संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वोट के बदले नोट देने के जुर्म में महिला सांसद को मिली कैद के बहाने चर्चा
25-Jul-2021 4:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वोट के बदले नोट देने के जुर्म में महिला सांसद को मिली कैद के बहाने चर्चा

नोट देकर वोट खरीदने की बात हिंदुस्तानी चुनावों में इतनी आम है कि कांटे की टक्कर वाले, और मुनाफे की सीट वाले कई चुनावों में तो आखिरी के वोटों के लिए पांच-पाँच हज़ार तक देने की चर्चा सुनाई पड़ती है। अब असली रेट क्या रहता है यह तो देने और लेने वाले जानें, लेकिन संपन्न सीटों के अति संपन्न उम्मीदवार मतदान के पहले की रात को नोट बांटने के लिए उतावले रहते हैं। ऐसे में तेलंगाना में एक सांसद को वोट पाने के लिए नोट बांटने का मुजरिम ठहराते हुए एक विशेष अदालत ने 6 महीने की कैद सुनाई है। यह महिला सांसद मलोत कविता नाम की टीआरएस नेता हैं। हालांकि हिंदुस्तान में चुनावी वोट पाने के लिए वोटरों को रिश्वत देने का सिलसिला कोई नया नहीं है, और लोगों को याद होगा कि इस देश में इमरजेंसी का इतिहास इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले से चालू होता है, जिसमें इंदिरा गांधी के चुनाव को नाजायज ठहराया गया था, क्योंकि उनके एक सहयोगी सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा मंजूर हुए बिना इंदिरा का चुनावी एजेंट बन गए थे। इंदिरा पर वोटरों को कम्बल बांटने का भी आरोप था, जो कि अदालत में साबित नहीं हो पाया था। कुर्सी न छोड़नी पड़े इसलिए उस वक्त इंदिरा और संजय गांधी ने इमरजेंसी लगाना तय किया था, और आगे की कहानी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है जिस पर अधिक चर्चा आज का मकसद नहीं है।

लेकिन तेलंगाना के इस ताजा फैसले को लेकर इस बात पर चर्चा की इच्छा जरूर होती है कि क्या भारतीय चुनावों में वोटरों को रिश्वत और भ्रष्टाचार को सचमुच ही काबू में किया जा सकता है, या यह निचली अदालत का एक ऐसा फैसला है जिसे देश की आखिरी अदालत तक पहुंचने में एक पीढ़ी का वक्त लग जाएगा और सांसद का कार्यकाल पूरा भी हो चुका रहेगा? दरअसल देश भर में चुनाव के वक्त पैसों का जो नंगा नाच देखने मिलता है वह इतना डरावना हो गया है कि ऐसा लगता है कि संसद में वे लोग पहुंचते हैं जिन्हें अपनी चुनावी सीट के वोटरों को सबसे अधिक दाम पर खरीदने की ताकत हासिल रहती है। दक्षिण भारत में वोटों का रेट उत्तर भारत के मुकाबले कुछ अधिक माना जाता है और चुनाव के वक्त वहां गहनों से लेकर दूसरे किस्म के सामान बांटने का रिवाज अधिक है। इसकी एक वजह शायद यह हो सकती है कि उत्तर भारत की एक-एक सीट पर वोटर अधिक हो गए हैं, और दक्षिण भारत की सीटों पर आबादी काबू में रहने की वजह से वोटर भी कम हैं।

 जो भी हो हिंदुस्तानी आम चुनाव सबसे अधिक भ्रष्ट व्यवस्था है और किसी लहर में जीतने वाली पार्टी या उम्मीदवार की बात छोड़ दें तो कांटे की टक्कर वाली जितनी सीटें रहती हैं, वहां पर तो वोटों को खरीदने से चुनावी नतीजों का सीधा रिश्ता रहता है। अब ऐसे में मन में एक सवाल यह भी उठता है कि जहां पर वोटों को खरीदने की इतनी बड़ी गुंजाइश रहती है क्या वहां के चुनावों को सचमुच ही जनता की राय मांग लेना ठीक होगा, सचमुच ही उसे एक जनतांत्रिक पसंद माना जाना चाहिए? या फिर यह वोटों की एक ऐसी मंडी है जहां पर सबसे अधिक बोली बोलने वाला नेता या उसकी पार्टी वोट पा जाते हैं, और देश भर में सबसे ऊंची बोली लगाने वाले लोग संसद और विधानसभा में पहुंचने की सबसे अधिक संभावना भी रखते हैं? हम तो मध्य भारत के इस इलाके छत्तीसगढ़ में चुनावों को रूबरू देखते हुए यह जानते हैं कि एक बड़े शहर के एक वार्ड के चुनाव में किस तरह बड़े उम्मीदवार एक-एक करोड़ रुपए तक खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं, उतारू रहते हैं। यहां तक सुनाई पड़ता है कि सबसे भ्रष्ट किसी वार्ड उम्मीदवार को किसी एक जगह से ही एक साथ 25 लाख का चुनावी चंदा मिल जाता है। इससे भी अंदाज लग सकता है कि कुछ हजार वोट वाले वार्ड किस तरह महंगी जीत वाले रहते हैं और जाहिर है कि इसके बाद अगले 5 बरस निर्वाचित लोग इस पूंजी निवेश की वापिसी के लिए,  कमाई करने के लिए कैसे-कैसे काम करते होंगे।

हिंदुस्तान का चुनाव आयोग इसी फर्जी बात पर फख्र हासिल करते रहता है कि चुनाव में गुंडागर्दी खत्म हो गई है, और अब चुनाव भी बिना किसी हिंसा के हो जाते हैं। लेकिन आज भारतीय चुनाव की जो सबसे बड़ी समस्या है, रुपयों का वह बोलबाला खत्म करने में यह चुनाव आयोग कुछ भी नहीं कर पाया है। बल्कि हाल के चुनावों में देखा गया है कि यह चुनाव आयोग लोगों के हिंसक भाषणों को भी नहीं रोक पाया, भडक़ाऊ और सांप्रदायिक नेताओं और तबकों को भी नहीं रोक पाया, यह चुनाव आयोग हिंसक जातिवाद को भी नहीं रोक पाया। यह चुनाव आयोग मतदान करवाने की एक काबिल मशीन से परे और किसी काम का नहीं रह गया है, और यह चुनाव को निष्पक्ष और ईमानदार करवाने के लिए तो कुछ भी करने के लायक नहीं रह गया है। इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट को यहां पर दखल देने की कोई गुंजाइश दिखती है तो उसे संसद और चुनाव आयोग इन दोनों के सामने इस बात को रखना चाहिए क्योंकि संसद के भीतर बाहुबल चुनाव आयोग को ऐसा ही बनाए रखने का हिमायती हो सकता है। इसलिए तेलंगाना के इस अदालती फैसले से हमें इस मुद्दे पर चर्चा करने की सूझ रही है कि हिंदुस्तान के चुनाव की इस मंडी में खरीदने-बेचने का सिलसिला कैसे खत्म हो सकता है?  इस बारे में जो देश के जिम्मेदार तबकों  को सोचना चाहिए, यहां की अदालत को भी सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

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सम्पादकीय में एक तथ्य गलत

'छत्तीसगढ़' अखबार में 25 जुलाई को प्रकाशित संपादकीय जिसमें वोट के बदले नोट देने के जुर्म में तेलंगाना की एक महिला सांसद को कैद की सजा सुनाई गई है, उसमें इंदिरा गांधी के मामले की चर्चा भी की गई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जिस फैसले ने इंदिरा गांधी के चुनाव को नाजायज ठहराया था, उसके बारे में संपादकीय में लिखा गया था कि उनके एक सहयोगी को वोटरों को कंबल बांटने का दोषी पाया गया था। यह बात सही नहीं थी।

हमारे एक नियमित पाठक डॉ. परिवेश मिश्रा और कुछ दूसरे पाठकों ने इस गलती के बारे में ध्यान दिलाया था। उस पुराने फैसले को देखने पर तथ्य यह मिला कि इंदिरा गांधी के सहयोगियों पर वोटरों को कंबल बांटने का आरोप लगाया गया था, लेकिन वह हाईकोर्ट में साबित नहीं हो पाया था। और इंदिरा गांधी के चुनाव को नाजायज ठहराने की एक बड़ी वजह यह थी कि उनके एक सहयोगी का सरकारी नौकरी से इस्तीफा उस समय तक मंजूर नहीं हुआ था, जो कि उनका चुनावी एजेंट भी बना दिया गया था। इसके अलावा रायबरेली के इस लोकसभा चुनाव में कलेक्टर और दूसरे अफसरों का बेजा इस्तेमाल चुनावी मंच बनाने जैसे चुनावी कामों के लिए किया गया था।

ऐसे नाजायज तरीकों के इस्तेमाल की वजह से इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित करार दिया गया था। संपादकीय में लिखा गया यह तथ्य सुधारना जरूरी है कि कंबल बांटने की वजह से चुनाव अवैध हुआ था। अखबार के छपे हुए अंकों में तो कोई सुधार नहीं हो सकता, लेकिन वेबसाइट और ऑनलाइन जहां-जहां यह सम्पादकीय है वहां इसमें सुधार किया जा रहा है। इस चूक के लिए हमें खेद है, संपादक, सुनील कुमार।

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