संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक जनगणना ने सैकड़ों बरस से रूकी हुई बहस को जिंदा कर दिया है...
06-Oct-2023 5:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक जनगणना ने सैकड़ों  बरस से रूकी हुई बहस को जिंदा कर दिया है...

बिहार की जातीय जनगणना ने देश की हजारों बरस से चली आ रही व्यवस्था की चर्बी पर जोर डाला है। वे लोग भी अब जातीय व्यवस्था पर बात कर रहे हैं जो कि हजारों बरस से चली आ रही मनुवादी व्यवस्था के तहत फायदे की जगह पर थे, सवर्ण थे, दूसरों को कुचलने वाले तबकों के थे, और उस व्यवस्था से बहुत संतुष्ट भी थे। अब एकाएक उन्हें विशेषाधिकारों का यह फौलादी ढांचा चरमराते दिख रहा है, इसलिए उनकी बेचैनी बहुत अधिक है। वी.पी.सिंह के शब्दों में कहें तो जिन पैरों में चमड़े के तल्ले वाले जूते थे, और जिनके तले दूसरे कुचलते रहते थे, अब एकाएक उनके पैरों से जूते उतर गए हैं, और जूते गांठने वाले तबके जूते पहनने का हक मानने लगे हैं, तो एकाएक दहशत सरीखी हो गई है। इसका सबसे बड़ा नजारा सोशल मीडिया पर देखने मिल रहा है। 

कल तक के ट्विटर, और आज के एक्स नाम के माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म पर अंधाधुंध बहस चल रही है, और मनु के वंशज अपने तर्क दे रहे हैं, और मनु से जख्मी हुए तबके अपने तर्क। बिहार के जाति के आंकड़ों ने सोए हुए लोगों को जगा दिया है, और सबको अपने हक सूझ रहे हैं। जो लोग अब तक नाजायज हकों पर कब्जा करके बैठे हुए थे, वे अपनी आने वाली पीढिय़ों को सामाजिक न्याय मिलने की आशंका से भर गए हैं। लेकिन यह सिलसिला थमना अब उसी तरह मुश्किल है जिस तरह केदारनाथ, उत्तराखंड, हिमाचल, या अभी सिक्किम में पहाड़ी नदी उफान पर रहती है, ढलान की तरफ दौड़ती है, और उसे थामना नामुमकिन होता है। आज जाति व्यवस्था की इस पहाड़ी नदी के जंगली उफान से सबसे अधिक परेशान वे तबके हैं जिन्होंने इन नदियों के किनारे सवर्णों के मंदिर बनाए हुए थे, और दलित-आदिवासी के बाद अब ओबीसी जनजागरण से ये मंदिर ही सबसे पहले बह रहे हैं। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित बहुत से लोग इसे देश को बांटने वाला काम कह रहे हैं। और सोशल मीडिया पर उनके दसियों लाख भक्तजन भी इसी सोच को चारों तरफ फैला रहे हैं कि यह एक भारतविरोधी काम है। देश में जातीय जनगणना उसे टुकड़ों में बांट डालेगी। चूंकि राहुल गांधी ने इसे सबसे बड़ा मुद्दा बनाया है, और पूरे देश में इसे करवाने की घोषणा की है, इसलिए यह हमला मोदी खेमे की तरफ से राहुल और इंडिया गठबंधन पर है। लेकिन जो हकीकत हजारों बरस के जुल्मों के बाद भी जमीन पर बनी हुई है, वह अगर अब तक खतरा नहीं बनी थी, अब तक वह गुलामी की हीनभावना की शिकार थी, तो आज महज गिनती हो जाने से वह कैसे खतरनाक हो सकती है? और मनुवादी व्यवस्था के तहत जिन दलितों को सबसे अधिक कुचला गया था, जिन आदिवासियों को रामकथाओं में बंदर बना दिया गया था, वे लोग अगर सवर्ण तबकों के लिए आज तक खतरा नहीं बने, तो आज एकाएक ओबीसी जनजागरण कैसे खतरा बन सकता है? लेकिन जिन लोगों को ये नए आंकड़े खतरा लग रहे हैं, उनकी आशंकाओं में भी झांका जा सकता है। 

दलित और आदिवासी आरक्षण देश की आजादी के आसपास से चले आ रहा था, और वे तबके सवर्ण तबकों से बहुत दूर भी थे, सवर्ण-बेइंसाफी के शिकार होकर कमजोर भी थे, और उनके लिए तय किए गए आरक्षण से भी उनका बहुत भला नहीं हो रहा था। लेकिन ओबीसी तबका तो दलित और आदिवासी के ठीक ऊपर है, और सवर्णों के ठीक नीचे है। इसलिए ओबीसी से सवर्ण सोच को खतरा पड़ोसी से खतरे सरीखा हो रहा है। और दलित-
आदिवासी से खतरा दूर की चमार बस्ती या जंगल में बसे लोगों से खतरे सरीखा दूर का था। अब ओबीसी तबका आरक्षण के मौजूदा, और आगे हो सकने वाले आरक्षणों का फायदा उठाने के लिए अधिक ताकतवर रहेगा, और वह हर किस्म से सवर्णों को टक्कर देने के करीब रहेगा। इसलिए जाति आधारित यह जनगणना सवर्ण-बेचैनी की एक बड़ी वजह है। दलित और आदिवासी आरक्षण तो चले आ रहा था, यह ओबीसी तबका देश का सबसे बड़ा बवाल रहेगा, और संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की बात जब होगी, तो यह ओबीसी तबका ही अब तक के अनारक्षित चले आ रहे बहुत बड़े उस हिस्से में सबसे बड़ा हिस्सा मांगेगा जिस पर अब तक अनुपातहीन तरीके से सवर्णों का कब्जा चले आ रहा है। यह नौबत, या इस तरह की नौबत पूरी दुनिया में कहीं भी हमेशा नहीं चलती है, और वंचित तबके कभी न कभी अपने हक पाते हैं। इसलिए भारत में आज मनुवाद की सवर्ण व्यवस्था के सबसे बड़े संरक्षक, आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत को भी अब यह लग रहा है कि आरक्षण और सौ-दो सौ बरस जारी रह जाए तो सवर्णों को उससे बर्दाश्त करना चाहिए। हालांकि मोहन भागवत का यह ताजा चर्चित बयान बिहार की जातीय जनगणना के पहले का है, और वह मोटेतौर पर ओबीसी से जुड़ा हुआ नहीं है, लेकिन अब जब ओबीसी के दानवाकार आंकड़े एक हकीकत बनकर सामने आए हैं, तो मोहन भागवत का बयान शायद उस पर भी लागू होना चाहिए। 

देश में सवर्ण तबके की हड़बड़ाहट और दहशत नाजायज और गैरजरूरी है। अवसरों पर उनका एकाधिकार ही नाजायज था, और अब अगर वह टूट रहा है, तो उसे लेकर सच्चाई को मानने की कोशिश करनी चाहिए, और यह मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र में आज एक नई सामाजिक चेतना आई है, और सदियों से चले आ रही सामाजिक बेइंसाफी के दिन अब लद गए हैं। आने वाला वक्त एक-एक करके तमाम प्रदेशों, या पूरे देश में जातीय जनगणना का रहेगा, और अब तक के सवर्ण-कुलीन तबकों को, अपने लिए अवसरों के खुले मैदान का बड़ा हिस्सा छोडऩा पड़ेगा। स्कूल-कॉलेज से लेकर नौकरियों और संसद-विधानसभा तक सभी जगहों पर कुछ तबकों को कुर्सियां खाली करनी पड़ेंगी, और सदियों से खड़े हुए कुछ लोगों को बैठने की जगह मिलेगी। फिलहाल यह भी एक अच्छी बात है कि जातियों के आंकड़ों को लेकर लोगों के बीच सामाजिक हकीकत की लंबी और आक्रामक बहस चल रही है, और इससे अन्याय का इतिहास सामने आने का मौका मिलेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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