संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नई सरकारें, चुनौतियां और संभावनाएं अपार
13-Dec-2023 7:26 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   नई सरकारें, चुनौतियां और संभावनाएं अपार

छत्तीसगढ़ में आज से एक नई सरकार काम संभाल रही है। भाजपा न केवल एक मजबूत बहुमत के साथ सत्ता पर आई है, बल्कि कांग्रेस के पांच बरस के कार्यकाल की गलतियों और गलत कामों को लगातार करीब से देखते हुए उसे सबक भी मिले हैं। ऐसे में प्रदेश के हित में हम यह उम्मीद करते हैं कि भाजपा के नए मुख्यमंत्री और उनकी बाकी टीम यह ध्यान रखे कि तमाम किस्म की सीधे फायदे पहुंचाने वाली योजनाओं के बाद भी अगर मतदाताओं ने कांग्रेस को खारिज किया, तो इस भाजपा सरकार को भी उस किस्म की गलतियों से, और गलत कामों से बचना चाहिए। चुनाव तो हर पांच बरस में आते रहेंगे, और पांच बरस के पहले भी किसी भी राज्य में लोकसभा और स्थानीय संस्थाओं के चुनाव भी होते रहते हैं, इसलिए सरकार का कामकाज लोगों के बीच में एक धारणा बनाते रहता है, सरकार की साख बनती और बिगड़ती रहती है। यह बात हैरान करने वाली है कि पिछली भूपेश बघेल सरकार का सैकड़ों करोड़ लागत का जनधारणा-प्रबंधन काम नहीं आया, और उससे महज सत्ता खुद एक झांसे में रही, और उसने शायद कभी यह सोचा भी नहीं था कि वह हार भी सकती है, इतनी बुरी तरह हारने की बात तो शायद उसकी कल्पना से परे की थी। 

जब तक हमारा यह लिखा छपेगा, तब तक शायद छत्तीसगढ़ सरकार के मंत्री तय हो चुके होंगे, और उनके विभागों का बंटवारा भी आज-कल में हो जाएगा। मंत्रियों के नाम तय करने में शायद मुख्यमंत्री का अकेले का अधिकार न हो, और पार्टी नाम तय करके उन्हें दे, लेकिन विभागों के बंटवारों में मुख्यमंत्री की अधिक मर्जी चल सकती है। हम यह बात आज लिख तो छत्तीसगढ़ के संदर्भ में रहे हैं, लेकिन यह आज-कल में ही मध्यप्रदेश और राजस्थान पर भी लागू होने वाली है, और यह पांच बरस बाद भी प्रदेशों और पार्टियों के नाम बदलकर, उस वक्त भी कहीं पर भी लागू की जा सकेगी। इसलिए यह डॉक्टर की लिखी गई एक जेनेरिक दवा है, न कि कोई ब्रांड दवा। इसलिए यह छत्तीसगढ़ सरकार के लिए कोई सलाह या नसीहत बिल्कुल नहीं है, यह भारत जैसे लोकतंत्र में एक राजकाज की एक मामूली समझ है। 

सरकार में मंत्रियों के विभाग तय करते हुए आमतौर पर राजनीतिक पैमाना यह रहता है कि जो मंत्री जितने वजनदार हों, उन्हें उतने ही बड़े बजट वाले, या अधिक कमाई की गुंजाइश वाले विभाग दिए जाते हैं। यहां पर अगर किसी मुख्यमंत्री को फैसला लेने की छूट पार्टी से मिले, तो विभागों के कामकाज के मिजाज को देखते हुए उसके हिसाब से मंत्री तय करना, या मंत्रियों का जिस किस्म का अनुभव है, उस किस्म के विभाग उन्हें देना चाहिए। मंत्रियों के अलावा जो दूसरी बात सबसे अधिक मायने रखती है, वह विभागों के लिए अफसरों को छांटना। कहने के लिए सरकार के विभाग चलाने वाले तमाम अफसर अखिल भारतीय सेवाओं के रहते हैं, लेकिन उनकी साख, उनका अनुभव देखते हुए अगर उन्हें विभागों में रखा जाए, तो वहां का कामकाज खासा अच्छा हो सकता है। लेकिन यहां पर भी लोग आमतौर पर साख और तजुर्बे के बजाय व्यक्तिगत निष्ठा को पहला पैमाना मानते हैं, और वहीं से काम बिगडऩा शुरू होता है। हर नई सरकार के पास यह एक गुंजाइश रहती है कि वह मौजूदा अफसरों में से उनकी काबिलीयत, ईमानदारी की साख, और अनुभव को देखते हुए उन्हें जिम्मा दे। जो मुख्यमंत्री या पार्टी यह सावधानी बरतते हैं, वे बाद में अदालती कटघरे में खड़े नहीं होते। कई सरकारों में हमारा देखा हुआ है कि सचिव और मंत्री एक टीम की तरह काम करने के बजाय, एक गिरोह की तरह काम करने लगते हैं, और नतीजा यह होता है कि उस विभाग में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होने लगता है, और बाद में मामले जांच एजेंसियों और अदालतों तक पहुंचते हैं। बहुत से मंत्री ऐसे ही भ्रष्टाचार की वजह से चुनाव हारते भी हैं। इसलिए बड़े अफसरों को इस बुरी तरह राजनीतिक नियंत्रण में नहीं रखना चाहिए कि वे कानून के मुताबिक सही सलाह देने के बजाय सिर्फ मंत्री की हां में हां मिलाने लगें। जब ऐसा करना मजबूरी हो जाती है, तो फिर अफसर जो कि कागजी काम में माहिर होते हैं, वे कागजों में खुद बचते हुए कई बार मंत्रियों को फंसा देते हैं। कभी-कभी मंत्री अधिक ताकतवर होते हैं, तो वे अफसरों के पुराने कुकर्मों की फाइलों को अपने कब्जे में रखकर उनसे नए कुकर्म करवाते हैं, और अपने दस्तखत फंसने से बचे भी रहते हैं। एक नए मुख्यमंत्री को सरकार के प्रशासनिक ढांचे को राजनीतिक दबाव से कुचलने भी नहीं देना चाहिए, कई बार मंत्री एक स्वायत्तशासी विभाग के मालिक की तरह बेकाबू भी होने लगते हैं, लेकिन ऐसे में यह जिम्मेदारी मुखिया पर ही आती है कि वे प्रशासन और पार्टी, दोनों के माध्यम से ऐसे बेकाबू मंत्रियों पर काबू रखें। दिक्कत वहां पर और बड़ी हो जाती है जब मुख्यमंत्री और उनके करीबी अफसर ही पूरी सरकार में सबसे अधिक बेकाबू रहते हैं, और फिर उनको सही राह पर लाने की ताकत किसी में नहीं रहती। हम उम्मीद करते हैं कि नए राज्यों के नए मुख्यमंत्री अपने-अपने और दूसरे राज्यों के ऐसे तजुर्बों से सीख लेकर काम करें क्योंकि कानून तो हर दिन अपना काम कर सकता है, वोटरों को ही पांच बरस में एक बार फैसले का मौका मिलता है। 

पहली बार मुख्यमंत्री बन रहे नेताओं को एक नया इतिहास बनाने का मौका भी मिलता है, वे पारदर्शिता और ईमानदारी के नए पैमाने गढ़ सकते हैं, आम जनता की जिंदगी में सरकारी अमले के भ्रष्टाचार से होने वाली दिक्कतों को कम कर सकते हैं। एक कार्यकाल के बाद के मुख्यमंत्री तो धीरे-धीरे ऐसी तमाम चीजों को सरकार का मजबूरी का एक हिस्सा मानने लग जाते हैं, लेकिन जब तक लोग सत्ता पर नए हैं, तब तक उनकी संवेदनशीलता भी जिंदा रहती है, और उसका इस्तेमाल भी करना चाहिए। नए मुख्यमंत्रियों को यह भी चाहिए कि वे अपने अफसरों, सलाहकारों, और पार्टी के लोगों से परे के संपर्क भी जिंदा रखें। कई मुख्यमंत्री इसी की कमी के शिकार हो जाते हैं, और अपने ही करीबी दायरे के कैदी की तरह वे अपने पूरे प्रदेश की हकीकत से वाकिफ नहीं रह पाते। ऐसे ही लोग चुनाव तक अपने जीत के अहंकार से भरे रहते हैं, और फिर अचानक उन्हें हार मिलती है। 

भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर सबसे कामयाब पार्टी है। देश पर उसकी सत्ता है, और देश के सबसे अधिक प्रदेशों पर यही पार्टी काबिज है। छत्तीसगढ़, एमपी में भी भाजपा ने 15 या अधिक बरस राज किया है। ऐसे में उसे बाहर से किसी सलाह की जरूरत नहीं है। हम तो आज महज कुछ सिद्धांतों की बात कर रहे हैं जो कि किसी भी शासन-प्रशासन के काम आ सकती हैं, और इन्हें पूरी तरह अनदेखा करते हुए भी लोग अपने हिसाब से भी सरकार चला सकते हैं, जो कि एक बिल्कुल ही अलग तौर-तरीका भी हो सकता है। देखना है कि भाजपा के जो तीन नए मुख्यमंत्री काम शुरू करने जा रहे हैं, उनके तौर-तरीके क्या रहते हैं, और वे अपने राज्य के लोगों की कितनी सेवा कर सकते हैं, शासन-प्रशासन को कितना बेहतर बना सकते हैं, राज्य का कितना आर्थिक विकास कर सकते हैं, और इनके साथ-साथ साख कितनी कमा सकते हैं। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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