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किसी धर्म या नस्ल के लोगों को कम बच्चे सुझाने का मतलब?
19-May-2024 5:02 PM
किसी धर्म या नस्ल के लोगों को कम बच्चे सुझाने का मतलब?

अमरीका की समाचार पत्रिका, टाईम, ने वहां के कई शोधकर्ताओं और विशेषज्ञों से बात कर यह नतीजा निकाला है कि वहां अल्पसंख्यक कहे जाने वाली नस्लों, रंगों, और राष्ट्रीयता की महिलाओं पर परिवार नियोजन के लिए दबाव अधिक रहता है। अमरीका में आबादी कोई बड़ी दिक्कत नहीं है, और वहां कागजों पर संवैधानिक अधिकार पूरी तरह बराबर हैं, लेकिन फिर भी जगह-जगह से नस्लीय भेदभाव की शिकायतें आती हैं, और काले लोग, या लैटिन, मैक्सिकन, दूसरे अश्वेत समुदाय भेदभाव अधिक झेलते हैं। योरप के एक देश ग्रीनलैंड के बर्फीले इलाके में रहने वाले एक समुदाय की आबादी बढऩे से रोकने के लिए दूर राजधानी से अफसरों ने यह तय किया था कि इस इलाके की छोटी-छोटी स्कूली लड़कियों के बदन में भी गर्भनिरोधक फीट कर दिए जाएं। 1960 और 70 के दशक में एक समुदाय की आबादी को रोकने के लिए अफसरों और डॉक्टरों ने यह तय किया था, और छोटी-छोटी नाबालिग लड़कियों के मां-बाप की जानकारी के बिना, इन लड़कियों को कुछ समझाए बिना, उनके बदन में गर्भनिरोधक फीट कर दिए गए थे। अब बीते कुछ बरसों में जबसे इस शादी का भांडाफोड़ हुआ है, वहां की सरकार इस मामले की जांच करा रही है। दूनिया के कुछ और देशों में भी आदिवासी, मूलनिवासी, या दूसरे कमजोर तबकों के साथ ताकतवर, शहरी, शिक्षित तबके ऐसा ही करते आए हैं। अब अमरीका से आई यह खबर इसलिए कुछ चौंकाती है कि वहां की भाषा में जो लोग अल्पसंख्यक हैं, उनके खिलाफ अगर वहां की गोरी और ताकतवर आबादी इस तरह के भेदभाव की हिंसा करते आई है, तो वह अमरीका के अपने मानवाधिकार के दावों के खिलाफ जाने वाली बात है। 

लेकिन जरा सी देर के लिए यह सोचें कि डॉक्टर तबका ऐसा करता क्यों होगा? क्या इसके पीछे डॉक्टरों की यह सामाजिक जागरूकता और जवाबदेही भी हो सकती है कि कैसे उनके पास आने वाली महिलाएं अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद और बच्चे पैदा करने पर रोक नहीं लगा रही हैं? डॉक्टरों में हर कोई नस्लवादी या गैरजिम्मेदार हों ऐसा भी जरूरी नहीं है। दूसरी तरफ हर डॉक्टर को अपने देश के अल्पसंख्यक तबकों के साथ ऐसा बर्ताव करने से कोई फायदा होता हो यह भी जरूरी नहीं है। इसलिए हो सकता है कि कुछ डॉक्टर अपने मरीज के भले के लिए, उसके पारिवारिक और सामाजिक भले के लिए भी उसे गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करते हों। जिस अमरीका से यह शोध निष्कर्ष सामने आया है, उस अमरीका में भी यही तमाम तबके अधिक गरीबी के शिकार हैं। ऐसे में उन्हें कम बच्चे की सलाह देने के पीछे कोई डॉक्टरी विशेषज्ञता होना जरूरी नहीं रहता, सामान्य समझबूझ और सद्भावना से भी ऐसी सलाह दी जा सकती है। 

अब हिन्दुस्तान में शाहरूख खान जैसे लोग सरोगेसी से तीसरा बच्चा पाते हैं, लेकिन उसे पालने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। दूसरी तरफ किसी गरीब परिवार में तीसरे बच्चे उस परिवार पर बहुत बड़ा बोझ रहते हंै, तब तक जब तक कि वे पढ़-लिखकर या कोई हुनर सीखकर किसी काम-धंधे में न लग जाएं। लेकिन हिन्दुस्तान के आम मुस्लिम परिवार की गरीबी तीसरे बच्चे की वकालत नहीं कर सकती। और चूंकि देश में दलित, आदिवासी, मुस्लिम ऐसे तबके हैं जिनमें गरीबी अधिक है, तो यह बात जाहिर है कि ऐसे तबकों को परिवार नियोजन की, नसबंदी या गर्भनिरोधकों की जरूरत आर्थिक और सामाजिक कारणों से भी अधिक है। यह बात पूरे देश पर आबादी के बोझ से कहीं अधिक इन परिवारों के अपने बोझ से जुड़ी हुई अधिक है कि क्या ये सचमुच एक और बच्चे का खर्च उठा सकते हैं? क्या ये इतने बच्चों के खानपान, पढ़ाई-लिखाई, इलाज, और व्यक्तित्व विकास का खर्च ढो सकते हैं ?

अमरीका की पूरी शोध को देखे बिना हम इस बात को लिख रहे हैं, इसलिए इसे अमरीका के इस निष्कर्ष से जोडक़र न देखा जाए। इसे दुनिया के उन तमाम देशों पर लागू करके देखा जाए जहां पर गरीबी हैं, या जिस धर्म और जाति के लोग, रंग और नस्ल के लोग अधिक गरीब हैं, उनसे जोडक़र देखा जाए। हमारा ख्याल है कि डॉक्टर भी अपने मरीज के बदन के साथ-साथ उसकी पारिवारिक और सामाजिक स्थिति को भी देखते हैं। हम अपने आसपास ही ऐसे डॉक्टर देखते हैं जो मरीज की आर्थिक स्थिति देखते हुए कई बार कम दाम की दवाईयां लिखते हैं, कम खर्चीले इलाज बताते हैं। अब ऐसे गरीब मरीजों के धर्म और उनकी जाति को लेकर एक निष्कर्ष यह भी निकल सकता है कि वे दलित-आदिवासी, या धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव कर रहे हैं। लेकिन अगर उनकी फिक्र मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए तो है, जैन अल्पसंख्यकों के लिए नहीं है, तो इसकी एक वजह यह हो सकती है कि जैन समाज आमतौर पर संपन्न रहता है, उसे परिवार को छोटा रखने की नसीहत देना उतना जरूरी नहीं रहता, जितना कि एक गरीब परिवार को देना रहता है। 

आज हिन्दुस्तान जैसे देश में कुछ लोग मुस्लिमों की आबादी बढऩे के आंकड़ों को लेकर एक भयानक तस्वीर दिखाने की कोशिश करते हैं। आंकड़े अपने आपमें कुछ नहीं बोलते, उन्हें अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल करके उनसे कई तरह के मतलब निकाले जाते हैं। इनमें से एक भारत में मुस्लिम आबादी की दहशत पैदा करने का भी है। अब ऐसी किसी मुस्लिम-विरोधी नीयत के बिना भी अगर कोई आमतौर पर, अमूमन गरीब मुस्लिम समाज को कम बच्चों की सलाह दे, तो वह साम्प्रदायिक मानने के बजाय उस समुदाय के भले की सलाह मानना बेहतर होगा क्योंकि कम बच्चों का ख्याल मुस्लिम परिवार बेहतर तरीके से रख सकेंगे, उन्हें अधिक दूर तक आगे बढ़ा सकेंगे। दूसरी तरफ मुस्लिम आबादी का मुकाबला करने के लिए जो हिन्दू नेता हर हिन्दू परिवार को चार, छह, या दस तक बच्चे पैदा करने का फतवा देते हैं, वे हिन्दुओं के दुश्मन के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि आज बहुत संपन्न परिवार भी दस बच्चों का खर्च नहीं उठा सकते, और आम परिवार में दस बच्चों का मतलब हर बच्चे का कुपोषण का शिकार होना, और अधिक से अधिक एक मजदूर बनने जितना काबिल बनना हो जाएगा। 

जो लोग आबादी बढ़ाने की बात करते हैं, या बढ़ाते हैं, वो खुद अपना नुकसान सबसे अधिक करते हैं। अमरीका में भी जो समुदाय आज गोरों के मुकाबले गरीब हैं, उनमें अधिक बच्चे पैदा करने से उनका कुछ भला नहीं होता है। अब वहां के डॉक्टर अगर किसी साम्प्रदायिक आधार पर इन नस्लों की आबादी बढऩे देने के खिलाफ हैं, तो वह एक अलग जांच और कार्रवाई का मुद्दा है। हम इस खबर की बड़ी सीमित जानकारी के आधार पर आज सिर्फ इतना कहना चाहेंगे कि जो तबके कमजोर हैं, उन्हें बहुत अधिक बच्चे पैदा करने के खिलाफ समझाना उन तबकों का नुकसान करना नहीं है, उनका फायदा करना ही है। अब ऐसे फायदे के साथ-साथ अगर कोई साम्प्रदायिक या नस्लभेदी नजरिया है, तो वह एक अलग बात है, लेकिन हम आमतौर पर आर्थिक रूप से कमजोर किसी भी समाज में बच्चों की सीमित संख्या के हिमायती हैं, और इसे उस समुदाय के खिलाफ साजिश मानना गलत होगा। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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