आजकल

सरकारी अतिसंपन्नता दुश्मन बन गई है तालाब-मैदान की
14-Jul-2024 4:11 PM
सरकारी अतिसंपन्नता दुश्मन बन गई है तालाब-मैदान की

हर कुछ महीनों में यह दिखाई देता है कि कहां कौन सा नया तालाब सरकारी अवैध कब्जे और अवैध निर्माण का शिकार हो रहा है। देश भर में तालाबों के किनारे गरीबों के अवैध कब्जे तो होते ही रहते हैं क्योंकि उन्हें बसने के लिए जगह की हमेशा कमी रहती है, लेकिन जब स्थानीय म्युनिसिपल या राज्य शासन या बड़े कारोबारी तालाबों के किनारे अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करते हैं तो वह जिंदगी गुजारने के लिए मजबूरी का कोई काम नहीं रहता, वह कमाई करने के लिए किया जा रहा गैरकानूनी काम रहता है।

छत्तीसगढ़ में लगातार यह छपते ही रहता है कि किस जगह नगर निगम तालाब के किनारे पाल बनाने के नाम पर, रास्ता बनाने के नाम पर तालाब के कुछ हिस्से को पाटने पर आमादा है, और सौंदर्यीकरण के नाम पर अंधाधुंध पैसा भी झोंका जा रहा है, और पानी की जगह कम की जा रही है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के अनगिनत फैसले सामने हैं जो कहते हैं कि किसी भी तरह की पानी की कोई सार्वजनिक जगह, कोई सार्वजनिक मैदान या उद्यान, या कोई चारागाह खत्म न किया जाए। सुप्रीम कोर्ट के ऐसे भी फैसले हैं कि अगर इनमें से किसी जगह पर कोई पक्का निर्माण हो भी चुका है, तो भी उसे हटाकर उसे उसके मूल सार्वजनिक स्वरूप में वापिस लाया जाए, यानी अगर तालाब के किसी हिस्से को पाटकर वहां किसी तरह का निर्माण किया गया है, तो उसे तोडक़र फिर से तालाब बनाया जाए, या चारागाह अगर निर्माण में खत्म हो रहा है, तो ऐसे निर्माण तोड़े जाएं।

हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर को एक मिसाल के तौर पर लेते हैं क्योंकि यहां की खबरों को कुछ अधिक करीब से देखते हैं। मौजूदा और पुराने शहर रायपुर से लेकर नए बसे हुए कॉलोनीनुमा शहर नया रायपुर तक अनगिनत तालाब ऐसे हैं जिन्हें खूबसूरत बनाने के नाम पर म्युनिसिपल से लेकर पर्यटन विभाग तक, और स्मार्टसिटी प्रोजेक्ट तक के करोड़ों रूपए झोंके जा रहे हैं, और उनकी पानी की जगह सिमटती जा रही है। कुछ ऐसा ही शहर के बगीचों के साथ हो रहा है, और खेल के मैदानों के साथ तो हो ही चुका है। इन सबके पीछे सबसे बड़ी नीयत कंस्ट्रक्शन में होने वाली मोटी काली कमाई की रहती है, अगर कंस्ट्रक्शन नहीं होगा, तो वह पैसा कैसे मिलेगा? इसलिए हर खुली जगह पर कुछ न कुछ बनाने की एक हिंसक कार्रवाई चलती रहती है। हमने अनगिनत तालाबों, बगीचों, और मैदानों को इसी तरह सिमटते देखा है। जब कभी ऐसे किसी निर्माण या तथाकथित सौंदर्यीकरण को लेकर हल्ला उठता है, तो एकाएक म्युनिसिपल, स्मार्टसिटी, या पर्यटन विभाग किसी छोटे मासूम बच्चे की तरह अनजान बन जाते हैं, और इस काम की जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डालने लगते हैं। हालत तो यहां तक बिगड़ी हुई है कि शहर के बीचों-बीच किसी डिवाइडर को मोटी रकम लगाकर फाइबर के पैनलों से ढांका जा रहा था, और जब यह विवाद उठा कि इसका तो टेंडर ही नहीं हुआ है, तो म्युनिसिपल ने यह कह दिया कि वह इस काम को करवा ही नहीं रहा है, और इसका जिम्मा किसी व्यापारी संगठन पर डाल दिया गया, मानो व्यापारी संगठन सडक़ पर अपनी मर्जी से इतना बड़ा कोई काम कर सकता है, और म्युनिसिपल उससे अनजान रह सकता है।

यह समझने की जरूरत है कि सरकारी संस्थाओं की अतिसंपन्नता कुदरत को खत्म करने की सुपारी उठा चुकी है। छत्तीसगढ़ में शहरों पर खर्च करने के लिए सरकार के पास इतना अधिक पैसा है कि किसी अच्छे-भले फुटपाथ को उखाडक़र उसे दुबारा बनाया जाता है, जिस पर न पहले कोई चलते थे, और न दुबारा बनाने के बाद कोई चलेंगे। सरकार के जितने भी किस्म के विभाग और दफ्तर हो सकते हैं, वे बहुत तेजी से बजट और दूसरे किस्म की रकम को खर्च करने की हड़बड़ी में रहते हैं, और ऐसा लगता है कि उन्होंने कम से कम समय में अधिक से अधिक खर्च करने की कोई शर्त लगाई हुई है। हमें सरकारी या म्युनिसिपल निर्माण के भ्रष्टाचार की उतनी फिक्र नहीं है जितनी फिक्र तालाबों पर गैरजरूरी निर्माण करके पानी के इलाके को घटाने की हरकत से है। यह सिलसिला बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए, अफसरों और नेताओं को अलग कोई जमीन आबंटित कर देनी चाहिए जहां पर वे तरह-तरह के फर्जी निर्माण करवा सकें, और उसमें कमाई कर सकें।

जनता के बीच का भी कोई जागरूक तबका रहता, तो वह तालाब जैसी जरूरी और जीवन-रक्षक सार्वजनिक-धरोहर को बचाने के लिए अदालत तक गया रहता, लेकिन अभी तो हमें इस प्रदेश में ऐसे लोग दिखते नहीं हैं, जबकि ऐसे नाजायज निर्माण की खबरें लगातार छपती हैं। अब तो यही लगता है कि प्रदेश के हाईकोर्ट को अपने ऐसे न्याय-मित्र नियुक्त करने चाहिए जो कि प्रदेश भर की खबरों को लेकर रोजाना ही अदालत के सामने नियमों को तोडऩे की लिस्ट पेश कर सके, और फिर अदालत के कहे मुताबिक इनमें से छांटे गए मामलों की जानकारी सरकार से मंगा सके, और जरूरत लगे तो अदालत इन पर खुद होकर मुकदमा शुरू कर सके। इससे कम में हमें तालाब बचते नहीं दिखते हैं। हाईकोर्ट को भी तालाबों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तारीख के बाद के तमाम मामलों को देखना चाहिए क्योंकि धरती पर तालाब सिर्फ देखने के लिए नहीं है, उनसे जमीन के नीचे का पानी भी जुड़ा हुआ है, और अगर तालाब घटते चले गए, तो भूजल का स्तर गिरते चले जाएगा। अब तो हालत यह हो गई है कि कोई बड़ा बिल्डर किसी इलाके में अपना कोई बड़ा प्रोजेक्ट लाता है, तो आसपास के तालाबों को सौंदर्यीकरण के नाम पर सरकारी खर्च से पटवाना भी शुरू कर देता है, कहीं वह गैरजरूरी चौड़ी सडक़ बनवा देता है, ताकि उसके प्रोजेक्ट का बाजारू महत्व बढ़े, तो कहीं वह तालाबों के आसपास लोगों के टहलने के नाम पर उसे चारों तरफ से पटवाता है ताकि उसके अपने प्रोजेक्ट के खरीददार वहां घूम सकें। यह सिलसिला हाईकोर्ट की दखल के बिना रूकते नहीं दिखता है।

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news