संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कांग्रेस की इस खुली चिट्ठी को दफन करना आसान न होगा
25-Aug-2020 8:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कांग्रेस की इस खुली चिट्ठी को  दफन करना आसान न होगा

कांग्रेस के चाय के कप में आया तूफान थम गया दिखता है। हाल के बरसों में, या पिछले कुछ दशकों में पहली बार इस पार्टी के करीब दो दर्जन लोगों ने गैरचापलूसी का एक रूख दिखाया था, और वह रूख पार्टी पर कोई असर नहीं डाल पाया। कल कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक सुबह से शाम तक चली, और वह इस नतीजे पर खत्म हुई कि फिलहाल सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी रहेंगी। इस पार्टी की सबसे ताकतवर कमेटी की बैठक भी अगले अध्यक्ष के बारे में न कुछ सोच पाई, न कोई तरीका सोच पाई, और चिट्ठी लिखने वालों के तरीकों के खिलाफ सोनिया से लेकर नीचे तक बहुत से नेताओं ने नाराजगी और असहमति जताई। 

बहस के लिए हम यह मान भी लेते हैं कि जब चिट्ठी लिखने वाले 23 लोगों में से आधा दर्जन से अधिक लोग कांग्रेस कार्यसमिति के मेम्बर भी थे, जहां उनके पास इस बात को उठाने का मौका था, तो फिर शायद यह चिट्ठी इस मीटिंग के पहले मीडिया में पहुंचना एक अच्छी बात नहीं थी। लेकिन एक दूसरे नजरिए से देखें तो अजगरी अंदाज में चलती इस पार्टी का ध्यान खींचने के लिए सार्वजनिक रूप से कुछ ढोल बजाने में बुराई क्या थी? इस चिट्ठी में कोई आरोप नहीं लगाए गए थे, किसी को नाकामयाबी का जिम्मेदार नहीं बताया गया था, महज एक सकारात्मक बदलाव की बात की गई थी। तो क्या आज कांग्रेस पार्टी ऐसे मोड़ पर खड़ी है कि वह किसी सकारात्मक बदलाव की मांग करने वाले अपने ही दो दर्जन बड़े नेताओं की बात को बगावत मान रही है? अगर यह बगावत है, तो यह कांग्रेस पार्टी के हित में है। वह युग खत्म हो गया जब नेहरू-गांधी परिवार से परे की संभावनाओं को सोचने पर उसे हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा पाप मान लिया जाता था। अब पार्टी को यह तय करना है कि उसे जिंदा रहना है, या मौजूदा लीडरशिप को पार्टी की अगुवाई में जिंदा रखना है? बहुत से संगठनों में एक वक्त ऐसी नौबत आ जाती है कि उसके नेता पार्टी को आगे ले जाने की अपनी क्षमता के सर्वोच्च स्तर तक पहुंच चुके रहते हैं, और वहां से आगे मशाल किसी और को ही ले जानी होती है। अब अगर पार्टी यह मानकर चले कि वे सोनिया या राहुल की अगुवाई में जहां तक पहुंचे हैं, उससे आगे जाने की पार्टी की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है तो एक अलग बात है। आज सोनिया-परिवार के हिमायती दिग्विजय सिंह का बयान लीडरशिप की एक थोड़ी सी और संभावना वाला है। उन्होंने सोनिया और राहुल का नाम लेने के बजाय यह कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद गांधी परिवार में ही रहना चाहिए। इसका मतलब यह है कि वे प्रियंका गांधी की संभावनाओं को अनदेखा नहीं कर रहे हैं, फिर चाहे वे अभी शब्दों में उसे नहीं कह रहे हैं।

हमने कल भी इस बारे में लिखा था, इसलिए बहुत से तर्कों को आज एक दिन के भीतर यहां दुहराने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन यह बात साफ है कि दो दर्जन बड़े नेता अगर इस चिट्ठी पर दस्तखत करने वाले हैं, तो कई दर्जन और बड़े नेता भी इस चिट्ठी के साथ होंगे, और अभी हवा का रूख देख रहे हैं, या पानी में एक पैर डालकर गहराई देख रहे होंगे। यह बात समझने की जरूरत है कि ये दो दर्जन नेता अगर कांग्रेस के विभाजन पर उतारू होते हैं, तो पार्टी का बड़ा नुकसान भी होगा। वे अगर पार्टी संविधान के मुताबिक अध्यक्ष के चुनाव पर अड़ते हैं, तो भी पार्टी के भीतर एक ढांचे के भीतर भी विभाजन हो जाएगा। यह सोनिया-परिवार के सोचने की बात है कि पार्टी का अब क्या करना चाहिए? अगर दूसरे लोग यह सोचने वाले रहेंगे, तो हो सकता है कि आगे चलकर इस परिवार की मर्जी का अध्यक्ष भी न बने। 

एक अखबार के रूप में हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कांग्रेस का अध्यक्ष कौन रहे। लेकिन इस बात हमें फर्क पड़ता है कि देश का एक बड़ा विपक्षी दल अगर और कमजोर होते चला गया तो भारत के लोकतंत्र में भाजपा और एनडीए की ताकत अनुपातहीन ढंग से अधिक हो जाएगी, और वह कोई बहुत अच्छी नौबत जनता के हित में नहीं होगी। कांग्रेस को आज न केवल अपना घर सम्हालने की जरूरत है, बल्कि अपने घर की मरम्मत की भी जरूरत है, और अपने भविष्य के बारे में भी उसे सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि क्या नौबत ऐसी आ गई है कि सोनिया-परिवार का भविष्य और कांग्रेस पार्टी का भविष्य दो अलग-अलग बातें हो चुकी हैं? 

हमारा ख्याल है कि कांग्रेस के भीतर कुछ लोग जिसे असंतोष और बगावत कह रहे हैं, वह किसी भी पार्टी के जिंदा रहने का पहला सुबूत है। यह कांग्रेस के लिए एक अनहोनी हो सकती है कि उसके भीतर के कुछ लोग उसे जिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि आमतौर पर चापलूसी को इस पार्टी के लिए काफी माना जाता है, और उससे अधिक कुछ क्यों किया जाए, यह सवाल हमेशा ही पार्टी की नीति बने रहता है। 

लेकिन अब हिन्दुस्तान की राजनीति के तौर-तरीके मोदी युग के हैं, अब कांग्रेस या कोई भी दूसरी पार्टी यह मानकर नहीं चल सकतीं कि मोदी की गलतियों से वे सत्ता में आ जाएंगे। और जब सत्ता से परे रहना एक लंबा भविष्य दिख रहा है, तो बहुत से नेताओं को अपनी पार्टी से अधिक असरदार, अधिक लड़ाकू, और आखिर में अधिक कामयाब बनाने की जरूरत लग सकती है। अभी तक जो बातें सामने आई हैं उनके मुताबिक तो पार्टी के पास एक पखवाड़े से पड़ी हुई इस चिट्ठी को लेकर कल की कार्यसमिति की बैठक में कोई अधिक बात नहीं हुई, या कम से कम उस पर कोई कार्रवाई होते नहीं दिखी। कल की बैठक के पहले पार्टी जहां पर थी, गांधी परिवार की उसी देहरी पर, उसी जगह, उसी तरह आज भी खड़ी हुई है, बस इतना ही फर्क पड़ा होगा कि ये 23 लोग पार्टी में घोषित रूप से अवांछित बन गए हैं, और जैसा कि दुनिया में कहीं भी होता है इतनी बड़ी संख्या में अवांछित लोग अपने वांछित नतीजों को पाने के लिए आगे भी कुछ न कुछ करते हैं। कांग्रेस पार्टी में आने वाले दिनों में अगर यह संघर्ष बढ़ता है तो भी वह पार्टी के लिए अच्छा ही होगा। पार्टी को तर्कहीन तरीके से अंतहीन चापलूस बने रहना उसे किसी किनारे नहीं पहुंचा सकता। जिन लोगों ने यह चिट्ठी लिखी, उनकी नीयत क्या थी, और आगे उनकी तैयारी क्या है, इसका खुलासा तो आगे धीरे-धीरे होगा लेकिन कांग्रेस पार्टी कम से कम एक जिंदा पार्टी बनी दिख रही है, और वह भी कोई छोटी कामयाबी नहीं है। इस चिट्ठी में उठाए गए मुद्दों पर इस पार्टी को सोचना चाहिए, क्योंकि उसके अलावा उसके पास सोचने को कुछ और तो अधिक बचा भी नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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