संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गांधी के नाम पर पाखंड बंद हो, और विदेशियों को राजघाट ले जाना भी
02-Oct-2023 4:02 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गांधी के नाम पर पाखंड बंद हो, और विदेशियों  को राजघाट ले जाना भी

कार्टूनिस्ट आलोक निरंतर

आज गांधी जयंती पर गांधी के नाम की सबसे अधिक चर्चा सरकार और राजनीति के लोग कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने आपको गांधीवादी या गांधी का अनुयायी-प्रशंसक साबित करना जरूरी सा रहता है। इस देश में आज लोगों की सोच चाहे कितनी ही बेईमान क्यों न हो गई हो, दिखावे और पाखंड के लिए पूजा तो गांधी की ही करनी पड़ती है। जब दुनिया भर के मेहमान भारत आते हैं तो सरकार को भी उन्हें राजघाट ही ले जाना पड़ता है, गोडसे या सावरकर के स्मारकों पर उन्हें नहीं ले जाया जा सकता। इसलिए आज जैसे-जैसे गांधी के नाम की चर्चा हो रही है, वैसे-वैसे यह भी याद पड़ता है कि गांधी के नामलेवा लोग किस हद तक गांधी से दूर हो चुके हैं। तमाम मौके विसंगतियों और विरोधाभासों को उजागर करते हैं, गांधी जयंती और आजादी की सालगिरह, या संविधान लागू करने के गणतंत्र दिवस के मौके ऐसे ही हैं जो कि जलसों और हकीकतों में विरोधाभास को बढ़-चढक़र बताते हैं। 

आज प्रधानमंत्री सहित देश के दूसरे बहुत से नेता राजघाट जा चुके होंगे, या अपनी-अपनी तरह से गांधी को श्रद्धांजलि दे चुके होंगे। लेकिन इस गरीब देश के लिए गांधी ने जो सादगी और किफायत की राह दिखाई थी, उस राह को मानो सत्ता ने उसके सामने दीवार खड़ी करके छुपा दिया है कि वह आईने की तरह सत्ता के ऐशोआराम को उसका चेहरा न दिखाती रहे। गांधी की तस्वीरें, उसके इश्तहार और वीडियो, और गांधी की तारीफ में बड़ी-बड़ी बातें लोगों के ढकोसले को और अधिक हद तक उजागर करती हैं। जिस गांधी ने मन, वचन, और कर्म, इन सबकी ईमानदारी पर जोर दिया, आज उसके नाम की रोटी खाने वाले लोग इनमें से किसी एक के प्रति भी ईमानदार नहीं दिखते। यह बात बहुत सालती है कि यह देश हर किस्म के पाखंडों का इतना आदी हो चुका है कि बहुत से लोगों को तो गांधी के स्मरण के नाम पर मक्कार लोगों की बातों में कुछ भी अटपटा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि जिस तरह रिश्वत लेने-देने में गांधी की तस्वीर वाले नोटों का इस्तेमाल होता है, और ऐसे नोटों को गांधी का अपमान नहीं माना जाता, उसी तरह गांधी के नाम पर बड़े-बड़े पाखंडों की सालाना परंपरा भी लोगों को अटपटी नहीं लगती। 

आज जब गांधी की सोच के ठीक खिलाफ जाकर सत्ता और राजनीति लोगों के साथ भेदभाव करती हैं, धार्मिक नफरत और साम्प्रदायिकता फैलाती हैं, हिंसा को बढ़ावा देती हैं, और धर्म के नाम पर आतंक फैलाती हैं, तो वह बात भी अब 21वीं सदी के दूसरे दशक में नवसामान्य हो चुकी है, यही अब भारतीय सोच और भारतीय जीवनशैली रह गई है। कुछ अरसा पहले इस अखबार को दिए एक इंटरव्यू में गांधी के पड़पोते तुषार गांधी ने कहा था कि नोटों पर से गांधी की फोटो हटा देनी चाहिए। हमें लगता है कि गांधी के नाम पर साल में दो बार जन्म और मृत्यु का दिन मनाना भी बंद हो जाना चाहिए, क्योंकि जो गांधी का नाम लेने के हकदार अब भी बचे हैं, वे सबसे गरीब, सबसे बेबस लोग ऐसे हैं जिनका गांधी के नाम के जलसों से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। जो सबसे कमजोर तबका है, जिसे गांधी ने एक वक्त हरिजन कहा था, और जिसने बाद में इस नाम पर आपत्ति की थी, और अपने आपको दलित कहता है, उस तबके, उस किस्म के दूसरे कमजोर तबके, अल्पसंख्यक धर्मों के लोग आज सत्ता और राजनीति के जितने बुरे निशाने पर हैं, वह देखकर दिल बैठने लगता है। ऐसे में इस देश को बार-बार गांधी का वारिस होने का नाटक करना भी क्यों चाहिए? आज यह देश जिस परले दर्जे का कलंकित हो चुका है, आज संविधान की शपथ लेने वाले बड़े-बड़े लोग जिस तरह संसद के भीतर साम्प्रदायिक और हिंसक गालियां बक रहे हैं, बड़े-बड़े मुजरिम सरकार, राजनीति, और संसद में ऊंचे ओहदों पर हैं, उसे देखते हुए सरकारी दफ्तरों में गांधी की तस्वीर भी क्यों लगानी चाहिए? 

और सरकारी दफ्तरों से याद आया कि आज देश की बड़ी अदालतें सरकारी दफ्तरों की साजिशों, वहां के जुर्म के खिलाफ ही जूझती रहती हैं, सरकारें रात-दिन अदालत को अपने झूठ से बरगलाने में लगी रहती हैं, ऐसे सरकारी दफ्तरों में गांधी की फोटो क्यों लगानी चाहिए? जब देश-प्रदेश की सरकारें लगातार मुजरिमों की तरह काम करती हैं, और दिखावा जनकल्याण का करती हैं, तो फिर वे चाहे गांधी के हत्यारों की तस्वीरें टांग लें, गांधी की तस्वीर को सरकारी दफ्तरों में टांगना तो गांधी को मरने के बाद भी सलीब पर टांगने सरीखा है, कम से कम मर चुके गांधी पर इतनी तो रहम करनी चाहिए कि हर बरस दो-चार बार यह याद न दिलाया जाए कि देश गांधी की सोच के कितने खिलाफ चल रहा है। 

हमारा यह भी मानना है कि आज देश की राजनीतिक ताकतें इस बात की हकदार नहीं हैं कि विदेशों से आने वाले मेहमानों को वे राजघाट ले जाकर गांधी के नाम पर बेवकूफ बनाएं। यह कुछ उसी किस्म का है कि एक परिवार के नौजवान बेटे बूढ़े मां-बाप को वैसे तो भूखे मारें, प्रताडि़त करें, लेकिन जब बाहर से मेहमान आएं तो मां-बाप को ठीक-ठाक कपड़े पहनाकर मेहमानों को ले जाकर मां-बाप के पांव छुआएं। आज इस देश में कितनी सरकारें ऐसी हैं जो कि अपनी चाल-चलन के चलते, अपनी सोच के चलते गांधी का नाम भी लेने की हकदार हैं? जो सरकारें लगातार नफरती एजेंडे पर चल रही हैं, जिन्होंने अभी दस बरस पहले तक बड़ी मुश्किल से देश में धर्म के ताने-बाने से कपड़े को बुना था, उसे इन दस बरसों में तार-तार कर दिया गया है। इस देश को एक धर्मराज्य की तरह बना दिया गया है, और अपने धर्म, और सौतेले धर्म या दुश्मन धर्म के बीच ऐसी नफरत खड़ी करने वाले लोगों को राजघाट का रणनीतिक इस्तेमाल नहीं करने देना चाहिए। गांधी को जो करना था वो करते-करते, उसी वजह से गोली खाकर चले गए। अब उनकी हत्या करने वाली सोच को उनका कफन बेचकर राजनीति नहीं करने देनी चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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