संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्ता तो बददिमाग़ हुए बिना रह भी गई होती, चापलूसों ने गर रहने दिया होता तो..
21-Jan-2022 3:58 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  सत्ता तो बददिमाग़ हुए बिना रह भी गई होती, चापलूसों ने गर रहने दिया होता तो..

अखबारों में काम करने वाले जूनियर रिपोर्टरों की भाषा सुनें तो वे पुलिस या सरकारी महकमे की जुबान बोलने लगते हैं। वीआईपी की लोकेशन, मिनट 2 मिनट मूवमेंट,  वीवीआईपी इंतजाम जैसे शब्द उनके मुंह से भी झड़ते हैं, और उनकी कलम या उनके कीबोर्ड से भी। दरअसल सरकारी अमले के साथ काम करते हुए लोगों की सोच भी उसी तरह की हो जाती है जिस तरह मुजरिमों के साथ काम करते हुए पुलिस की सोच मुजरिमों जैसी होने लगती है, और पुलिस में से बहुत से लोगों को जुर्म करने में कुछ अटपटा नहीं लगता है। अखबार और टीवी चैनलों के लोग, और अब शायद समाचार पोर्टलों के लोग भी यह लिखने लगते हैं कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री आज किसी प्रदेश या जिले को कितने हजार या कितने सौ करोड़ रुपए की सौगात देंगे। लिखने के लिए तो सौगातें शब्द लिखा जाता है, लेकिन उसकी भावनाएं रहती हैं मानो नेताजी खैरात देने जा रहे हों। यह जनता का पैसा रहता है, जनता का हक रहता है, और जनकल्याण की योजनाओं के तहत बजट की मंजूरी के बाद ऐसी योजनाएं शुरू की जाती हैं, लेकिन इन्हें सौगात की शक्ल दी जाती है क्योंकि वोटों के लिए योजना शब्द का असर कम रहता है, सौगात शब्द का असर ज्यादा रहता है। और मीडिया खुद होकर बढ़-चढक़र ऐसी योजनाओं को सौगात लिखने लगता है क्योंकि उसकी नीयत नेताओं की चापलूसी की रहती है। और प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और मंत्रियों तक किसी को भी इस बात पर कोई आपत्ति नहीं होती कि जनता को उसका हक देने की बात को सौगात कैसे लिखा जा रहा है। दरअसल सत्ता लोगों के मिजाज को सामंती कर ही देती है।

लेकिन यह तो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के स्तर की बात हुई उनसे नीचे भी अगर देखें तो सत्ता के आसपास काम करने वाले अखबारनवीस और दूसरे मीडियाकर्मी लगातार सत्ता के सामंती मिजाज में ढलने लगते हैं और वे किसी बड़े नेता के राजनीतिक उच्चाधिकारी जैसे विशेषण का इस्तेमाल करने लगते हैं, या खानदान के चिराग, व्यक्तित्व के करिश्मे जैसी बात लिखने लगते हैं, लोकतंत्र से उनका वास्ता घटने लगता है और सत्तातंत्र के चापलूसी पसंद मिजाज को वे राजनीतिक रिपोर्टिंग का एक अंदाज मानकर उसी में चलने लगते हैं, उसी में ढलने लगते हैं। धीरे-धीरे जब मीडिया के लोगों को इतने बड़े नेताओं का रूबरू साथ नसीब नहीं होता, वे कम ताकत वाले अफसरों के खुशामदखोर मातहतों की तरह काम करने लगते हैं, और वे अफसरों का गुणगान उसी तरह करने लगते हैं जिस तरह एक वक्त चारण और भाट अपने इलाके के राजाओं की स्तुति गाते थे। यह सिलसिला सत्ता के साथ कपड़ों की रगड़ खाने से बढ़ते चलता है, और फिर मीडिया का यह हिस्सा ऐसी खुशफहमी में भी जीने लगता है कि वह सत्ता ही है। उसके कहे सत्ता कुछ काम कर देती है, या वह सत्ता को अपने हिसाब से प्रभावित कर सकता है।

लोकतंत्र में जिस तरह यह जरूरी रहता है कि हर कुछ चुनावों में पार्टी बदलती रहे, हर कुछ सालों के बाद लोगों की कुर्सियां बदलती रहें, उनके विभाग बदलते रहें, उसी तरह मीडिया में काम करने वाले लोगों का दायरा भी बदलते रहना चाहिए। इसके पहले कि वे अपने काम के दायरे को अपना खुद का ही दायरा मानने लगें, अपने आप पर फिदा हो जाएं, अपनी ताकत और अपनी पहुंच को ही वे सत्ता मानने लगें, उसके पहले ऐसे लोगों के दायरे बदल देने चाहिए। जो लोग महज किसी राजनीतिक दल की रिपोर्टिंग करते हैं, वे तो फिर भी उस पार्टी के सत्ता में आने और जाने के साथ-साथ एक उतार-चढ़ाव को देखते चलते हैं, और वे कभी कभी वे अधिक से अधिक विपक्ष की ताकत को भोगते हैं, और वे कभी न कभी सत्ता की ताकत से परे भी हो जाते हैं, लेकिन जो लोग लगातार सरकार को कवर करते हैं, लगातार सरकार की रिपोर्टिंग करते हैं, उनकी सोच सरकार की सोच की तरह होने लगती है और वे जनता से कटकर नेता से जुड़ जाते हैं, और नेता जिस हद तक जनतंत्र से कटे रहते हैं, कुछ उसी हद तक ऐसे लोग भी जनता से कट जाते हैं। दरअसल पर्दे की पीछे की बातों को जरूरत से अधिक जानने का भी यह असर होता है कि लोगों को तमाम बातों को न लिखते हुए भी यह लगता है कि वे उसे लिख रहे हैं जबकि होता यह है कि वह महज उसे जानते होते हैं। सत्ता की रिपोर्टिंग की एक दिक्कत यह भी रहती है कि लिखने या बोलने के बाद किसी भी पल फिर उन लोगों से रूबरू सामना होता है जिनके बारे में वे लिखते हैं या बोलते हैं, और उनका सामना करने का साहस हर किसी में नहीं रहता। या पूरा सिलसिला ठीक वैसा ही भ्रष्ट हो जाता है जैसा कि सत्ता के भीतर का सिलसिला रहता है जहां पर किसी भी भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार न मानकर जरूरत करार दे दिया जाता है कि राजनीति ऐसे ही चलती है, चुनाव ऐसे ही होते हैं, और सरकारें तो ऐसी ही चलती हैं फिर चाहे पार्टी कोई भी रहे। मुजरिमों के साथ लगातार काम करते हुए पुलिस जिस तरह मुजरिम की तरह सोचने लगती है, उसी तरह सत्ता और राजनीति की रिपोर्टिंग करने वाले लोग सत्ता की तरह सोचने लगते हैं और राजनीति की तरह बर्ताव करने लगते हैं। जिस तरह एक ही जगह जमा हुआ पानी सडऩे लगता है, उसमें काई जमने लगती है, उसी तरह एक ही सत्ता के इर्द-गिर्द परिक्रमा करने वाले लोग सत्ता से प्रदूषित हो जाते हैं, और उन्हें बदलने की जरूरत होने लगती है।

सत्ता की चापलूसी अखबारनवीसी के काम में एक वक्त सबसे ही घटिया बात मानी जाती थी, लेकिन आज तो हिंदुस्तान में बड़े-बड़े मीडिया कारोबार अपने-आपको गोदी मीडिया साबित करके फख्र हासिल करते हैं। जब मीडिया मालिक और बड़े-बड़े संपादक सत्ता की राजनीति की बिसात पर प्यादे बनकर गौरवान्वित होते हैं, तो फिर उनके छोटे-छोटे कर्मचारियों को क्यों कोसना। इस पूरे सिलसिले ने एक वक्त की अखबारनवीसी के गौरवशाली दिनों के इतिहास को भी खत्म सरीखा कर दिया है कि अब उन दिनों को याद करना भी एक किस्म से बागी तेवर अख्तियार करना माना जा सकता है। आगे-आगे देखें, होता है क्या !
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