहा है क्योंकि कामकाजी मां-बाप इन बच्चों के लिए समय पर कुछ पकाने के बजाय पास की दुकान से ऐसे एक-दो पैकेट लेकर उन्हें थमा देना अधिक सहूलियत का काम पाते हैं। नतीजा यह है कि हर आय वर्ग के लोगों में बड़ों के साथ-साथ बच्चों में भी ऐसे खानपान का चलन बहुत बढ़ चुका है।
लोगों को याद होगा कि जब अर्जुन सिंह मानव संसाधन मंत्री थे, उस वक्त उनके मंत्रालय की एक रिपोर्ट हमने इस अखबार में छापी थी कि उनकी बेटी भारत के बिस्किट निर्माताओं के संघ के साथ जाकर देश के स्कूल शिक्षा सचिव से मिली थीं, और इस बात के लिए भरपूर लॉबिंग की थी कि स्कूलों में दोपहर के भोजन की जगह बिस्किट के पैकेट दे दिए जाएं। यह तो उस वक्त सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच काम कर रहे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने समय रहते दखल दिया, और दलाली के ऐसे धंधे को रोक दिया था। बाद में जाकर अर्जुन सिंह को फाइल पर यह लिखना पड़ा था कि बिस्किट निर्माताओं के साथ आकर शिक्षा सचिव से मिलने वाली महिला उनकी बेटी थीं, और मंत्रालय के अफसर उनके परिवार के किसी व्यक्ति की बात न सुनें। अब यह सोचने की बात है कि अगर देश के 12 करोड़ से अधिक बच्चे स्कूलों में दोपहर को गर्म ताजा पका हुआ खाना पाते हैं, और वे कारखानों के बिस्किट को रोज दोपहर खाने से बचे हैं, तो यह सरकारों के बचाए नहीं हुआ, उस वक्त सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल से हुआ।
भारत में जनता के अधिकारों का हाल बहुत खराब है। उपभोक्ताओं के हक के लिए काम करने वाले संगठनों को अदालतों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महंगे वकीलों का सामना करना पड़ता है, और वे किसी मुकदमे को बड़ी मुश्किल से ही जीत पाते हैं। सरकार से लेकर अदालत तक ग्राहक के हकों की कोई जगह नहीं है। लेकिन ग्राहक की जागरूकता और नागरिक के चौकन्नेपन से ही बाजार की साजिशों का भांडाफोड़ हो सकता है, इसलिए इसकी कोशिश कभी खत्म नहीं होनी चाहिए। यह हाल सिर्फ बच्चों के खाद्य पदार्थों का नहीं है, बाजार में बड़ों के बीच लोकप्रिय किए गए कोल्ड ड्रिंक का भी यही हाल है जिनमें भारत में तो शक्कर भर दी जाती है, लेकिन दुनिया के जागरूक देशों में इसे बहुत घटाना पड़ा है।