संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भारत की 21वीं सदी का आगे का सफर बिहार से शुरू होता है
03-Oct-2023 4:26 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  भारत की 21वीं सदी  का आगे का सफर  बिहार से शुरू होता है

बिहार ने 23 बरस बाद देश में एक बार फिर जाति के मुद्दे को जिंदा कर दिया है। 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके ओबीसी आरक्षण की राह खोली थी, और बिहार के ओबीसी राजनीति करने वाले नीतीश-लालू के गठबंधन ने जातीय जनगणना करवाकर देश में हडक़म्प मचा दिया है। इसके आंकड़े लोगों को चौंकाने वाले हैं, ओबीसी की गिनती जितनी मानी जाती थी, उससे काफी ज्यादा निकली है, और अनारक्षित वर्ग जितना बड़ा माना जाता था, उससे काफी छोटा निकला है। इससे आने वाले वक्त में कई किस्म के फैसले बदलेंगे। इस रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण का फॉर्मूला, और उसकी अधिकतम सीमा को एक बार फिर बदलने की बात होगी। राजनीतिक दलों के सामने भी यह मजबूरी रहेगी कि उम्मीदवारी तय करते हुए वे अलग-अलग जाति और धर्म के अनुपात का ख्याल रखें। हमारा ख्याल है कि जिन पांच राज्यों में अभी विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें उम्मीदवारी तय करते हुए पार्टियों को कम से कम बिहार की इस रिपोर्ट को देखना तो होगा, फिर चाहे इन पांच राज्यों में अभी ऐसी कोई जनगणना न हुई हो। 

भारत बड़ी विविधताओं वाला देश है, और इसके कोई दो राज्य बिल्कुल एक सरीखी जातीय आबादी वाले नहीं हैं। लेकिन बिहार की मिसाल अब बाकी प्रदेशों में कम से कम ओबीसी आबादी के लिए एक उत्साह की वजह रहेगी क्योंकि पढ़ाई और नौकरी में मिलने वाला, पंचायत और म्युनिसिपल चुनाव में मिलने वाला ओबीसी आरक्षण अभी संसद और विधानसभाओं में लागू नहीं है, जो कि सत्ता का मुख्य केन्द्र हैं। ऐसे में ओबीसी अपनी आबादी दिखाकर अलग-अलग प्रदेशों में उसके अनुपात में राजनीतिक हक भी मांग सकता है, और आरक्षण का अनुपात भी बदल सकता है। यहां पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि इंडिया-गठबंधन के एक प्रमुख नेता राहुल गांधी, और कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी ने संसद के भीतर जातीय जनगणना कराने की मांग की थी। बाद में राहुल ने संसद के बाहर भी लगातार इस बात को दुहराया है, और सार्वजनिक वायदा किया है कि इंडिया-गठबंधन की सरकार बनते ही पूरे देश में जातीय जनगणना करवाई जाएगी। 

अभी बिहार की जनगणना के आंकड़े देखें तो 63 फीसदी ओबीसी के अलावा दलित-आदिवासी आरक्षित आबादी को देख लें, तो उसके बाद कुल साढ़े 15 फीसदी अनारक्षित तबका बचता है। अलग-अलग राज्यों में ये आंकड़े अलग-अलग रहेंगे, लेकिन बिहार की इस जनगणना से पूरे देश में ओबीसी राजनीतिक-आरक्षण का रास्ता शुरू हो गया है। कुछ लोगों ने यह भी लिखना शुरू किया है कि आबादी के अनुपात में बिहार में अभी के अनारक्षित तबके को साढ़े 15 फीसदी आरक्षण दे दिया जाए, और बाकी आरक्षित तबकों के लोगों को जैसे बांटना हो, बांट लें। ऐसी नौबत आ भी सकती है क्योंकि आज तो तमाम ताकतवर कुर्सियों पर आज के अनारक्षित तबके हावी हैं। राहुल गांधी ने पिछले दिनों संसद और बाहर एक बात जोर-शोर से सामने रखी थी कि भारत सरकार के 90 सचिवों में से कुल 3 ओबीसी हैं। ये सचिव ही देश का बजट तय करते हैं, सरकार की बहुत सी नीतियां बनाते हैं, कार्यक्रम बनाते हैं, और देश पर राज करते हैं। अब अगर इनमें ओबीसी समुदाय का यह अनुपात है, तो यह फिक्र की बात तो है ही। 

जिन लोगों को ऊंची जातियों के लोगों में ही प्रतिभा दिखती है, उन्हें अपनी सोच कुछ सुधारनी चाहिए। न अंबेडकर ऊंची जाति के थे, और न ही तमिलनाडु के सबसे महान मुख्यमंत्री कामराज। इस देश में नेताओं से परे भी हर किस्म के काम में हर किस्म की जाति और धर्म के लोग अपनी खूबियों को साबित कर चुके हैं। इसलिए जातियों का दंभ अब खत्म कर देने की जरूरत आ गई है। जिस तरह भारत में नीची कही जाने वाली जातियों को हिकारत से देखा जाता है, उसी तरह अमरीका जैसे देश में काले रंग को हिकारत से देखते हैं। वैसे देश में बराक ओबामा दो-दो बार राष्ट्रपति चुने गए, और अभी वहां एक भारतवंशी और अश्वेत मां-बाप की संतान कमला हैरिस उपराष्ट्रपति हैं। इसलिए किसी नस्ल से किसी प्रतिभा का कोई लेना-देना नहीं रहता है। दूसरी तरफ हमने देखा है कि हिन्दुस्तान के अधिकतर सबसे बड़े मुजरिम ऊंची कही जाने वाली जातियों के रहे हैं। ऐसी ही एक जाति का जिक्र करके राहुल गांधी अदालत से सजा पाए हुए हैं, इसलिए हम किसी खास जाति का जिक्र करना नहीं चाहते हैं। लेकिन हाल के बरसों में सबने देखा है कि उत्तरप्रदेश के कुछ सबसे कुख्यात मुजरिम सबसे ऊंची कही जाने वाली जाति के रहे हैं। इसलिए अब वक्त आ गया है कि मनुस्मृति में किए गए जातियों के बखान से उबरकर वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक तरीके से चीजों को देखा जाए। 

दूसरी बात यह भी है कि जातीय जनगणना को अगर हाल के बरसों में सामने आए डीएनए निष्कर्षों से जोडक़र देखें, तो भारत की जातियों की जड़ों की जानकारी बहुत से लोगों को हैरान कर सकती हैं, सदमा पहुंचा सकती हैं। भारत में ऊंची समझी जाने वाली कुछ जातियों का डीएनए दूसरे देशों का मिला है, और इससे हो सकता है कि उनका जाति-दंभ कुछ खतरे में भी पड़ जाए। इस बारे में बहुत सी वैज्ञानिक रिपोर्ट किताबों की शक्ल में सामने आ चुकी हैं, इसलिए यहां पर उसके बारे में अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। लेकिन बिहार की जातीय जनगणना को लेकर आज देश में जो बहस छिड़ी है, वह एक ही तरफ जाते हुए दिखती है कि जिस जाति की जितनी आबादी है, उसका उतना ही हक होना चाहिए। लोकतंत्र में हर व्यक्ति का बराबर एक-एक वोट ही होता है, और हर व्यक्ति के अवसर भी बराबर होने चाहिए। आबादी के अनुपात में आरक्षण से आज की ऊंची कही जाने वाली जातियों को अपना बड़ा नुकसान होते दिखेगा, क्योंकि आज वे अधिक अवसरों पर काबिज हैं, लेकिन बढ़ती हुई सामाजिक-राजनीतिक चेतना के चलते यह अनुपातहीन व्यवस्था अंतहीन तो चलनी भी नहीं थी, और बिहार ने शायद इस व्यवस्था के खात्मे को एक फास्टट्रैक पर डाल दिया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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