संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कमल के मुकाबले कमलनाथ का हिन्दुत्व, और पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ का भी...
08-Aug-2023 4:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कमल के मुकाबले कमलनाथ का हिन्दुत्व, और पड़ोसी  राज्य छत्तीसगढ़ का भी...

photo : TWITTER/BAGESHWAR DHAM

मध्यप्रदेश में भूतपूर्व मुख्यमंत्री, वर्तमान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, और कांग्रेस की सरकार बनने पर भावी मुख्यमंत्री कहे या समझे जा रहे कमलनाथ ने देश के एक सबसे विवादास्पद धर्म-प्रचारक नौजवान धीरेन्द्र शास्त्री का आयोजन करवाकर कांग्रेस का एक नया ही रंग सामने रखा है। कांग्रेस का भगवाकरण काफी अरसे से चल रहा था, लेकिन अब अपने चुनाव क्षेत्र में, अपने घर पर, अपने खर्च से, अपने निजी विमान से, और अपने परिवार से इस आयोजन को करवाकर कमलनाथ ने हिन्दू वोटरों को साधने की एक बड़ी फूहड़ कोशिश की है, और अगर हिन्दू वोटरों में समझ होगी तो उन्हें ऐसे झांसे में नहीं आना चाहिए। देश भर में बागेश्वर धाम, बागेश्वर बाबा, या बागेश्वर सरकार ऐसे कई नामों से खबरों में बने हुए धीरेन्द्र शास्त्री नाम के एक नौजवान को मुसलमानों के खिलाफ भडक़ाऊ बयान देते हुए कैमरों पर रिकॉर्ड किया जाता है, यह नौजवान लगातार भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का फतवा भी देता है, और महिलाओं के बारे में तो इस नौजवान की गंदी और ओछी सोच ने बहुत से धर्मालु हिन्दुओं को भी हक्का-बक्का कर दिया है। इस बारे में हम कुछ कहें, उसके साथ-साथ उत्तरप्रदेश के कांग्रेस के एक नेता, आचार्य प्रमोद कृष्णम ने ट्वीट किया है- मुसलमानों के ऊपर बुलडोजर चढ़ाने, आरएसएस का एजेंडा हिन्दू राष्ट्र की खुल्लम-खुल्ला वकालत करने, और संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले भाजपा के स्टार प्रचारक की आरती उतारना, कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को शोभा नहीं देता। आज रो रही होगी गांधी की आत्मा, और तड़प रहे होंगे पं.नेहरू और भगतसिंह, लेकिन सेक्युलरिज्म के ध्वजवाहक जयराम रमेश, दिग्विजय सिंह, और मल्लिकार्जुन खडग़े, सब खामोश हैं।

 
मध्यप्रदेश से आने वाली खबरें बताती हैं कि कांग्रेस पार्टी एक पार्टी के रूप में कमलनाथ के इस आयोजन पर कुछ कहने से बच रही है, और इसे उनका व्यक्तिगत मामला बता रही है, पार्टी का नहीं। इसके पहले भी पिछले कुछ बरसों से कमलनाथ मध्यप्रदेश कांग्रेस को सम्हालने के साथ-साथ तरह-तरह से हिन्दू कर्मकाण्डों में घुसपैठ कर रहे हैं, और उन्होंने पार्टी को भी, पार्टी की कुछ वक्त की सरकार को भी इसमें झोंक दिया है। कमलनाथ कहीं बजरंगबली के नाम पर तरह-तरह के आयोजन कर रहे हैं, और अभी कुछ अरसा पहले ही उन्होंने बजरंग सेना के कार्यकर्ताओं को हनुमान चालीसा के पाठ सहित कांग्रेस में शामिल करवाया है। प्रियंका गांधी के मध्यप्रदेश आने पर भी बड़े पैमाने पर धार्मिक कर्मकाण्ड किए गए, और ऐसा लगता है कि पार्टी ने एक किस्म से हिन्दुत्व को अकेला विकल्प मान लिया है। कम से कम मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, इन दो जगहों पर तो यह दिख ही रहा है। 

मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह जैसे मुखर धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति, और अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए खुलकर बोलने वाले नेता भी हैं, और ऐसा माना जाता है कि कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनवाने में सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का था। ऐसे दिग्विजय सिंह अमूमन अपने धर्म को अपनी निजी आस्था तक सीमित रखते आए हैं, लेकिन आज मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में धर्म का सरकारी या संगठन स्तर पर जिस तरह का आक्रामक आयोजन चल रहा है, उसमें दिग्विजय का हिन्दू धर्म भी किनारे फुटपाथ पर बैठकर नजारा देख रहा है। इन दोनों ही प्रदेशों में अल्पसंख्यकों पर खुले जुल्म हो रहे हैं, वे दहशत में जी रहे हैं, लेकिन आक्रामक हिन्दुत्व के मामले में भाजपा को पीछे छोडऩे के लिए कमलनाथ, और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जिन तेवरों के साथ काम कर रहे हैं, वे कांग्रेस में अभूतपूर्व हैं। हो सकता है कि ये नेता पार्टी को यह कहकर सहमत करा रहे हों कि एक साम्प्रदायिक हिन्दुत्व का मुकाबला एक धर्मनिरपेक्ष हिन्दुत्व के बिना नहीं किया जा सकता। लेकिन हमारा प्रत्यक्ष अनुभव यह है कि आज देश में अल्पसंख्यक जिस असुरक्षा के शिकार हैं, वे जिस दहशत में जी रहे हैं, बहुसंख्यक तबके के कुछ लोग अपने धर्म के नाम पर जिस तरह की हिंसा फैलाए हुए हैं, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि इस देश की हर जिम्मेदार लोकतांत्रिक पार्टी को अपना धर्मनिरपेक्ष चरित्र बचाकर रखना चाहिए, महज नाम में धर्मनिरपेक्ष जोड़ लेना काफी नहीं होता, पार्टी और नेताओं को अपना चाल-चलन भी सभी धर्मों के प्रति बराबरी के नजरिए का रखना चाहिए। आज कांग्रेस के नेताओं में भाजपा के मुकाबले अपने को अधिक गहरे रंग का भगवा साबित करने की जो होड़ लगी हुई है, उससे अल्पसंख्यक तबकों को, दलितों और आदिवासियों को जो निराशा हो रही है, उसे समझने के लिए कांग्रेस के आज के नेताओं को नेहरू और गांधी को फोन लगाना होगा। ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी में आज नाम के लिए भी धर्मनिरपेक्षता की समझ नहीं रह गई है। ऐसा भी लगता है कि राहुल गांधी जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह उनकी अपनी पार्टी की भाषा नहीं रह गई है। राहुल का कहना धर्मनिरपेक्षता के करीब लगता है, और उनकी पार्टी का करना उसके ठीक खिलाफ लगता है। किसी एक चुनाव को हार जाने का डर, और जीत जाने का लालच अगर नेहरू और गांधी की कांग्रेस को न सिर्फ हिन्दुत्व की, बल्कि साम्प्रदायिकता की भी, बी, सी, या डी टीम बनने को मजबूर कर रही है, तो ऐसे मजबूर लोग उस ऐतिहासिक कांग्रेस के नेता नहीं हो सकते, जिसके नेहरू और गांधी ने अपनी निजी अनास्था या आस्था के बाद भी देश के किसी धर्म के इंसान को कभी अकेला महसूस नहीं होने दिया था। अपनी सारी आस्था के साथ भी गांधी की जिंदगी का एक-एक कतरा उनके धर्म से परे दूसरे धर्म के लोगों को बचाने के लिए धरती पर लहू की शक्ल में बिखर गया था। हिन्दू साम्प्रदायिकता से मुस्लिमों को बचाने के लिए गांधी ने क्या नहीं किया था, नेहरू ने देश में धर्मनिरपेक्षता की मजबूत जड़ें फैलाने के लिए क्या नहीं किया था, और आज उनकी पार्टी के नेता बेकसूर मुस्लिम लाशों को सुपुर्दे-खाक करने के वक्त एक मुट्ठी मिट्टी डालने से भी कांप रहे हैं, भाग रहे हैं। 

अगर हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में चुनाव जीतने की यही एक शर्त बाकी रह गई है, तो कांग्रेस पार्टी को ऐसा धर्मान्ध और साम्प्रदायिक होने के बजाय कुछ और चुनाव हार बर्दाश्त कर लेना चाहिए, आज उसने धर्मनिरपेक्षता के मोर्चे पर जो हार बड़ी मेहनत से हासिल की है, गांधी-नेहरू ने कांग्रेस को इस दिन के लिए नहीं बनाया था। देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भी अगर अल्पसंख्यकों पर जुल्म और जुर्म अनदेखे करके देश की पहली सबसे बड़ी पार्टी के साथ हिन्दुत्व की पंजा-कुश्ती में लगना अधिक महत्वपूर्ण समझ रही है, तो हो सकता है कि हिन्दुत्व की ठेकेदारी उसे नसीब हो जाए, लेकिन इतिहास इस बात को दर्ज करेगा कि नेहरू और गांधी की कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिए सूली पर चढ़ाए जा रहे ईसाईयों, जिंदा दफन किए जा रहे मुस्लिमों, जुल्म के शिकार आदिवासियों, और इंसान का दर्जा खो चुके दलितों को अनदेखा किया है। इस लोकतंत्र में जो ताकतें साम्प्रदायिकता की बुनियाद पर कामयाब होते आई हैं, उन ताकतों का इतिहास अच्छी तरह दर्ज है, लेकिन कांग्रेस से धर्मनिरपेक्षता की रवानगी, और साम्प्रदायिकता की अनदेखी हाल के बरसों की बातें हैं, और ऐसा भी नहीं है कि समकालीन इतिहास इसको दर्ज नहीं कर रहा है। साम्प्रदायिक ताकतों को चुनाव में हराने के लिए अगर साम्प्रदायिक हो जाना ही एक रास्ता है, तो कम से कम असली और खालिस धर्मनिरपेक्ष ताकतें चुनावी शिकस्त को बेहतर समझेंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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