संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दरबारी-चापलूस मीडिया के युग में खटकता खरा और ईमानदार मीडिया..
05-Oct-2023 3:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दरबारी-चापलूस मीडिया  के युग में खटकता खरा और ईमानदार मीडिया..

भारत की एक समाचार-विचार वेबसाइट, न्यूजक्लिक को लेकर सरकार पिछले कई महीनों से एक जांच चला रही थी। सरकार का कहना है कि इसमें विदेशी पूंजीनिवेश के नियमों को तोड़ा गया है। यह मामला वैसे ही जांच एजेंसियों और अदालत तक पहुंचा हुआ था, लेकिन दो दिन पहले दिल्ली में इससे जुड़े हुए वेतनभोगी, और बाहरी पत्रकारों पर पुलिस के जो छापे पड़े वे हक्का-बक्का करने वाले हैं। करीब 30 लोगों पर सुबह-सुबह छापे पड़े, और उनके लैपटॉप, मोबाइल फोन जब्त कर लिए गए, उनसे सुबह से शाम तक पूछताछ चलती रही। पत्रकारों को तो शाम तक छोड़ दिया गया, लेकिन इस वेबसाइट के संचालक एक दूसरे बड़े अफसर को पुलिस ने शाम तक गिरफ्तार कर लिया। यह गिरफ्तारी आतंकविरोधी एक कड़े कानून, यूएपीए के तहत की गई है जिसमें जमानत होने में महीनों और बरसों तक लग जाते हैं। यूएपीए कानून का पहले भी बेजा इस्तेमाल होने का आरोप लगाते हुए पत्रकार इसे हटाने की मांग कर रहे थे, और मानवाधिकार आंदोलनकारी इसे कुचलने का एक अधिकार मान रहे थे। मोदी सरकार का रूख मीडिया को लेकर, खासकर असहमत मीडिया को लेकर कुछ अधिक ही कड़ा है, और आज देश का मीडिया दो खेमों में बंट गया है, सरकार, खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रशंसकों का मीडिया देश में गोदी मीडिया कहा जाता है, और बाकी बचा छोटा सा हिस्सा मीडिया कहा जा सकता है जिस पर तरह-तरह की जांच एजेंसियां अभी टूट पड़ी हैं, और लंबे समय से यही सिलसिला चल रहा है। 

लेकिन अभी न्यूजक्लिक के मामले को लेकर पत्रकारों की जो प्रतिक्रिया सामने आई है वह लोकतंत्र के लिए खतरे के सुबूत सरीखा है। बहुत से मीडिया संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को कल एक लंबी चिट्ठी लिखकर मीडिया पर हो रहे सरकारी हमलों की तरफ उनका ध्यान खींचा है, और उनसे दखल देने की उम्मीद की है। मीडिया से जुड़े हुए तमाम प्रतिष्ठित संगठनों ने इन छापों को सरकारी आतंक करार दिया है, और कहा है कि किसी संस्थान के दर्जनों पत्रकारों पर आतंक में शामिल होने का आरोप लगाना बहुत ही नाजायज बात है, और यह मीडिया को कुचलने के अलावा और कुछ नहीं है। दो दिन पहले के इन छापों को बड़ी मनमानी का एक बड़ा सुबूत करार दिया गया है, और याद दिलाया गया है कि दुनिया में प्रेस की आजादी की 180 देशों की लिस्ट में भारत 161वीं जगह पर पहुंच गया है। 2002 में भारत इस लिस्ट में 150वीं जगह पर था। मीडिया संगठनों ने पिछले दो दिनों में इस बात को उठाया है कि पिछले कुछ बरसों में लगातार ऐसे मीडिया संस्थानों पर सरकारी एजेंसियों की छापेमारी हुई है जिन्होंने जायज वजहों से भी केन्द्र सरकार की आलोचना की थी। 

किसी लोकतंत्र में मीडिया आजाद नहीं रह सकता अगर देश के कुछ सबसे बड़े कारोबारी हजारों करोड़ रूपए डालकर रातोंरात मीडिया कारोबारी बन जाते हैं। इसके बाद केन्द्र या राज्य सरकारों के लिए यह आसान हो जाता है कि वे अपने-अपने प्रभाव और अधिकार क्षेत्र में बाकी मीडिया संस्थानों को खरीदकर, या कुचलकर काबू में कर लें। यह नौबत देश के कुछ प्रदेशों में भी है, लेकिन केन्द्र सरकार इस पैमाने पर बहुत ऊपर साबित हो रही है। दरअसल कोई भी सरकार जब चुनावों में अपार बहुमत पाकर सत्ता पर आती है, वह लगातार सत्ता पर बनी रहती है, तो उसे आलोचना, जरा सी भी आलोचना बहुत खटकने लगती है। उसे लगता है कि यह आलोचना उसे मिले जनसमर्थन का नोटिस नहीं ले रही है। एक बड़े टीवी समाचार चैनल के पिछले दिनों भोपाल में हुए कार्यक्रम में एक लोकगायिका नेहा सिंह राठौर से मंच पर ही चैनल की एंकर बहस कर रही थी कि जो नेता लाखों वोटों की लीड से जीतकर आते हैं, उनकी आलोचना कैसे की जा सकती है? सफलता चाहे वह किसी भी तरीके से, किसी भी कीमत पर पाई गई हो, वह सिर चढ़ती ही है। और फिर जब गोदी मीडिया, भक्त मीडिया, चापलूस मीडिया की बड़ी मौजूदगी आसपास हो, तो फिर सत्ता को यह बात और खटकती है कि कुछ गिने-चुने बचे हुए लोग किस तरह उसके खिलाफ हो सकते हैं? 

जब देश में लोकतंत्र इतना कमजोर हो जाए कि जनधारणा की किसी सरकार को परवाह न रह जाए, जब नेता अपने आपमें आत्ममोहन के शिकार हों, जब चापलूसों और दरबारियों की भीड़ हो, तो फिर आलोचना करने वाले मीडिया को कुचलना आसान हो जाता है। और ऐसे वक्त समझ आता है कि देश में अलोकतांत्रिक कानूनों की मौजूदगी सबसे पहले आजादी के हिमायती लोगों को कुचलने के काम ही आती है। इसलिए यह भी समझने की जरूरत है कि ऐसी नौबत आने के पहले भी देश में आतंक के नाम पर चलाए जा रहे उन अलोकतांत्रिक कानूनों को खत्म करवाना चाहिए जो लोगों को बिना किसी सुनवाई बरसों तक कैद रखने के लिए लगातार इस्तेमाल किए जाते हैं। कुछ बहुत चर्चित मामले हों, जिनमें कुछ बड़े वकील बिना फीस लिए शामिल हो जाएं, तो भी जमानत होने में बरसों लग जा रहे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने अभी कुछ अरसा पहले लोकतंत्र में मीडिया की आजादी की अहमियत पर काफी कुछ कहा था। अभी कल मीडिया संगठनों ने मुख्य न्यायाधीश को लिखी खुली चिट्ठी में उनकी कही हुई बातें याद दिलाई हैं। सुप्रीम कोर्ट की दखल से कम, और किसी चीज से सरकारी मनमानी कार्रवाई पर कोई रोक लगते दिख नहीं रही है। यह ऐसा मौका है जब अदालत को हालात को असाधारण मानते हुए कुछ असाधारण कार्रवाई करनी चाहिए, सरकार से जवाब-तलब करना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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