संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह स्टेट बैंक की आखिरी धूर्तता साबित होगी, या वह इसे और आगे बढ़ाएगा?
19-Mar-2024 4:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : यह स्टेट बैंक की आखिरी धूर्तता साबित होगी, या वह इसे और आगे बढ़ाएगा?

सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉंड का मामला भारतीय लोकतंत्र के कई तबकों की नीयत उजागर कर रहा है। केन्द्र सरकार के सार्वजनिक प्रतिष्ठान, स्टेट बैंक ने तो इस मामले में महीने भर से अधिक से अदालत के साथ लुकाछिपी खेलना शुरू कर दिया है, और अदालती रहमदिली से अब तक बैंक चेयरमैन अवमानना में जेल जाने से बचे हुए हैं। मजबूर होकर पहले के दो-दो एकदम साफ आदेशों के बाद भी अब जाकर सुप्रीम कोर्ट को यह आदेश देना पड़ा है कि बैंक चुनावी बॉंड से जुड़ी हुई हर जानकारी 21 मार्च तक चुनाव आयोग को दे, और चुनाव आयोग इसे तुरंत ही अपनी वेबसाइट पर डाले। अदालत ने यह भी कहा है कि स्टेट बैंक के चेयरमैन हलफनामा दें कि उन्होंने कुछ भी नहीं छुपाया है। कायदे की बात तो यह है कि देश के सबसे बड़े बैंक के चेयरमैन को अदालत के सामने इस बेइज्जती को झेलने से पहले पद से इस्तीफा दे देना था, या चुल्लू भर पानी में डूब जाना था। लेकिन ऊंचे ओहदों पर शर्म इन दिनों काफी शॉर्ट सप्लाई में है। सुप्रीम कोर्ट के सामने एक बड़े वकील ने देश के उद्योग संगठनों की ओर से खड़े होकर कहा कि बॉंड के नंबर जारी करने का आदेश रद्द करने के लिए उन्होंने अर्जी लगाई है। इस पर देश के मुख्य न्यायाधीश को कहना पड़ा कि उनके पास कोई अर्जी नहीं आई है, और उन्होंने यह भी कहा कि वे फैसला आ जाने के बाद आए हैं, और उनको अभी नहीं सुना जाएगा। एक और वकील की ऊंची आवाज पर मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें फटकार लगाई। इसके साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष ने राष्ट्रपति को एक चिट्ठी लिखी थी जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रोकने का अनुरोध किया था। इस पर भी अदालत ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि यह पब्लिसिटी पाने के लिए लिखी गई चिट्ठी थी, जो कि उन्हें भी भेजी गई है। इन सब छोटी-छोटी बातों से परे कुल मिलाकर बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट देश की सबसे बड़ी अदालत से जिस तरह लुकाछिपी खेल रही है, वह हक्का-बक्का करता है कि क्या लोगों में अपने ओहदे की जिम्मेदारी का कोई भी अहसास नहीं है? 

चुनावी बॉंड के मामले का हाल यह है कि पहली नजर में अब तक जो जानकारियां सामने आई हैं, उनके मुताबिक केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों में, या सरकार ने जिन उद्योगों के खिलाफ छापे मारे, जहां जांच शुरू की, जिन्हें नोटिस दिए, उन्होंने कुछ हफ्तों या महीनों के भीतर आपाधापी में करोड़ों के चुनावी बॉंड खरीदे, और किसी राजनीतिक दल को दिए। अब किसे दिए यह जानकारी सुप्रीम कोर्ट के बॉंड नंबरों से पता लगेगी, अगर 21 तारीख के पहले स्टेट बैंक फिर कोई साजिश न गढ़ ले। और ऐसे बॉंड न सिर्फ केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा को मिले हैं, बल्कि दूसरी पार्टियों को भी मिले हैं, और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि दूसरी पार्टियों को सांसदों की संख्या के अनुपात में भाजपा के मुकाबले अधिक दान मिला है। यह एक अलग बात है कि जांच एजेंसियों का दबाव न सिर्फ केन्द्रीय एजेंसियों का हो सकता है, बल्कि राज्यों का भी हो सकता है, जिन्हें चुनावी बॉंड से काफी पैसा मिला है। तृणमूल कांग्रेस और भारत राष्ट्र समिति जैसी एक-एक राज्य वाली पार्टियों को कांग्रेस से अधिक, और जरा कम चंदा मिला है, जो कि क्षेत्रीय ताकत का सुबूत है। इसलिए जब तक बॉंड नंबरों से ठीक-ठीक जानकारी सामने नहीं आ जाती, यह बात भी रहस्यमय है कि किन दानदाताओं ने किस पार्टी को कब और कितना चंदा दिया है, और उनके खिलाफ उस पार्टी की केन्द्र या राज्य सरकार के पास कौन से मामले थे, या कि इन सरकारों से उन्हें कौन सी कारोबारी रियायतें मिल रही थीं। देश में सबसे अधिक चुनावी बॉंड खरीदने वाले एक लॉटरी-कारोबारी ने सबसे अधिक चंदा दक्षिण भारत के तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके को दिया है, जहां उसका लॉटरी का बहुत बड़ा कारोबार है। ऐसे तमाम राष्ट्रीय और प्रादेशिक सत्ताओं के असर को देखना होगा, और हमें उम्मीद है कि बॉंड के नंबर सामने आते ही, किन पार्टियों ने किस नंबर के बॉंड को भुनाया है, यह जानकारी सामने आते ही मीडिया का एक जागरूक तबका और कुछ वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, जनसंगठन तुरंत ही इसका विश्लेषण देश के सामने रखेंगे, और आने वाले लोकसभा चुनाव में जनता इस आधार पर फैसला कर सकेगी कि किस पार्टी की सरकार ने किन लोगों से कब, कितना, और किस तरह का नजराना, शुकराना, या जबराना हासिल किया था। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एकदम सही है कि जनता को यह जानने का पूरा हक है। और आज जिस तरह से अलग-अलग कई ताकतें लोकतंत्र के लिए जरूरी यह जानकारी उजागर होने से रोकने में जुट गई हैं, उन्हें देखते हुए सुप्रीम कोर्ट का रूख हौसले का भी लग रहा है कि वह अपने बुनियादी निष्कर्ष पर टिका हुआ है कि जनता के सामने पूरी की पूरी जानकारी रखी जाए, और किसी को भी कुछ भी छुपाने का मौका न दिया जाए। 

केन्द्रीय जांच एजेंसियों और राज्य सरकारों की कई तरह की कार्रवाईयों से परे यह बात भी सामने आई है कि देश में जिन बड़ी दवा कंपनियों के खिलाफ घटिया दवा निर्माण की जांच चल रही थी, उन्होंने आनन-फानन बहुत बड़ी-बड़ी रकमों के चुनावी बॉंड खरीदे। यह कार्रवाई करने का अधिकार केन्द्र और राज्य सरकार दोनों को रहता है, अब यह देखना है कि इन कंपनियों ने यह नजराना या शुकराना किस जगह सत्तारूढ़ पार्टी को दिया था। इसके अलावा कई ऐसी कंपनियों की जानकारी सामने आई है जो कि साल भर में खुद तो दो करोड़ भी नहीं कमा पाई, लेकिन जिसने 183 करोड़ जैसी बड़ी रकम का चुनावी चंदा दिया है। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और सबसे संपन्न कारोबारियों के बीच अगर इतना अनैतिक गठबंधन चल रहा है, तो इसका भांडाफोड़ होना जरूरी है। और लोकसभा चुनाव का यह मौका इसके लिए एकदम सही है, और शायद इसी चुनाव को प्रभावित होने से बचाने के लिए स्टेट बैंक इस अंदाज में जानकारी को दबाने पर आमादा है कि मानो बैंक खुद अपने नीले गोले के छेद वाले निशान के साथ चुनाव लडऩे जा रहा है। 

21 तारीख को अगर स्टेट बैंक पूरी जानकारी दे भी देता है, तो भी सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच को चाहिए कि वह स्टेट बैंक चेयरमैन को अदालत की अवमानना के लिए कम से कम एक दिन की कैद दे। स्टेट बैंक ने मन, वचन, और कर्म तीनों से न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को, बल्कि देश के लोकतंत्र को धोखा देने की कोशिश की है। जब इतने बड़े ओहदे पर बैठा आदमी सुप्रीम कोर्ट को इस बेशर्मी और दुस्साहस के साथ उसकी औकात दिखा रहा है, तो उसे इसके दाम भी चुकाने चाहिए। हमारा ख्याल है कि स्टेट बैंक की बदमाशी की वजह से अदालत का जितना वक्त खराब हुआ है, उसकी भरपाई स्टेट बैंक चेयरमैन की निजी तनख्वाह से करवानी चाहिए, तभी जाकर देश के बाकी लोगों के सामने यह मिसाल रहेगी कि राजनीतिक ताकतों को बचाने के लिए वे अगर इतने घटिया स्तर पर उतरेंगे, और अदालत की अवमानना करेंगे, तो उसके दाम भी उन्हें चुकाने होंगे।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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