संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गरीब स्कूली बच्चों का खानपान प्राथमिकता हो
12-Dec-2023 5:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : गरीब स्कूली बच्चों का खानपान प्राथमिकता हो

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

छत्तीसगढ़ की एक खबर है कि यहां सरकारी स्कूलों में दोपहर के भोजन के लिए केन्द्र सरकार से बजट नहीं आ रहा है। तीस लाख स्कूली बच्चों के खाने का करीब तीन सौ करोड़ रूपए न आने से किसी तरह इन स्कूलों में काम चल रहा है। जाहिर है कि स्थानीय स्तर पर कामचलाऊ इंतजाम से खाने पर सीधा असर पड़ रहा होगा। यह बात पिछली कांग्रेस सरकार के वक्त की है, और केन्द्र से जो पैसा आना है, वह वेबसाइट की किसी दिक्कत की वजह से रूका हुआ बताया जा रहा है। अब छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार कल से काम संभाल लेगी, और इसे नई सरकार को अपनी पहली जिम्मेदारी मानना चाहिए क्योंकि सरकारी स्कूलों के तीस लाख बच्चे प्रदेश के सबसे ही गरीब तबके वाले के भी रहते हैं, और उनके खानपान में किसी भी तरह की कमी बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए। दूसरी तरफ हमने पिछले एक-दो बरस में कई बार इसी कॉलम के मार्फत, और अलग से एक योजना की जानकारी प्रदेश की भूपेश सरकार को और तमाम राजनीतिक दलों को दी थी, जो कि सरकारी स्कूलों में बच्चों के सुबह के नाश्ते के बारे में थी। तमाम पार्टियों में से सिर्फ भाजपा ने इसे गंभीरता से लिया, और उसके चुनावी घोषणापत्र में इसे जोड़ा गया है। पहली से आठवीं तक के बच्चों को नाश्ता देने का वायदा किया गया है, और हमारा मानना है कि इसे बिना देर किए शुरू करना चाहिए, इसके लिए धान बोनस जैसी बड़ी रकम भी नहीं लगनी है। लेकिन उसके पहले दोपहर के भोजन में जहां कहीं रूकावट आ रही है, उसे खत्म करना चाहिए, और जरूरत हो तो भ्रष्टाचार में डूबे हुए डीएमएफ फंड सरीखे सैकड़ों-हजारों करोड़ का इस्तेमाल इस काम में करना चाहिए। 

अब चूंकि स्कूली बच्चों के मुद्दों पर आज हम लिख ही रहे हैं, इसलिए यह बात भी सोचने लायक है कि प्रदेशों में डीएमएफ जैसे फंड से अंधाधुंध रकम निकालकर भूपेश सरकार की एक सबसे पसंदीदा योजना, आत्मानंद स्कूलों पर अनुपातहीन खर्च किया गया, और प्रदेश के बाकी आम सरकारी स्कूल उनके बदहाल पर छोड़ दिए गए। हमने इस मामले को पिछले बरसों में कई बार उठाया, और पिछले महीनों की चुनाव चर्चाओं में अपने यूट्यूब चैनल पर भी इस बारे में कई बार बात की कि राज्य में जिन स्कूलों का सबसे अच्छा ढांचा था, उन्हें सरकार ने ले लिया, और वहां पर आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल बना दी गईं। हमने इस बात पर भी हैरानी जाहिर की थी कि अगर बच्चों को अंग्रेजी ही पढ़ाना है, तो वह तो महज एक भाषा है, उसके लिए महंगे ढांचे, महंगी पोशाक, और अतिरिक्त सुविधाओं की क्या जरूरत है? वैसे भी इतना बड़ा खर्च कुल तीन-चार फीसदी आत्मानंदी छात्रों पर किया जा रहा है, और बाकी छात्रों को सिर्फ परमात्मानंद (भगवान भरोसे) स्कूल नसीब हैं। हम सरकारी स्कूलों के छात्रों को अतिरिक्त सुविधाएं देने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रदेश के सरकारी छात्रों के बीच संपन्नता के कुछ टापू बना देना ठीक नहीं है, क्योंकि उसी सरकारी खजाने से तो प्रदेश की दसियों हजार दूसरी हिन्दी स्कूलों को भी चलाना है, जो कि बहुत खराब हालत में हैं। एक तरफ आत्मानंद स्कूलों के लिए अंग्रेजी के महंगे शिक्षक लिए जा रहे हैं, दूसरी तरफ गांव-गांव में सरकारी स्कूलें ऐसी हैं जहां एक-एक शिक्षक के भरोसे पांच-पांच कक्षाएँ चलती हैं। एक ही विभाग के भीतर महज भाषा के आधार पर ऐसा भेदभाव अंग्रेजों की छोड़ी गई भाषा का एक आतंक है, और उससे उबरने की जरूरत है। अंग्रेजी स्कूलों में कोई बुराई नहीं है, वे वक्त की जरूरत भी हैं, लेकिन सिवाय अंग्रेजी शिक्षकों के बाकी तमाम बातें ज्यों की त्यों रखी जानी चाहिए थीं। हो सकता है कि नई सरकार ऐसे अनुपातहीन फिजूलखर्च के बारे में कुछ सोचे, और बिना भेदभाव के सभी बच्चों की भलाई के लिए क्या-क्या हो सकता है उस बारे में सोचे। हम किसी स्कूल को बंद करने की सिफारिश नहीं कर रहे हैं, लेकिन जिस फिजूलखर्ची को लेकर हम पिछले दो बरस में कई बार लिख चुके हैं, आज स्कूलों के मिड-डे-मील पर लिखते हुए उसी को याद दिला रहे हैं। 

छत्तीसगढ़ की नई सरकार को तमाम आर्थिक दिक्कतों के बीच भी स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाना चाहिए। इसके अलावा इन दोनों ही विभागों में हमेशा से चले आ रहे बहुत ही संगठित भ्रष्टाचार को भी खत्म करना चाहिए क्योंकि गरीबों के हक को नेता, अफसर, ठेकेदार मिलकर इस तरह खा जाएं, यह ठीक नहीं है। दुनिया में जो भी देश आगे बढ़ते हैं, वे अपना स्कूल शिक्षा, और इलाज का बजट अधिक रखते हैं। इन्हीं दोनों से जनता की उत्पादकता बढ़ती है, और किसी देश-प्रदेश की अर्थव्यवस्था बेहतर होती है। केरल जैसे राज्य इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल हैं जहां पर कोरोना से जूझने का काम देश में सबसे अच्छा हुआ था, और जो पढ़ाई के मामले में देश में अव्वल है। केरल की सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा अलग हो सकती है, लेकिन भारत जैसे संघीय ढांचे में राज्यों को एक-दूसरे के कामयाब तजुर्बों से सीखना चाहिए। पिछली सरकार में इन दोनों ही विभागों में तैनात कुछ बड़े अफसर प्रदेश के सबसे भ्रष्ट अफसर भी थे। इसलिए नई सरकार को बहुत सावधानी से इन विभागों का जिम्मा ईमानदार और काबिल अफसरों को देना चाहिए। 

नए मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय छोटे गांव से निकलकर आए हुए आदिवासी हैं जिन्होंने इतने लंबे राजनीतिक जीवन में सरकारी स्कूलों का हाल कई अलग-अलग हैसियत में देखा होगा। हम उम्मीद करते हैं कि वे अपने व्यस्त कार्यकाल में भी इस व्यवस्था को सुधारने की कोशिश करेंगे क्योंकि हर कुछ दिनों में छत्तीसगढ़ के किसी न किसी स्कूल में नशे में धुत्त शिक्षक की खबर आती है, तस्वीरें और वीडियो चारों तरफ फैलते हैं। बच्चों पर न केवल बजट, बल्कि फिक्र भी लगाने की जरूरत है, ताकि जब वे बड़े हों तो उनके सामने बेहतर मिसालें रहें, और नशे में धुत्त गुरूजी उनकी प्रेरणा न बनें। फिलहाल नए मुख्यमंत्री को दोपहर का भोजन, और भाजपा घोषणापत्र के मुताबिक सुबह का नाश्ता, इसका ख्याल सबसे पहले करना चाहिए क्योंकि भूख और बदन की पोषण आहार की जरूरत को एक दिन भी रोकना ठीक नहीं है।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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